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कुछ टीकाओं के उत्तर

अखिल-भारतीय कांग्रेस कमेटी के हाल के प्रस्ताव और उसमें दिये गये मेरे भाषण पर मीठी-कड़वी सब तरह की काफी टीकाएँ हुई हैं। उनमें से कुछ का जवाब मैं यहाँ देने की कोशिश करूंगा, क्योंकि उनका सम्बन्ध मौलिक सिद्धांतों के साथ है। १७ तारीख्न के ‘टाइम्स आफ इंडिया' ने अपनी सौम्य टीका में मुझे यह कहने के लिए आड़े हाथों लिया है कि यूरोप के लोग नहीं जानते कि आखिर वे लड़ किस चीज के लिए रहे हैं? मैं जानता था कि मेरे इस वाक्य से कई लोग नाराज होंगे । परन्तु खरी बात सुनाना जब प्रस्तुत ही नहीं बल्कि धर्म बन जाता है तो उसे सुनाना ही पड़ता है, चाहें वह कड़वी ही क्यों न लगे। मेरी धारणा है कि इस बारे में उलटी मुझसे काफी ढील हुई है, मेरे मूल वाक्य में मैंने युद्धरत राष्ट्र' यह शब्द प्रयोग किया था, न कि ‘यूरोप की जनता'। दोनों में केवल शब्दभेद नहीं, मर्मभेद है। मैंने कई बार बताया है कि राष्ट्र और उनके नेता दो अलग-अलग चीजें हैं। नेतागण तो खूब अच्छी तरह समझते हैं कि उन्हें