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ज्ञानयोग

सुनी थी, किन्तु उसे सुनकर तुम ठीक मार्ग पर नहीं चले। जिस मुक्ति के महान् आदर्श का तुमने अनुभव किया था वह सत्य है, किन्तु उसे बाहर की ओर खोजकर तुमने भूल की। इसी भाव को अपने निकट और निकटतर लाते चलो जब तक कि तुम यह न जान लो कि यह मुक्ति, यह स्वाधीनता तुम्हारे अन्दर ही है, वह तुम्हारी आत्मा की अन्तरात्मा है। यह मुक्ति बराबर तुम्हारा स्वरूप ही था, और माया ने तुम्हे कभी भी आक्रान्त नहीं किया। तुम्हारे ऊपर शक्ति विस्तार करने की माया की कमी सामर्थ्य ही न थी। बालक को भय दिखान पर जो बात होती है उसी प्रकार तुम भी स्वप्न देख रहे थे कि प्रकृति तुम्हे नचा रही है और इससे मुक्त होना तुम्हारा लक्ष्य है। केवल इसे बुद्धि से जानना ही नहीं, प्रत्यक्ष करना, अपरोक्ष करना, हम इस जगत् को जितने स्पष्ट रूप से देखते है उससे अधिक स्पष्ट रूप से देखना। तभी हम मुक्त होंगे, तभी हमारी गड़बड़ समाप्त होगी; तभी हृदय की समस्त चञ्चलता स्थिर हो जायगी, तभी सारा टेढ़ापन सीधा हो जायगा, तभी यह बहुत्वभ्रान्ति चली जायगी, तभी यह प्रकृति, यह माया अभी के भयानक अवसादकारक स्वप्न न होकर अति सुन्दर रूप में दीखगी, और यह जगत् जो इस समय कारागार के समान प्रतीत हो रहा है वह ऐसा न होकर क्रीड़ाक्षेत्र के रूप में दीख पड़ेगा, तब सब विपत्तियाँ, विश्रृंखलाये, और तो और, हम जो सब यन्त्रणाये भोग रहे है वे भी ब्रह्मभाव में परिणत हो जायँगी―उस समय वे अपने प्रकृत स्वरूप में दीख पड़ेगी―सभी वस्तुओ के पीछे, सभी का सारसत्ता स्वरूप वह मौजूद है ऐसा मालूम पड़ेगा और मालूम पड़ेगा कि वही हमारा वास्तविक अन्तरात्मा स्वरूप है।

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