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जगत्


भीतर से शरीर के ऊपर कार्य करके वह अपनी महिमा का विकास कर रही है, फिर शरीर से बहिर्जगत का ग्रहण तथा अनुभव कर रही है। वह एक शरीर ग्रहण कर उसका उपयोग करती है; जब उस शरीर के द्वारा और कोई कार्य करने की सभावना नही रहती है तब वह दूसरे शरीर को ग्रहण कर लेती है।

अब आत्मा के पुनर्जन्म के बारे मे प्रश्न आता है। पुनर्जन्म के नाम से आदमी डर जाते है और लोगो के कुसस्कार ने इस तरह अपनी जड़़े़े जमा रखी है कि चिन्ताशील आदमी भी विश्वास कर लेगे कि हम शून्य से पैदा हुए है, फिर महायुक्ति के साथ सिद्धान्त स्थापित कर यह निश्चय करने की कोशिश करेगे की यद्यपि हम शून्य से आये है तथापि हम चिरकाल तक रहेगे। जो शून्य से आया है वह जरूर शून्य मे ही मिल जायगा। हममे कोई भी शून्य से नही आया है इसलिये हम कभी शून्य मे नही मिट जायेगे। अनादिकाल से हमारी उपस्थिति है व चिरकाल तक हम रहेगे और जगतब्रह्माण्ड मे एसी कोई शक्ति नहीं है जो हम लोगो का अस्तित्व मिटा दे। इस पुनर्जन्मबाद से हमे किसी तरह डरना नहीं चाहिये, क्योकि वही मानवो की नैतिक उन्नति का प्रधान सहायक है। चिन्ताशील व्यक्तियो के मतानुसार यही न्यायसगत सिद्धान्त है। यदि भविष्य में चिरकाल के लिये तुम्हारा अस्तित्व रहना सम्भव हो तो यह भी सच है कि अनादिकाल से तुम्हारा अस्तित्व था। इस बात को कोई अस्वीकार नही कर सकता है। इस मत के विरुद्ध कई आपत्तियाॅ उठाई गई है, इनका निराकरण करने की चेष्टा करूॅगा। यद्यपि ये आपत्तियाॅ कुछ साधारण सी ही है तथापि हमे उनका उत्तर देना