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ज्ञानयोग


प्रत्यक्ष करने का विषय है। आनुमानिक विचार के द्वारा भी मै देखता हूॅ कि यह कभी सम्भव नहीं है।

पूर्णता सर्वदा ही अनन्त है। हम वस्तुतः वही अनन्त स्वरूप है, अपने उसी अनन्त स्वरूप को अभिव्यक्त करने की चेष्टा मात्र हम कर रहे है। तुम और मै, सभी उसी अपने अपने अनन्त स्वरूप को अभिव्यक्त करने की चेष्टा मात्र करते है। यहाॅ तक तो ठीक है, किन्तु कुछ जर्मन दार्शनिको ने इससे एक अत्यत अद्भुत दार्शनिक सिद्धान्त निकालने की चेष्टा की है--वह यही है कि इस तरह अनन्त क्रमशः अधिकाधिक व्यक्त होता रहेगा, जब तक कि हम पूर्ण व्यक्त नही होते है, जब तक कि हम सब पूर्ण पुरुष नहीं हो सकते है। पूर्ण अभिव्यक्ति का अर्थ क्या है? पूर्णता का अर्थ अनन्त है, और अभिव्यक्ति का अर्थ है सीमा--अतएव इसका यह तात्पर्य हुआ कि हम असीम भाव से ससीम होंगे, परन्तु यह तो असंबद्ध प्रलाप मात्र है। बालकगण इस मत से संतुष्ट हो सकते है; बच्चों को सन्तुष्ट करने के लिये उन लोगों को शौक के तौर पर धर्म देने के लिये यह अवश्य उपयोगी है, किन्तु इससे उन लोगों को मिथ्या के विष से जर्जरित करना होता है--और धर्म के लिये तो यह बडा ही हानिकारक है। हमे यह समझ लेना उचित है कि जगत् और मानव ईश्वर का अवनत भाव मात्र है; तुम्हारी बाइबिल मे भी यह है कि आदम पहले पूर्ण मानव थे, बाद मे भ्रष्ट हुए। इस तरह का कोई धर्म ही नहीं है जो यह न कहता हो कि मनुष्य पहले की अवस्था से हीन अवस्था मे गिर गया है। हम हीन होकर पशु हो गये है। इस समय हम फिर से उन्नति के मार्ग पर चल रहे है, और इस बन्धन से