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माया और ईश्वरधारणा का क्रमविकास


देखते है, इन्द्र तथा अन्य देवता अनेक बुरे कार्य करते थे, किन्तु इन्द्र के उपासकों की दृष्टि मे पाप या बुरा काम कुछ भी नहीं था, इसलिये वे इस सम्बन्ध में कोई प्रश्न नही करते थे।

नैतिक भाव की उन्नति के साथ साथ मनुष्य के मन में एक युद्ध प्रारम्भ हुआ; मनुष्य के अन्दर मानों एक नई इन्द्रिय का आवि र्भाव हुआ। भिन्न भिन्न भाषाओं और भिन्न भिन्न जातियो ने इसको भिन्न भिन्न नाम दिये; कोई कहते है यह ईश्वरी वाणी है, कोई कहते हैं वह पहले की शिक्षा का फल है। जो भी हो, उसने प्रवृत्तियो को दमन करने वाली शक्ति के रूप में काम किया। हमारे मन की एक प्रवृत्ति कहती है, यह काम करो, दूसरी कहती है, मत करो। हमारे भीतर कितनी ही प्रवृत्तियाॅ है जो इन्द्रियों के द्वारा बाहर जाने की चेष्टा करती रहती है। और उनके पीछे चाहे कितना ही क्षीण क्यो न हो, और एक स्वर कहता है--बाहर मत जाना। इन दो बातो के संस्कृत नाम है प्रवृत्ति और निवृत्ति। प्रवृत्ति ही हमारे सभी कर्मों का मूल है। निवृत्ति से धर्म की उत्पत्ति है। धर्म आरम्भ होता है--इस "मत करना" से; आध्यात्मिकता भी इस "मत करना" से ही आरम्भ होती है। जहाॅ यह "मत करना" नहीं है वहाँ धर्म का आरम्भ ही नही हुआ ऐसा समझो। यह जो "मत करना" है, यहीं निवृत्ति का भाव आगया। और निरन्तर युद्ध मे रत पाशवीप्रकृति देवताओ के बावजूद भी मनुष्य की धारणा उन्नत होने लगी।

अब मनुष्य के हृदय मे प्रेम ने प्रवेश किया। अवश्य ही इसकी मात्रा बहुत थोड़ी थी और आज भी यह मात्रा