पृष्ठ:Satya Ke Prayog - Mahatma Gandhi.pdf/८७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।
६९
अध्याय १९ : असत्य-रूपी जहर


लंदनका अपना पता मुझे दिया और हर रविवारको अपने यहां भोजनके लिए निमंत्रित किया था। इसके सिवा भी जब-जब अवसर आता मुझे बुलाती। चाहकर मेरी शरम तुड़वाती। युवती स्त्रियोंसे पहचान करवाती और उनके साथ बातें करनेके लिए ललचाती। एक बाई उसीके यहां रहती थी। उसके साथ बहुत बातें करवाती। कभी-कभी हमें अकेले भी छोड़ देती।

पहले-पहल तो मुझे यह बहुत अटपटा मालूम हुआ। सूझ ही न पड़ता कि बातें क्या करूं। हंसी-दिल्लगी भी भला क्या करता, पर वह बाई मेरा हौसला बढ़ाती। मै इसमें ढलने लगा। हर रविवारकी राह देखता। अब तो उसकी बातोंमें भी मन रमने लगा।

इधर बुढ़िया भी मुझे लुभाये जाती। वह हमारे इस मेल-जोलको बड़ी दिलचस्पीसे देखती। मै समझता हूं उसने तो हम दोनोंका भला ही सोचा होगा।

अब क्या करूं? अच्छा होता यदि पहलेसे ही इस बाईसे अपने विवाह की बात कह दी होती। क्योंकि फिर भला वह क्यों मुझ-जैसेके साथ विवाह करना चाहती? अब भी कुछ बिगड़ा नहीं। समय है, सच कह देनेसे अधिक संकटमें न पडूंगा।' यह सोचकर मैंने उसे चिट्ठी लिखी। अपनी स्मृतिके अनुसार उसका सार नीचे देता हूं—

'जबसे ब्रायटनमें आपसे भेंट हुई, तबसे आप मुझे स्नेहकी दृष्टिसे देखती आ रही हैं। मां जिस प्रकार अपने बेटेकी सम्हाल रखती है उसी प्रकार आप मेरी सम्हाल रखती हैं। आपका खयाल है कि मुझे विवाह कर लेना चाहिए और इसलिए आप युवतियोंके साथ मेरा परिचय कराती हैं। इसके पहले कि ऐसे संबंधकी सीमा और आगे बढ़े, मुझे आपको यह कह देना चाहिए कि मैं आपके प्रेमके योग्य नहीं। मैं विवाहित हूं और यह बात मुझे उसी दिन कह देना चाहिए थी, जिस दिनसे मैं आपके घर आने-जाने लगा। हिंदुस्तानके विवाहित विद्यार्थी यहां अपने विवाहकी बात जाहिर नहीं करते, और इसीलिए मैं भी उसी ढर्रेपर चल पड़ा; पर अब मैं महसूस करता हूं कि मुझे अपने विवाहकी बात बिलकुल ही न छिपानी चाहिए थी। मुझे तो आगे बढ़कर यह भी कह देना चाहिए कि मेरी शादी बचपनमें ही हो गई थी और मेरे एक लड़का भी है। यह बात तो मैंने आपसे अबतक छिपा रक्खी थी, इसपर मुझे बड़ा पश्चात्ताप हो रहा है। परंतु अब भी ईश्वरने मुझे