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सभी वस्तुओ में ब्रह्मदर्शन

है, सभी महापुरुष यह बात कहते है। 'जिसके पास देखने के लिये आँख है वह देखे; जिसके पास सुनने के लिये कान है वह सुने।' वह पहले से ही तुम्हारे अन्दर मौजूद है और वेदान्त उसका केवल उल्लेख मात्र करता हो यह बात नहीं है, वह उसे युक्तियो द्वारा प्रमाणित भी करने को प्रस्तुत है। अज्ञान के कारण हम सोचते थे कि हमने उसे खो दिया है और समस्त जगत् में उसको पाने के लिये केवल रोते, कष्ट भोगते घूमते फिरते रहे, किन्तु वह सदा ही हमारे अन्तर के अन्तस्तल में वर्तमान था। इसी तत्वदृष्टि की सहायता से जगत् में जीवन काटना पड़ेगा। यदि 'संसार त्याग करो' यह उपदेश सत्य हो और इसको यदि उस प्राचीन स्थूल अर्थ में ग्रहण किया जाय तो यही फल निकलता है कि हमे कोई कार्य करने की आवश्यकता नहीं है, आलसी होकर मिट्टी के ढेले की भाँति बैठे रहना ही ठीक होगा, कोई चिन्ता करने की या कोई कार्य करने की तनिक भी आवश्यकता नहीं है, अदृष्टवादी होकर, घटनाचक्र से ताड़ित होकर, प्राकृतिक नियमो के द्वारा परिचालित होकर इधर उधर घूमने रहने से ही काम चल जायेगा; यही फल निकलता है। किन्तु पूर्वोक्त उपदेश का अर्थ वास्तव में यह नहीं है। हम लोगों को कार्य अवश्य ही करना पड़ेगा। साधारण मनुष्य जो व्यर्थ की वासनाओ के चक्र मे पडकर इधर उधर भटकते फिरते है, वे कार्य के सम्बन्ध में क्या जानते हैं? जो व्यक्ति अपने भावो और इन्द्रियो के द्वारा परिचालित है वह कार्य को क्या समझता है? कार्य वही कर सकता है जो किसी वासना के द्वारा, किसी स्वार्थपरता के द्वारा परिचालित नहीं है। वे ही कार्य कर सकते हैं जिनकी कोई कामना