प्रेमचंद की सर्वश्रेष्ठ कहानियां/आत्माराम

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प्रेमचंद की सर्वश्रेष्ठ कहानियाँ  (1950) 
द्वारा प्रेमचंद
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आत्माराम

( १ )

बैदों ग्राम में महादेव सोनार एक सुविख्यात आदमी था। वह अपने सायबान में प्रातः से सन्ध्या तक अँगीठी के सामने बैठा हुआ खट खट किया करता था। यह लगातार ध्वनि सुनने के लोग इतने अभ्यस्त हो गए कि जब किसी कारण से वह बन्द हो जाती, तो जान पड़ता था, कोई चीज गायब हो गयी है। वह नित्यप्रति एक बार प्रातःकाल अपने तोते का पिंजड़ा लिये, कोई भजन गाता हुआ तालाब की ओर जाता था। उस धुंधले प्रकाश में उसका जर्जर शरीर, पोपला मुंह और झुकी हुई कमर देखकर किमी अपरिचित मनुष्य को उसके पिशाच होने का भ्रम हो सकता था। ज्योंही लोगों के कानों में आवाज आती,-'सत्त गुरुदत्त शिवदत्त दाता', लोग समझ जाते कि भोर हो गया।

महादेव का पारिवारिक जीवन सुखमय न था। उसके तीन पुत्र थे, तीन बहुएँ थीं, दर्जनों नाती-पोते थे; लेकिन उसके बोझ को हलका करनेवाला कोई न था। लड़के कहते-'जब तक दादा जीते हैं, हम जीवन का आनन्द भोग लें, फिर तो ढोल गले पड़ेगा ही। बेचारे महादेव को कभी-कभी निराहार ही रहना पड़ता। भोजन के समय उसके घर में साम्यवाद का ऐसा गगन-भेदी निर्घोष होता कि वह भूखा ही उठ आता, और नारियल का हुक्का पीता हुआ सो जाता। उसका व्यावसायिक जीवन, और भी अशांतिकारक था। यद्यपि वह अपने काम में निपुण था, उसकी खटाई औरों से कहीं ज्यादा शुद्धिकारक और उसकी रासायनिक क्रियाएँ कहीं ज्यादा कष्टसाध्य थीं, तथापि उसे आये दिन शक्की और धैर्य-शून्य प्राणियों के अपशब्द सुनने पड़ते थे। पर महादेव अविचलित‌
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गम्भीर्य से सिर झुकाये सब कुछ सुना करता। ज्योंही यह कलह शान्त होता, वह अपने तोते की ओर देखकर पुकार उठता-'सत्त गुरुदत्त शिवदत्त दाता'। इस मन्त्र के जपते ही उसके चित्त को पूर्ण शान्ति प्राप्त हो जाती थी।

( २ )

एक दिन संयोगवश किसी लड़के ने पिजड़े का द्वार खोल लिया। तोता उड़ गया। महादेव ने सिर उठाकर जो पिंजड़े की ओर देखा, तो उसका कलेजा सन्न से हो गया। तोता कहाँ गया! उसने फिर पिंजड़े को देखा, तोता गायब था। महादेव घबराकर उठा और इधर-उधर खपरैलों पर निगाह दौड़ाने लगा। उसे संसार में कोई वस्तु अगर प्यारी थी, तो वह यही तोता। लड़के-बालों, नाती-पोतों से उसका जी भर गया था। बड़कों की चुलबुल से उसके काम में विघ्न पड़ता था। बेटों से उसे प्रेम न था; इसलिए नहीं कि वे निकम्मे थे, बल्कि इसलिए कि उनके कारण वह अपने आनन्ददायी कुल्हड़ों की नियमित संख्या से वचित रह जाता था। पड़ोसियो से उसे चिढ़ थी, इसलिए कि वह उसकी अँगीठी से भाग निकाल ले जाते थे। इन समस्त विघ्न-बाधाओं से उसके लिए कोई पनाह थी, तो वह यही तोता। इससे उसे किसी प्रकार का कष्ट न होता था। वह अब उस अवस्था में था, जब मनुष्यों को शान्ति-भोग के सिवा और कोई इच्छा नहीं रहती।

