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पृष्ठ:Vivekananda - Jnana Yoga, Hindi.djvu/६२

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ज्ञानयोग

मनुष्य नाम से पुकारा जाता है वह इसी जगत् की अतीत अनन्त सत्ता का सामान्य आभास मात्र है, उसी सर्वस्वरूप अनन्त अग्नि का एक कण मात्र है। किन्तु वह अनन्त ही तो उसका वास्तविक स्वरूप है।

इस ज्ञान का फल—इस ज्ञान की उपकारिता क्या है? आज- कल सभी विषयो को उनकी इस उपकारिता से ही नापा जाता है। अर्थात् मोटी बात यो है कि इससे कितने रुपये, कितने आने और कितने पैसो का लाभ है? किन्तु लोगो को इस प्रकार प्रश्न करने का क्या अधिकार है? क्या सत्य को भी उपकार या धन के मापदण्ड से नापा जायगा? मान लो कि इससे कोई लाभ नहीं होता तो क्या यह सत्य कुछ कम सत्य हो जायगा? उपकार अथवा प्रयोजन सत्य का निर्णायक कभी नहीं हो सकता (Bentham's Utilitarianism and Jame's Pragmatism)। जो भी हो, इस ज्ञान में बड़ा उपकार तथा प्रयोजन भी है। हम देखते है, सब लोग सुख की खोज करते है; किन्तु अधिकांश लोग नश्वर मिथ्या वस्तुओं में उसको ढूँढते फिरते है। इन्द्रियो में कभी किसी को सुख नहीं मिलता। सुख तो केवल आत्मा में ही मिलता है। अतएव आत्मा में इस सुख की प्राप्ति ही मनुष्य का सबसे बड़ा प्रयोजन है। और एक बात यह है कि अज्ञान ही सब दुःखो का कारण है, और मेरी समझ में सब से बड़ा अज्ञान यही है कि जो अनन्त स्वरूप है वह अपने को सान्त मान कर रोता है; समस्त अज्ञान की मूलभित्ति यही है कि अविनाशी, नित्य शुद्ध पूर्ण आत्मा होते हुए भी हम सोचते हैं कि हम छोटे मन, छोटे छोटे देह मात्र हैं; यही समस्त स्वार्थपरता का मूल है। जब ही मैं अपने को एक क्षुद्र देह समझ कर विवेचना करता