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मनुष्य का यथार्थ स्वरूप

ने ये सब विभिन्न स्वप्नचित्र अङ्कित किये है। आकृति ने ही तरंग को समुद्र से पृथक् किया है। मान लो कि तरंगे मिल गईं, तब क्या यह आकृति रहेगी? नहीं, वह बिलकुल ही चली जायगी। तरंग का अस्तित्व पूर्ण रूप से समुद्र के अस्तित्व के ऊपर निर्भर रहता है; किन्तु समुद्र का अस्तित्व तरंग के अस्तित्व के ऊपर निर्भर नहीं रहता। जब तक तरंग रहती है तब तक रूप भी रहता है, किन्तु तरंग की निवृत्ति होने पर वह रूप नहीं रह सकता। इसी नाम-रूप को माया कहते है। यह माया ही भिन्न व्यक्तियो का सृजन करके एक व्यक्ति का दूसरे व्यक्ति से पृथक् बोध करा रही है। किन्तु वास्तव में इसका अस्तित्व नहीं है। माया का अस्तित्व है यह नहीं कहा जा सकता। रूप या आकृति का अस्तित्व है यह नहीं कहा जा सकता, कारण, वह तो दूसरे के अस्तित्व पर निर्भर रहती है। और वह नहीं है यह भी नहीं कहा जा सकता, कारण, उसी ने तो यह सब भेद उत्पन्न किया है। अद्वैतवादियो के मत में यही माया या अज्ञान या नामरूप अथवा योरोपीय लोगो के मत में देश-काल-निमित्त ही इसी एक अनन्त सत्ता से इस विभिन्नरूप जगत् की सत्ता दिखा रहे हैं। परमार्थतः यह जगत् एक अखण्ड स्वरूप है; जब तक कोई दो वस्तुओ की कल्पना करता है तब तक वह भ्रम में है। जब वह जान जाता है कि एक मात्र सत्ता है तभी वह यथार्थ को जानता है। जितना ही समय बीतता जाता है उतना ही हमारे निकट यह सत्य प्रमाणित होता जाता है। क्या जड़ जगत् में, क्या मनोजगत् में और क्या अध्यात्म जगत् में, सभी जगह यह सत्य प्रमाणित हो रहा है। अब प्रमाणित हो गया है कि तुम, मैं, सूर्य, चन्द्र, तारे―ये सभी एक जड़ समुद्र के विभिन्न अंशों के नाम मात्र हैं। इस जड़राशि का क्रमागत परिणाम हो रहा है। जो शक्ति का कण कुछ मास