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ज्ञानयोग

व्यक्ति जगत् को त्याग कर वन में जाकर अपने शरीर को कष्ट देता है, धीरे धीरे सुखा कर अपने को मार डालता है, अपने हृदय को शुष्क मरुभूमि बना डालता है, अपने सभी भावो को मार डालता है, और कठोर, बीभत्स और रूखा हो जाता है, समझ लो कि वह भी मार्ग भूल गया है। ये दोनो दो सिरे की बाते है, दोनो ही भ्रम है, एक इस ओर, दूसरा दूसरी ओर। दोनो ही लक्ष्यभ्रष्ट है, दोनो ही पथभ्रष्ट है।

वेदान्त कहता है, इस प्रकार कार्य करो―सभी वस्तुओं में ईश्वरबुद्धि करो, समझो कि वह सब में है, अपने जीवन को भी ईश्वर से अनुप्राणित, यहाँ तक कि उसे ईश्वररूप ही समझो―यह जान लो कि यही हमारा एक मात्र कर्तव्य है, केवल यही हमारे लिये जानने की एक मात्र वस्तु है―कारण ईश्वर सभी वस्तुओं में विद्यमान है, उसे प्राप्त करने के लिये और कहाँ जाओगे? प्रत्येक कार्य में, प्रत्येक भाव में, प्रत्येक चिन्ता में वह पहले से ही स्थित है। इसी प्रकार समझकर हमे अवश्य ही कार्य करते जाना होगा। यही एक मात्र पथ है, अन्य नहीं। इस प्रकार करने पर कर्मफल तुमको लगेगा नहीं। कर्मफल तुम्हारा कोई अनिष्ट नहीं कर पायेगा। हम देख ही चुके है कि हम जो कुछ भी कष्ट भोग करते है उसका कारण ये ही सब व्यर्थ की वासनाये है। परन्तु जब इन वासनाओ में ईश्वरबुद्धि के द्वारा वे पवित्र भाव धारण कर लेती है, ईश्वरस्वरूप हो जाती है, तब उनके आने से भी फिर कोई अनिष्ट नहीं होता। जिन्होंने इस रहस्य को नहीं जाना है, उनको इसे जानने से पहले तक इसी आसुरी जगत् में रहना पडेगा।' लोग नहीं जानते कि यहाँ उनके चारों ओर सर्वत्र कितने अनन्त