तोता एक खपरैल पर बैठा था। महादेव ने पिजरा उतार लिया, और उस दिखाकर कहने लगा-'आ, आ, सत्त गुरुदत्त शिवदत्त दाता।' लेकिन गाँव और घर के लड़के एकत्र होकर चिल्लाने और तालियाँ बजान लगे। ऊपर से कौओं ने कांव-काँव की रट लगायी। तोता उड़ा, और गाँव से बाहर निकलकर एक पेड़ पर आ बैठा। महादेव खाली पिंजड़ा लिये उसके पीछे दौड़ा, सो दौड़ा। लोगों को उसकी द्रतगामिता [ १०० ]
पर अचम्भा हो रहा था। मोह को इससे सुन्दर, इससे सजीव, इससे भावमय कल्पना नहीं की जा सकती।

दोपहर हो गयी थी। किसान लोग खेतों से चले आ रहे थे। उन्हें विनोद का अच्छा अवसर मिला। महादेव को चिढ़ाने में सभी को मजा आता था। किसी ने कंकड़ फेंके, किसी ने तालियाँ बजायीं; तोता फिर उड़ा और वहाँ से दूर आम के बाग में एक पेड़ की फुनगी पर जा बैठा। महादेव फिर खाली पिजरा लिये, मेंढक की भाँति उचकता चला। बाग में पहुँचा, तो पैर के तलुओं से भाग निकल रही थी, सिर चक्कर खा रहा था। जब जरा सावधान हुआ, तो फिर पिंजरा उठाकर कहने लगा- "सत्त गुरुदत्त शिवदत्त दाता।' तोता फुनगी से उतरकर नीचे की एक डाल पर आ बैठा; किन्तु महादेव की ओर सशक नेत्रों से ताक रहा था। महादेव ने समझा, डर रहा है। वह पिंजड़े को छोड़कर आप एक दूसरे पेड़ की आड़ में छिप गया। तोते ने चारो ओर गौर से देखा। निश्शंक हो गया, उतरा, और आकर पिंजरे के ऊपर बैठ गया। महादेव का हृदय उलझने लगा। 'सत्त गुरुदत्त शिवदत्त दाता' का मन्त्र जपता हुआ, धीरे-धीरे, तोते के समीप आया, और लपका कि तोते को पकड़ ले; किन्तु तोता हाथ न आया, फिर पेड़ पर जा बैठा।

शाम तक यही हाल रहा। तोता कभी इस डाल पर जाता, कभी उस डाल पर। कभी पिंजड़े पर आ बैठता, कभी पिंजड़े के द्वार पर बैठ अपने दान-पानी की प्यालियों को देखता, और फिर उड़ जाता। बुड्ढा अगर मूर्तिमान मोह था, तो तोता मूर्तिमती माया। यहाँ तक कि शाम हो गयी। माया और मोह का यह सग्राम अंधकार में विलीन हो गया।

( ३ )

रात हो गयी। चारों ओर निविड़ अंधकार छा गया। तोता न जाने पत्तों में कहाँ छिपा बैठा था। महादेव जानता था कि रात को तोता कहीं [ १०१ ]
उड़कर नहीं जा सकता, और न पिंजड़े ही में आ सकता है, फिर भी वह उस जगह से हिलने का नाम न लेता था। आज उसने दिन-भर कुछ नहीं खाया, रात के भोजन का समय भी निकल गया, पानी की एक बंद भी उसके कंठ में न गयी; लेकिन उसे न भूख थी, न प्यास। तोते के बिना उसे अपना जीवन निस्सार, शुष्क और सूना जान पड़ता था। वह दिन-रात काम करता था, इसलिए कि यह उसकी अतः-प्रेरणा थी, जीवन के और काम इसलिए करता था कि आदत थी। इन कामों में उसे अपनी सजीवता का लेशमात्र भी ज्ञान न होता था। तोता ही वह वस्तु था, जो उसे चेतना को याद दिलाता था। उसका हाथ से जाना जीव का देह त्याग करना था।

