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युद्ध और अहिंसा


है। लेकिन जब ब्रिटेन ऐसे आक्रमणकारी के मुकाबले खड़ा है, जो निश्चितरूप से जंगली उपायों का इस्तेमाल कर रहा है, तब क्या हमें ऐसी समयोचित और मानवीय भाव-भंगी न प्रहण करनी चाहिए जो अन्त में हमारे विरोधी के दल को जीत ले? फिर श्रगर इसका उसपर कुछ असर न हो और इज्ज़त आबरू के साथ कोई समझौता नामुमकिन ही बना रहे, तो भी क्या हमारे लिए यह एक ज़्यादा ऊँची और श्रेष्ट बात न होगी कि हम अहिंसात्मक युद्ध तब छेड़ें, जब वह (ब्रिटेन) आज की तरह चारों तरफ से मुसीबतों से घिरा न हो? क्या इसके लिए हमें अपने अन्दर और ज्यादा ताकृत की ज़रूरत न पड़ेगी? और चूंकि ज्यादा ताक़त की ज़रूरत पड़ेगी, इसलिए क्या इसका अर्थ अधिक और ज्यादा टिकाऊ लाभ नहीं होगा और क्या यह आपस में सिर फोड़नेवाली दुनिया के लिए एक ऊँचा उदाहरण नहीं होगा? क्या यह इस बात का भी प्रमाण नहीं होगा कि अहिंसा प्रधानतया बलवानों का श्रस्त्र है?” नार्वे के पतन के बाद कई पत्र लेखकों के जो पत्र मुझे प्राप्त हुए हैं उनकी भावना इस पत्र में कदाचित ठीक-ठीक जाहिर हुई है। यह इन पत्र-लेखकों के दिलों की शराफ़त का सबूत है। पर इसमें वस्तुस्थिति के प्रति ठीक समझ का अभाव है। इन पत्रों में ब्रिटिश प्रकृति का खयाल नहीं किया गया है। ब्रिटिश जाति को गुलाम जाति की हमददी॔ की कोई जरूरत नहीं है, क्योंकि वह इस गुलाम जाति से जो कुछ चाहे ले सकती है। वह वीर और स्वाभिमानी जाति है। नार्वे जैसी एक नहीं अनेक विघ्न-वाधाओं