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पृष्ठ:Vivekananda - Jnana Yoga, Hindi.djvu/२१२

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ज्ञानयोग


वे ही सब इन पदो पर समय समय पर प्रतिष्ठित होते है। किन्तु इनका भी विनाश होता है। प्राचीन ऋग्वेद मे देवताओ के सम्बन्ध मे हम इस अमरत्व शब्द का व्यवहार देखते है अवश्य, किन्तु बाद के काल मे इसका एकदम परित्याग कर दिया गया है; कारण, उन्होने देखा कि यह अमरत्व देश-काल से अतीत होने के कारण किसी भौतिक वस्तु के सम्बन्ध में प्रयुक्त नही हो सकता, चाहे वह वस्तु कितनी ही सूक्ष्म क्यो न हो। वह कितनी ही सूक्ष्म क्यो न हो, उसकी उत्पत्ति देश-काल में ही है, कारण, आकार की उत्पत्ति का प्रधान उपादान देश है। देश को छोड़ कर आकार के विषय की कल्पना करके देखो, यह असम्भव है। देश ही आकार के निर्माण का एक विशिष्ट उपादान है--इस आकृति का निरन्तर परिवर्तन हो रहा है। देश और काल माया के भीतर है। और स्वर्ग भी इसी पृथ्वी के समान देश-काल की सीमा से बद्ध है यह भाव उपनिषदो के निम्नलिखित श्लोकांश मे व्यक्त किया गया है--'यदेवेह तदमुत्र यदमुत्र तदन्विह'--'जो कुछ यहाॅ है वह वहाॅ है, जो कुछ वहाॅ है वही यहाॅ भी है।' यदि ये ही देवता हैं तो जो नियम यहाँ है वही वहाॅ भी लागू होते है, और सभी नियमों का चरम उद्देश्य है--विनाश, और बाद मे फिर नये नये रूप धारण करना। इसी नियम के द्वारा सभी जड पदार्थ विभिन्न रूपो मे परिवर्तित हो रहे है, और टूट कर, चूरचूर होकर फिर उन्ही जड कणों मे परिणत हो रहे है। जिस किसी वस्तु की उत्पत्ति है, उसका विनाश होता ही है। अतएव यदि स्वर्ग है तो वह भी इसी नियम के अधीन होगा।