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वही पार लगायेगा

“प्रिय बन्धु,

मेरा आपसे परिचय नहीं है, पर जब सन् १६३१ में आप डार्वेन ( लंकाशायर ) आये थे, उस समय मेरी पत्नी और मैं आपको अपना मेहमान बनानेवाले थॆ कि उससे कुछ ही पहले हमकॊ बर्लिन चला जाना पड़ा। वहाँ हमने पिछले महायुद्ध के बाद भूखों मरते बच्चों में कष्ट-निवारण का काम किया था। इस बार भी हम ५॥ वर्षे जर्मनी में रहे। इससे हमें यहाँ के ताज़े हालात का खासा ज्ञान है। हमें वहाँ के बहुत-से लोगों के साथ प्रेम भी हो गया है।

इस लड़ाई के शुरू में ‘हरिजन' में आपकी कुछ पंक्तियाँ पढ़कर मुझे बड़ी दिलचस्पी पैदा हुई और प्रेरणा मिली। आपने लिखा था कि, ‘अगर हिंसा से मेरे देश की आज़ादी मिलती हो तो भी मैं उस क़ीमत पर उसे नहीं लूंगा। मेरा यह अटल विश्वास है कि तलवार से ली हुई चीज़ उसी तरह चली भी जाती है।' बहन अँगाथा हैरीसन ने भी मुझे आपके कुछ लेख बताये। इनसे