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मनुष्य का यथार्थ स्वरूप


पर बैठे हुए ईश्वर के निकट जा कर सारा जीवन उनकी उपासना करूॅगा, उसकी मृत्यु होने पर वह अपने चित्त में स्थित इसी विषय को देखेगा। यह जगत् ही उसके लिये एक बृहत् स्वर्ग मे परिणत हो जायगा; वह देखेगा कि नाना प्रकार की अप्सराये, किन्नर आदि उडते फिर रहे है और देवता लोग सिंहासनों पर बैठे है। स्वर्ग आदि समस्त ही मनुष्य कृत है। अतएव अद्वैतवादी कहते है-- द्वैतवादियों की बात तो सत्य ही है, परन्तु यह सब उनका अपना ही बनाया हुआ है। ये सब लोक, ये सब दैत्य, पुनर्जन्म आदि सभी रूपक (Mythology) है, और मानवजीवन भी ऐसा ही है। ये सब रूपक हों और मानव जीवन सत्य हो, यह नही हो सकता। मनुष्य सर्वदा यही भूल करता है। अन्यान्य वस्तुओ को--जैसे स्वर्ग नरक आदि को रूपक कहने से उसकी समझ मे आता है किन्तु अपने अस्तित्व को वह कभी भी रूपक स्वीकार करना नहीं चाहता। यह दृश्यमान जगत् सभी रूपक मात्र है और सब से बड़ा मिथ्या ज्ञान यह है कि हम शरीर है जो हम न कभी थे, न कभी हो सकते है। हम केवल मनुष्य है, यह एक भयानक असत्य है। हमी जगत् के ईश्वर है। ईश्वर की उपासना करके हमने सदा अपने अव्यक्त आत्मा की ही उपासना की है। तुम जन्म से ही दुष्ट और पापी हो यह सोचना ही सब से बड़ी मिथ्या बात है। जो स्वयं पापी है वह केवल दूसरों को पापी ही देखते है। मान लो कि एक बच्चा यहाॅ है और सोने की मोहरों की एक थैली तुम यहाॅ मेज पर रख देते हो। मान लो कि एक चोर आया और थैली ले गया। बच्चे की दृष्टि मे थैली का रखा जाना और चोरी हो जाना—दोनों ही समान हैं। उसके भीतर चोर नहीं है इसलिये वह बाहर भी चोर नही देखता। पापी और दुष्ट मनुष्य ही