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ज्ञानयोग


करते हैं। किन्तु हम लोग तो सामान्य गृहस्थ हैं; धर्म करने के लिये हमे किसी न किसी प्रकार के भय या क्रियाकाण्ड की आवश्यकता रहती ही है, इत्यादि।

द्वैतवाद ने संसार पर बहुत दिनों तक शासन किया है, और यह उसीका फल है। अच्छा, एक नई परीक्षा क्यों न करे? संभव है, सभी मनुष्यों को ऐसी धारणा करने मे लाखों वर्ष लग जायँ, किन्तु इसी समय इसे क्यों न आरम्भ कर दो? यदि हम अपने जीवन मे बीस मनुष्यों को भी यह बात बतला सकें, तो समझो कि हमने बहुत बड़ा काम किया।

भारतवर्ष मे और एक बड़ी शिक्षा प्रचलित है, जो पूर्वोक्त तत्व-प्रचार की विरोधी मालूम होती है। वह शिक्षा यह है कि--'मै शुद्ध हूॅ, आनन्द स्वरूप हूँ,' इस प्रकार मौखिक कहना तो ठीक है, किन्तु जीवन में तो हम इसे सर्वदा नहीं दिखला सकते। मै इस बात को मानता हूँ आदर्श सभी समय अत्यन्त कठिन होता है। प्रत्येक बालक आकाश को अपने सिर से बहुत ऊॅचाई पर देखता है, किन्तु उस कारण से क्या हम आकाश की ओर देखने की चेष्टा भी न करे? कुसंस्कार की ओर जाने से क्या सब अच्छा होजायगा? यदि अमृत का लाभ न कर सके तो क्या विषपान करने से ही कल्याण होगा? हम इसी समय सत्य का अनुभव नहीं कर सकते, इसलिये अन्धकार, दुर्बलता और कुसंस्कार की ओर जाने से ही क्या कल्याण होगा?

विभिन्न प्रकार के द्वैतवाद के सम्बन्ध में हमें कोई आपत्ति नहीं है, किन्तु जो कोई उपदेश दुर्बलता की शिक्षा देता है, उसी पर हमें