पृष्ठ:Vivekananda - Jnana Yoga, Hindi.djvu/११८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
११४
ज्ञानयोग

एक अनंत सर्वशक्तिमान और निःस्वार्थ पुरुष की जो इस विश्व का शासन कर रहे है। इस सगुण ईश्वर की धारणा के विरुद्ध खड़े होने के लिये कवि का साहस आवश्यक है। कवि पूछता है―तुम्हारा न्यायशील दयालु ईश्वर कहाँ है? वह मनुष्य है अथवा पशु? क्या वह अपनी लाखों सन्तान का विनाश नहीं देखता? कारण, ऐसा कौन है जो एक क्षण भी दूसरे की हिंसा किये बिना जीवन धारण कर सकता है? क्या आप सहस्रों जीवनों का संहार किये बिना एक सॉस भी ले सकते है? लाखों जीव मर रहे है, इसी से आप जीवित हैं। आपके जीवन का प्रति क्षण, प्रत्येक निःश्वास जो आप लेते है वह सहस्रों जीवों की मृत्युस्वरूप है और आपकी प्रत्येक गति लाखों जीवों की मृत्युस्त्ररूप है। वे क्यों मरे? इस सम्बन्ध में एक अति प्राचीन अयुक्तिपूर्ण दलील दी जाती है कि―"वे तो अति नीच जीव है।" मान लो कि यह बात ठीक है, किन्तु यह तो एक टेढा प्रश्न है जिसका निश्चय करना ही कठिन है। कौन कह सकता है कि चींटी मनुष्य से श्रेष्ठ है अथवा मनुष्य चींटी से? कौन कह सकता है कि यह ठीक है या वह ठीक है? मनुष्य घर बना सकता है, यन्त्र बना सकता है, इसलिये वही श्रेष्ठ है। परन्तु हम इसी तरह यह भी तो कह सकते हैं कि चींटी घर नहीं बना सकती, यन्त्र नहीं बना सकती इसीलिये वह श्रेष्ठ है। जिस प्रकार इस पक्ष में कोई युक्ति नहीं है उसी प्रकार उस पक्ष में भी कोई युक्ति नहीं है।

अच्छा, मान लिया कि वे अति क्षुद्र जीव हैं, फिर भी वे मरे क्यों? उनके क्षुद्र होने से ही तो उनका बचना और भी आवश्यक है। वे क्यों न बचें? उनका जीवन अधिकतर इन्द्रियों में आबद्ध है