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ज्ञानयोग


जा सकती, कारण वे जिन सिद्धान्तों पर पहुॅचे थे उन्हे लक्ष्य न कर उन्होंने उस प्रणाली पर ही अधिक ध्यान दिया जिसके द्वारा वे इन सब सिद्धान्तों तक पहुॅचे थे--और वह प्रणाली सचमुच बड़ी जटिल थी। उस भयानक दार्शनिक तथा उन नैयायिक प्रक्रियाओं को देखकर वे भय पाते थे। वे सर्वदा सोचते थे, कि इन सभों की शिक्षा प्रतिदिन के कर्मजीवन मे नहीं दी जा सकती, और इस प्रकार के दर्शन की आड़ मे लोग अतिशय अधर्मपरायण हो जायेंगे।

किन्तु मैं तो यह बिलकुल विश्वास ही नहीं करता कि संसार में अद्वैत तत्त्व के प्रचार से दुर्नीति या दुर्बलता की उत्पत्ति होगी। अपितु मुझे इस बात पर अधिक विश्वास है कि दुर्नीति और दुर्बलता के निवारण की वही एक मात्र औषधि है। यही यदि सत्य है, तो जब कि पास ही मे अमृत-स्रोत बहता है, तो लोगों को कीचड़ का जल क्यों पीने देते हो? यदि यही सत्य है, कि सभी शुद्धस्वरूप है तो इसी मुहूर्त सब संसार को यह शिक्षा क्यो नहीं देते? साधु-असाधु, स्त्री-पुरुष, बालक-बालिका, छोटे-बड़े, सभी को डंके की चोट पर यह शिक्षा क्यो नहीं देते? जिस किसी व्यक्ति ने संसार में देह धारण की है, जो कोई देह धारण करेगा, जो व्यक्ति सिंहासन पर बैठा हुआ है अथवा रास्ते मे झाडू लगा रहा है, जो धनी है, जो निर्धन है, उन सभीको यह शिक्षा क्यों नहीं देते? मै राजाओं का भी राजा हूॅ, मुझसे बढ़कर बडा राजा कोई नहीं है। मै देवताओं का भी देवता हूॅ, मुझसे बढ़कर कोई देवता नही है।

इस समय यह बहुत कठिन कार्य मालूम पड़ता है, बहुतों को तो यह विस्मयजनक ज्ञात होता है, किन्तु यह सब कुसंस्कार के ही