समाज के अत्यन्त निम्न स्तर के व्यक्ति को लीजिये। वह जंगल में रहता है, उसके भोगसुखों की संख्या कम है, इसलिये उसके दुःख भी कम है। उसके दुःख केवल इन्द्रियविषयो तक ही सीमित हैं। यदि उसे पर्याप्त मात्रा में भोजन न मिले तो वह दुःखी हो जाता है। उसे खूब भोजन दो, उसे स्वच्छन्द हो कर घूमने फिरने और शिकार करने दो, वह पूरी तरह सुखी हो जायगा। उसका सुख-दुःख सभी केवल इन्द्रियो में ही आबद्ध है। मानलो कि उसका ज्ञान बढ़ने लगा। उसका सुख बढ़ रहा है, उसकी बुद्धि खुल रही है, वह जो सुख पहले इन्द्रियो में पाता था अब वही सुख उसे बुद्धि की वृत्तियो को चलाने में मिलता है। वह एक सुन्दर कविता पाठ करके अपूर्व सुख का स्वाद लेता है। गणित की किसी समस्या की मीमांसा करने में ही उसका सम्पूर्ण जीवन कट जाय, इसी में उसको परम सुख प्राप्त है। किन्तु इसके साथ साथ असभ्य अवस्था में जिस तीव्र यंत्रणा का उसने अनुभव नहीं किया, अब उसके स्नायु उसी तीव्र यंत्रणा का अनुभव करने के भी क्रमशः अभ्यासी हो जाते है, अतः उसे तीव्र मानसिक कष्ट होता है। एक बहुत ही साधारण उदाहरण लीजिये। तिब्बत देश में विवाह नहीं होता, अतः वहाँ प्रेम की ईर्ष्या भी नहीं पाई जाती, फिर भी हम जानते ही है कि विवाह अपेक्षाकृत उन्नत समाज का परिचायक है। तिब्बती लोग निष्कलक स्वामी और निष्कलक स्त्री के विशुद्ध दाम्पत्य-प्रेम का सुख नहीं जानते। किन्तु साथ ही किसी पुरुष या स्त्री के पतन हो जाने से दूसरे के मन में कितनी भयानक ईर्ष्या, कितना अन्तर्दाह उपस्थित हो जाता है वे यह भी नहीं जानते। एक ओर उच्च धारणा से सुख में वृद्धि हुई अवश्य, किन्तु दूसरी ओर इससे दुःख की भी वृद्धि हुई।
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