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मनुष्य का यथार्थ स्वरूप

छोटे बालक के मूँछें नहीं होतीं। बड़े होने पर उसके दाढ़ी मूँछ निकल आती है। यदि 'अहं' शरीर में रहता है तब तो बालक का 'अहं' नष्ट हो गया। यदि 'अहं' शरीरगत होता तब हमारी एक आँख अथवा हाथ टूट जाने पर 'अहं' भी नष्ट हो जाता। शराबी का शराब छोड़ना ठीक नहीं, क्योकि इससे उसका 'अह' नष्ट हो जायगा! चोर का साधु बनना भी ठीक नहीं, क्योकि इससे उसका 'अहं' भी छूट जागगा। इसी भय से किसी को भी अपना व्यसन छोड़ना उचित नहीं। अनन्त को छोड़कर और किसी में 'अहं' है ही नहीं। केवल इस अनन्त का ही परिवर्तन नहीं होता, और सभी का क्रमागत परिणाम होता है। 'अहं' भाव स्मृति में भी नहीं है। स्मृति में यदि 'अहं' होता तो मस्तिष्क में गहरी चोट लगने के कारण स्मृतिलोप हो जाने पर वह 'अहं' भी नष्ट हो जाता और हमारा बिलकुल ही लोप हो जाता! प्रारम्भिक बचपन के दो तीन वर्ष का मुझे कोई स्मरण नहीं; यदि स्मृति के ऊपर मेरा अस्तित्व निर्भर करता होता तो ये दो-तीन वर्ष मेरा अस्तित्व ही नहीं था―कहना ही पड़ेगा। तब तो मेरे जीवन का जो अंश मुझे स्मरण नहीं, उस समय मैं जीवित नहीं था, यह कहना ही पड़ेगा। अवश्य ही यहाँ 'अहं' का बहुत ही सङ्कीर्ण अर्थ लिया गया है। हम अमी तक 'मैं' नहीं हैं। हम इसी 'मैं' को प्राप्त करने की चेष्टा कर रहे है—यह अनन्त है, यही मनुष्य का प्रकृत स्वरूप है। जिनका जीवन सम्पूर्ण जगत् को व्याप्त किये हुये है वे ही जीवित है, और हम जितना ही अपने जीवन को शरीर रूपी छोटे-छोटे सान्त पदार्थों में बद्ध करके रखेगे उतना ही हम मृत्यु की ओर अग्रसर होगे। हमारा जीवन जिस मुहूर्त में समस्त जगत् में व्याप्त रहता है, जिस क्षण से वह दूसरे में व्याप्त रहता है, उसी मुहूर्त