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माया

निमित्त सम्बन्धी रहस्य को खोलने का प्रयत्न ही व्यर्थ है, क्योकि इसकी चेष्टा करते ही इन तीनो की सत्ता स्वीकार करनी होगी। तब यह किस प्रकार सम्भव है? और ऐसा होने पर जगत् के अस्तित्ववाद का क्या रूप रहेगा?―"इस जगत् का अस्तित्व नहीं है।" जगत् मिथ्या है―इसका अर्थ क्या है? इसका यही अर्थ है कि उसका निरपेक्ष अस्तित्व नहीं है। मेरे, तुम्हारे और अन्य सब के मन के साथ इसका केवल आपेक्षिक अस्तित्व है। हम पाँच इन्द्रियों द्वारा जगत् को जिस रूप में प्रत्यक्ष करते है, यदि हमारे एक इन्द्रिय और होती तो हम इससे अधिक कुछ नवीन प्रत्यक्ष करते और इससे भी अधिक इन्द्रिय सम्पन्न होने पर हम इसे और भी विभिन्न रूपों में देख पाते। अतएव इसकी सत्ता नहीं है―वह अपरिवर्तनीय, अचल, अनन्त सत्ता इसकी नहीं है। किन्तु इसको अस्तित्वशून्य नहीं कहा जा सकता, कारण इसकी वर्तमानता है और इसके साथ मिलकर ही हमे कार्य करना होगा। यह सत् और असत् का मिश्रण है।

सूक्ष्म तत्वो से लेकर जीवन के साधारण दैनिक स्थूल कार्यों तक पर्यालोचन करने पर हम देखते है कि हमारा सम्पूर्ण जीवन ही सत् और असत् इन दोनो विरुद्ध भावो का सम्मिश्रण है। ज्ञान के क्षेत्र में भी यह विरुद्ध भाव दिखाई पड़ता है। ऐसा प्रतीत होता है कि मनुष्य जिज्ञासु होने से ही समस्त ज्ञान प्राप्त कर लेगा; किन्तु दो चार पग चलने के बाद ही एक ऐसा अभेद्य व्यवधान देखने में आता है जिसको अतिक्रमण करना मनुष्य के वश के बाहर है। उसके सभी कार्य एक वृत्ताकार परिधि के अन्दर घूमते रहते हैं जिसको वह कभी लॉघ नहीं सकता। उसके अन्तरतम एवं प्रियतम रहस्य