महादेव दिन-भर का भूखा-प्यासा, थका माँदा रह-रहकर झपकियाँ ले लेता था; किन्तु एक क्षण में फिर चौंककर आँखें खोल देता, और उस विस्तृत अंधकार में उसकी आवाज सुनायी देती-'सत्त गुरुदत्त शिवदत्त दाता। आधी रात गुजर गयी थी। सहसा वह कोई आहट पाकर चौंका। देखा, एक दूसरे वृक्ष के नीचे एक धुंधला दीपक जल रहा है, और कई आदमी बैठे हुए आपस में कुछ बातें कर रहे हैं। वे सब चिलम पी रहे थे। तमाखू की महक ने उसे अधीर कर दिया। उच्च स्वर से बोला-'सत गुरुदत्त शिवदत्त दाता', और उन आदमियों की ओर चिलम पीने चला; किन्तु जिस प्रकार बन्दूक की आवाज सुनते ही हिरन भाग जाते हैं उसी प्रकार उसे आते देख वे सब-के-सब उठकर भागे। कोई इधर गया, कोई उधर। महादेव चिल्लाने लगा-‘ठहरो-ठहरो!’ एकाएक उसे ध्यान आ गया ये सब चोर हैं। वह जोर से चिल्ला उठा-'चोर-चोर, पकड़ो-पकड़ो!' चोरों ने पीछे फिरकर भी न देखा।

महादेव दीपक के पास गया तो उसे एक कलसा रखा हुआ मिला। [ १०२ ]
मोरचे से काला हो रहा था। महादेव का हृदय उछलने लगा। उसने कलसे में हाथ डाला, तो मोहरे थी। उसने एक मोहर बाहर निकाली और दीपक के उजाले में देखा; हाँ मोहरें थी। उसने तुरन्त कलसा उठा लिया, दीपक बुझा दिया और पेड़ के नीचे छिपकर बैठ रहा। साह से चोर बन गया।

उसे फिर शंका हुई, ऐसा न हो, चोर लौट आयें, और मुझे अकेला देखकर मोहरे छीन लें। उसने कुछ मोहरे कमर में बाँधी, फिर एक सूखी लकड़ी से जमीन की मिट्टी हटाकर कई गड्ढे बनाये, उन्हें मोहरों से भरकर मिट्टी से ढंक दिया।

( ४ )

महादेव के अंतर्नेत्रों के सामने अब एक दूसरा ही जगत् था-चिन्ताओं और कल्पनाओं से परिपूर्ण। यद्यपि अभी कोष के हाथ से निकल जाने का भय था; पर अभिलाषाओं ने अपना काम शुरू कर दिया। एक पक्का मकान बन गया, सराफे की एक भारी दुकान खुल गयी, निज सम्बन्धियों से फिर नाता जुड़ गया, विलास को सामग्रियाँ एकत्र हो गयीं। तब तीर्थ-यात्रा करने चले, और वहाँ से लौटकर बड़े समारोह से यश, ब्रह्म-भोज हुआ। इसके पश्चात् एक शिवालय और कुआँ बन गया, और वहाँ वह नित्यप्रति कथा-पुराण सुनने लगा। साधु-सन्तों का श्रादर-सत्कार होने लगा।

अकस्मात् उसे ध्यान आनंया, कहीं चोर आ जाये तो मैं भागूँगा क्योंकर! उसने परीक्षा करने के लिए कलसा उठाया, और दो सौ पग तक बेतहाशा भागा हुआ चला गया। जान पड़ता था, उसके पैरों में पर लग गये हैं। चिन्ता शान्त हो गयी। इन्हीं कल्पनाओं में रात व्यतीत हो गयी। ऊषा का आगमन हुआ; हवा जगी, चिड़ियाँ गाने लगीं। सहसा महादेव के कानों में आवाज आयी--

