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• अध्याय ४१ : एक संवाद

सावधान कर देनेका विचार किया और यहांतक आनेका कष्ट दिया, जिससे भोले-भाले बंगालियोंकी भांति आप भी भूलमें न रह जायं ।”

यह कहकर सेठने अपने एक गुमाश्तेको अपने नमूने लानेके लिए इशारा किया । नमूने रद्दी सूतसे बने हुए कंवलके थे। उन्हें लेकर उन्होंने कहा-

“ देखिए, यह नया माल हमने तैयार किया है। इसकी बाजारमें अच्छी खपत है; रद्दीसे बना है, इस कारण सस्ता तो पड़ता ही है। इस मालको हम ठेठ उत्तरतक पहुंचाते हैं। हमारे एजेंट चारों ओर फैले हुए हैं। इससे आप यह तो समझ सकते हैं कि हमें आपके सरीखे एजेंटों की जरूरत नहीं रहती । सच बात तो यह है कि जहां आप-जैसे लोगोंकी आवाज तक नहीं पहुंचती, वहां हमारे एजेंट और हमारा माल पहुंच जाता है। हां, आपको तो यह भी जान लेना चाहिए कि भारतको जितने मालकी जरूरत रहती हैं उतना तो हम बनाते भी नहीं। इसलिए स्वदेशीका सवाल तो, खासकर उत्पत्तिका सवाल है। जब हम आवश्यक परिमाणमें कपड़ा तैयार कर सकेंगे और जब उसकी किस्म सुधार कर सकेंगे, तब परदेशी कपड़ा अपने-आप आना बंद हो जायेगा । इसलिए मेरी तो यह सलाह है कि आप जिस ढंगसे स्वदेशी आंदोलनका काम कर रहे हैं, उस ढ़ंगसे मत कीजिए और नई मिलें खड़ी करनेकी तरफ अपना ध्यान लगाइए। हमारे यहां स्वदेशी मालको खपानेका आंदोलन आवश्यक नहीं है, आवश्यकता तो स्वदेशी माल उत्पन्न करनेकी है ।"

"अगर मैं यह काम करता होऊं तो आप मुझे आशीर्वाद देंगे न ?' मैंने कहा ।

“यह कैसे ? अगर आप मिल खड़ी करनेकी कोशिश करते हों तो आप धन्यवादके पात्र हैं।

" यह तो मैं नहीं करता हूँ । हां चरखे के उद्धार-कार्य में अवश्य लया हुआ हूँ। "

“यह कौनसा काम है ?"

मैंने चरखेकी बात सुनाई और कहां-

“ मैं आपके विचारोंसे सहमत होता जा रहा हूं। मुझे मिलकी एजेंसी नहीं लेनी चाहिए । उसमें तो लाभके बदले हानि ही है । मिलोंका माल ३२