सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:Vivekananda - Jnana Yoga, Hindi.djvu/१२७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१२३
माया और मुक्ति

जाती है। बारम्बार उस प्राचीर को भंग करने के उद्देश्य से वह वेग के साथ उसके ऊपर टक्कर मार सकता है। सारे जीवन भर जितना वह अग्रसर होता जाता है उतना ही उसका आदर्श उससे दूर होता चला जाता है―अन्त में मृत्यु आ जाती है और सारा खेल समाप्त हो जाता है; यही माया है।

वैज्ञानिक उठे, महाज्ञान की पिपासा लिये। उनके लिये ऐसा कुछ भी नहीं है जिसका वे त्याग न कर सकते हों, कोई किसी प्रकार भी उन्हे निरुत्साह नहीं कर सकता। वे धीरे धीरे आगे बढ़ते हुये प्रकृति के एक के बाद एक गुप्त तत्वो का आविष्कार करते है ―प्रकृति के अन्तस्तल में से आभ्यन्तरीण गूढ़ रहस्यो का उद्घाटन करते हैं―किन्तु इसका उद्देश्य क्या है? इस सब के करने का क्या उद्देश्य है? हम इन वैज्ञानिकों का गौरव क्यों करे? उन्हे कीर्ति क्यो मिले? क्या प्रकृति मनुष्य जितना जान सकता है उससे अनन्त गुना अधिक नहीं जान सकती? ऐसा होने पर भी क्या वह जड़ नहीं है? जड़ का अनुकरण करने में कौन सा गौरव है? बज्र चाहे कितना ही विद्युत्शक्तिशाली क्यो न हो, प्रकृति उसे चाहे जितनी दूर उठाकर फेक सकती है। यदि कोई मनुष्य उसका शतांश भी कर सकता है तो हम उसे उठाकर आकाश में पहुँचा देते है! परन्तु यह सब किस लिये? प्रकृति के अनुकरण के लिये, मृत्यु के, जड़त्व के, अचेतन के अनुकरण के लिये हम उसकी प्रशंसा क्यों करे?

मध्याकर्षण शक्ति भारी से भारी पदार्थ को क्षण भर में खण्ड खण्ड कर फेक सकती है, फिर भी वह एक जड़ शक्ति है। जड़