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पृष्ठ:Vivekananda - Jnana Yoga, Hindi.djvu/७१

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४. मनुष्य का यथार्थ स्वरूप

(न्यूयार्क में दिया हुआ भाषण)

हम यहाँ खड़े है परन्तु हमारी दृष्टि दूर, बहुत दूर―अनेक समय, कोसो दूर चली जाती है। जब से मनुष्य ने चिन्ता करना आरम्भ किया तभी से उसको यह आदत रही है। मनुष्य सदा ही वर्तमान से बाहर देखने की चेष्टा करता है, वह जानना चाहता है कि इस शरीर के नष्ट होने के बाद वह कहाँ चला जाता है। इसी रहस्य को उद्घाटित करने के लिय अनेक मतो का प्रचार हुआ; सैकडों मतो की स्थापना हुई, और सैकड़ो मत खण्डित होकर छोड़ भी दिये गये; और जितने दिन मनुष्य इस जगत् में रहेगा, जितने दिन वह चिन्ता करता रहेगा उतने दिन ऐसे ही चलेगा। इन सब मतो में ही कुछ न कुछ सत्य है। और इन्ही में बहुतसा असत्य भी है। इस सम्बन्ध में भारत में जो अनुसन्धान हुआ है उसीका सार, उसीका फल मैं आपके सामने रखने की चेष्टा करूँगा। भारतीय दार्शनिकों के इन सब मतों का समन्वय करने तथा यदि हो सका तो उसके साथ आधुनिक वैज्ञानिक सिद्धान्तों का भी समन्वय करने की चेष्टा करूँगा।

वेदान्त-दर्शन का एक ही उद्देश्य है―एकत्र का अनुसन्धान या अन्वेषण। हिन्दू लोग विशेष के पीछे नहीं दौड़ते, वे सदा ही सामान्य वस्तु का―नहीं नहीं, सर्वव्यापी सार्वभौमिक वस्तु का