नहीं वरन् इन सभी सिद्धान्तो से भी उच्चतर सिद्धान्तो को स्थापित करता है और इसी कारण से यह आधुनिक वैज्ञानिको को बहुत भाता है। वे देखते है कि प्राचीन द्वैतवादी धर्म उनके लिये पर्याप्त नहीं है, उनसे उनकी ज्ञान की भूख नहीं मिटती। किन्तु इस अद्वैतवाद में उनके ज्ञान की भूख मिटती है। केवल दृढ़ विश्वास रहने से ही मनुष्य का काम नहीं चलेगा, ऐसा विश्वास होना चाहिये जिससे उसकी ज्ञानवृद्धि चरितार्थ हो। यदि मनुष्य से जो कुछ वह देखे उसी पर विश्वास करने को कहा जाय तो वह शीघ्र ही पागलखाने में चला जायगा। एक बार एक महिला ने मेरे पास एक पुस्तक भेजी―उसमे लिखा था, सभी बातों पर विश्वास करना उचित है। उसमे यह भी लिखा था कि मनुष्य की आत्मा अथवा इस प्रकार की अन्य किसी वस्तु का अस्तित्व ही नहीं है। किन्तु स्वर्ग में देव-देवियाँ हैं और एक प्रकाश का सूत्र हममे से प्रत्येक के मस्तक के साथ स्वर्ग का संयोग कर रहा है। लेखिका को इन सब बातो का पता कैसे लगा? उन्होने प्रत्यादिष्ट होकर इन सब तत्वो को जाना था और उन्होने मुझसे भी इनपर विश्वास करने को कहा था। जब मैंने उनकी इन सब बातो पर विश्वास करना अस्वीकार कर दिया तब उन्होने कहा―"तुम अवश्य ही बड़े दुराचारी हो― तुम्हारे लिये अब कोई आशा नहीं है।" जो भी हो, इस उन्नीसवीं शताब्दी के अन्तिम भाग में भी हमारे बाप-दादा से आया हुआ धर्म ही एक मात्र सत्य है, अन्य जिस किसी स्थान में जिस-किसी भी धर्म का प्रचार हो रहा है वह अवश्य ही मिथ्या है―इस प्रकार की धारणा अनेक स्थानो में है। इससे प्रमाणित होता है कि हमारे भीतर अभी भी अनेक दुर्बलताये है―ये दुर्बलताये दूर करनी होंगी।
पृष्ठ:Vivekananda - Jnana Yoga, Hindi.djvu/१५९
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