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अध्याय १७ : भोजनके प्रयोग


लिए है; अथवा जिस प्रकार मनुष्य एक-दूसरेका उपयोग करता है परंतु एक-दूसरेको खाता नहीं, उसी प्रकार पशु-पक्षी भी ऐसे उपयोगके लिए हैं, खा डालनेके लिए नहीं। फिर उन्होंने यह भी दिखाया कि खाना भी भोगके लिए नहीं, बल्कि जीनेके लिए ही है। इसपरसे कुछ लोगोंने भोजनमें मांस ही नहीं, अंडे और दूधतकको निषिद्ध बताया और खुद भी परहेज किया। विज्ञानकी तथा मनुष्यकी शरीररचनाकी दृष्टिसे कुछ लोगोंने यह अनुमान निकाला कि मनुष्यको खाना पकानेकी बिलकुल आवश्यकता नहीं। उसकी सृष्टि तो सिर्फ डाल-पके फलोंको ही खानेके लिए हुई है। दूध पिये भी तो वह सिर्फ माताका ही। दांत निकलनेके बाद उसे ऐसा ही खाना खाना चाहिए, जो चबाया जा सके। वैद्यकी दृष्टिसे उन्होंने मिर्च-मसालेको त्याज्य ठहराया और व्यावहारिक तथा आर्थिक दृष्टिसे बताया कि सस्ते-से-सस्ता भोजन अन्न ही है। इन चारों दृष्टि-बिंदुओंका असर मुझपर हुआ और अन्नाहारवाले भोजनालयोंमें चारों दृष्टि-बिंदु रखनेवाले लोगोंसे मेल-मुलाकात बढ़ाने लगा। विलायतमें ऐसे विचार रखनेवालोंकी एक संस्था थी। उसकी ओरसे एक साप्ताहिक पत्र भी निकलता था। मैं उसका ग्राहक बना और संस्थाका भी सभासद हुआ। थोड़े ही समयमें मैं उसकी कमेटीमें ले लिया गया। यहां मेरा उन लोगोंसे परिचय हुआ, जो अन्नाहारियोंके स्तंभ माने जाते हैं। अब मैं अपने भोजन-संबंधी प्रयोगोंमें निमग्न होता गया।

घरसे जो मिठाई, मसाले आदि मंगाये थे उन्हें मना कर दिया और अब मन दूसरी ही तरफ दौड़ने लगा। इससे मिर्च-मसालेका शौक मंद पड़ता गया और जो साग रिचमंडमें मसाले बिना फीका मालूम होता था वह अब केवल उबाला हुआ होनेपर भी स्वादिष्ट लगने लगा। ऐसे अनेक अनुभवोंसे मैंने जाना कि स्वादका सच्चा स्थान जीभ नहीं, बल्कि मन है।

आर्थिक दृष्टि तो मेरे सामने थी ही। उस समय एक ऐसा दल भी था जो चाय-कॉफीको हानिकारक मानता और कोकोका समर्थन करता। केवल शरीर-व्यापारके लिए जो चीज जरूरी है उसीको खाना चाहिए यह मैं समझ चुका था। इसीलिए चाय-कॉफी मुख्यतः छोड़ दी और कोकोको उनका स्थान दिया।

भोजनालयमें दो विभाग थे। एकमें जितनी चीज खाते उतने ही दाम