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ज्ञानयोग


और प्राण मे पर्यवसित कर दिया। अब आकाश और प्राण को किसी एक वस्तु मे पर्यवसित करना होगा। इन्हे मन नामक उच्चतर क्रिया- शक्ति मे पर्यवसित किया जा सकता है। महत् अथवा समष्टि चिन्ता- शक्ति से प्राण और आकाश दोनो की उत्पत्ति होती है। चिन्ता- शक्ति ही इन दो शक्तियों के रूप मे विभक्त हो जाती है। प्रारम्भ मे यही सर्वव्यापी मन था। इसी ने परिणत होकर आकाश और प्राण रूप धारण किये और इन्हीं दोनो के सम्मिश्रण से समस्त जगत् बना।

अब हम मनस्तत्व की आलोचना करेगे। मै आपको देख रहा हूॅ। आँखे विषय को ग्रहण कर रही है और अनुभूतिजनक स्नायु उसे मस्तिष्क मे प्रेरित कर रहे है। आँखे देखने का साधन नही है, वे केवल बाहरी यन्त्र है, कारण देखने का जो वास्तविक साधन है, जो मस्तिष्क मे विषय-ज्ञान को संवाद ले जाता है, उसको यदि नष्ट कर दिया जाय तब मेरी बीस आँखे रहते हुए भी आप मे से किसी को भी मै नही देख सकूँगा। अक्षिजाल (Retina) के ऊपर पूरा अक्स या प्रतिबिम्ब पड़ सकता है फिर भी तुम सब को मै देख नहीं पाऊँगा। अतएव सिद्ध है कि वास्तविक दर्शनेन्द्रिय इस ऑख से पृथक् कोई वस्तु है; प्रकृत चक्षुरिन्द्रिय अवश्य ही चक्षुयन्त्र के पीछे विद्यमान है। सभी प्रकार की विषयानुभूति के सम्बन्ध मे इसी प्रकार समझना चाहिये। नासिका घ्राणेन्द्रिय नही है; वह केवल यन्त्र मात्र है, उसके पीछे घ्राणेन्द्रिय है। प्रत्येक इन्द्रिय के सम्बन्ध मे समझना होगा कि पहले तो इस स्थूल शरीर मे बाह्य यन्त्र लगे हुये है; पीछे किन्तु इसी स्थूल शरीर मे इन्द्रियाॅ भी मौजूद हैं। किन्तु इन सब से भी काम नही चलता! मान लीजिये, मै आपसे कुछ कह रहा हूँ