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१२० :: तुलसी चौरा
 

'ऐसा मत कहिए। मैं आपके धर्म, आपके आचार-विचार नियम- अनुष्ठानों को मजे के लिए नहीं, पूरी श्रद्धा के साथ देखती हूँ, अपनाना चाहती हूँ। यदि मेरे इस एप्रोच में कहीं गलती हो तो मुझे रोकिये। लोगों के उपहास का पात्र मत बनाइए। आपकी प्रेमिका से मुझे शास्त्रसम्मान पत्नी का दरजा दीजिए। मैं चाहती हूँ, कि हमारा विवाह भी चार दिनों का हो।

'मैं जानता था, कि तुम्हारी इच्छा कुछ इसी तरह की होगी। पर मुझे इसमें कोई आपत्ति नहीं तुम्हारे कहने के पहले ही मैंने बाऊ से कह दिया है। पर इन भारतीयों की एक कमजोरी मैं तुम्हें बता वेना चाहता हूँ। हम लोग फूप्स के ढेर में सोये कुत्तों की तरह न तो खुद उसका सुख लेते हैं, न दूसरों को लेने देते हैं।'

सौ साल पहले जब मैक्समूलर ने वेद और उपनिषदों को प्रकाशित करना शुरू किया तो बजाय यह सोचने के कि एक विदेशी हमारी परंपरा की रक्षा में सक्रिय हैं, लोगों ने आपत्तियों की कि एक म्लेच्छ वेदों का प्रकाशन किस अधिकार से कर रहा है। स्वामी विवेकानन्द और रविन्द्र नाथ ठाकुर ने ही सैक्समूलर की प्रशंसा की थी।

'हो सकता है। पर मुझे लगता है, यहाँ भी परिवर्तन हुआ है।'

रवि ने आश्वासन दिया कि कुछ दिनों बाद वह फिर बाऊ से बात करेगा।

बसंती के चले जाने के बाद कमली के लिए ऐसा कोई नहीं था जिससे जी खोलकर बातें करती। कामाक्षी की घृणा और विरोध के बावजूद उन्हें अपना गुरु ही मानती रही। कई बातें सीख ली। घर में बीच-बीच में छिटपुट घटनाएँ भी घटीं, पर रवि और शर्मा जी इस बात के लिए सतर्क रहते थे कि कमली का मन न दुखे।

इस बीच कामाक्षी के मायके से, उसकी बूढ़ी मौसी मन्दिर के किसी उत्सव में भाग लेने आयी थी। उनका उद्देश्य वहाँ दसेक दिन ठहरने का था। बेहद कर्मकांडी महिला थीं। अपना काम स्वयं करतीं।