'सत्त गुरुदत्त शिवदत्त दाता,

राम के चरन में चित्त लागा।‚

यह बोल महादेव की जिहा पर रहता था। दिन में सहस्रों ही बार [ १०३ ]
ये शब्द उसके मुख से निकलते थे; पर उनका धार्मिक भाव कभी उसके अंतःकरण को स्पर्श न करता था? जैसे कि बाजे से राग निकलता है उसी प्रकार उसके मुंँह से वह बोल निकलता था, निरर्थक और प्रभाव-शून्य। तब उसका हृदय-रूपी-वृक्ष पत्र-पल्लव-विहीन था। यह निर्मल वायु उसे गुंजारित न कर सकती थी। पर अब उस वृक्ष में कोपलें और शाखाएँ निकल आयो थीं; इस वायु-प्रवाह से झूम उठा; गुंजित हो गया।

अरुणोदय का समय था। प्रकृति एक अनुरागमय प्रकाश में डूबी हुई थी। उसी समय तोता परों को जोड़े हुए ऊँची डाली से उतरा; जैसे आकाश से कोई तारा टूटे, और आकर पिंजड़े में बैठ गया। महादेव प्रफुल्लित होकर दौड़ा, और पिंजड़े को उठाकर बोला-'आओ आत्माराम, तुमने कष्ट तो बहुत दिया, पर मेरा जीवन भी सफल कर दिया। अब तुम्हें चाँदी के पिंजड़े में रखूँगा, और सोने से मढ़ दूंँगा।' उसके रोम-रोम से परमात्मा के गुणानुवाद की ध्वनि निकलने लगी-प्रभु, तुम कितने दयावान् हो! यह तुम्हारा असीम वात्सल्य है, नहीं तो मुझ जैसा पापी पतित प्राणी कब इस कृपा के योग्य था! इन पवित्र भावों से उसकी आत्मा विह्वल हो गयी। वह अनुरक्त होकर कह उठा-

'सत्त गुरदत्त शिवदत्त दाता,

राम के चरन में चित्त लागा।'

उसने एक हाथ में पिंजड़ा लटकाया, बगल में कलसा दबाया, और घर चला।

( ५ )

महादेव घर पहुँचा, लो अभी कुछ अँधेरा था। रास्ते में एक कुत्ते के सिवा और किसी से भेंट न हुई, और कुत्ते को मोहरों से विशेष प्रेम नहीं होता। उसने कलसे को एक नाँद में छिपा दिया और उसे कोयले से अच्छी तरह ढंँककर अपनी कोठरी में रख आया। जब दिन निकल आया, [ १०४ ]
तो वह सीधे पुरोहितजी के घर पहुँचा। पुरोहितजी पूजा पर बैठे सोच रहे थे-कल ही मुकदमा की पेशी है, और अभी तक हाथ में कौड़ी भी नहीं-जजमानों में कोई सॉस भी नहीं लेता। इतने में महादेव ने पालागन की। पंडितजी ने मुँह फेर लिया। यह अमंगल-मूर्ति कहाँ से आ पहुंँची, मालूम नहीं, दाना भी मयस्सर होगा या नहीं। रुष्ट होकर पूछा-'क्या है, जी, क्या कहते हो? जानते नहीं, हम इस समय पूजा पर रहते हैं?” महादेव ने कहा-'महाराज, आज मेरे यहॉ सत्यनारायण की कथा है।’

पुरोहितजी विस्मित हो गये। कानों पर विश्वास न हुआ। महादेव के घर कथा का होना उतनी ही असाधारण घटना थी, जितनी अपने घर से किसी भिखारी के लिए भीख निकालना। पूछा-'आज क्या है?’

महादेव बोला-'कुछ नहीं, ऐसी ही इच्छा हुई कि आज भगवान्की कथा सुन, लूँ।

प्रभात ही से तैयारी होने लगी। बैदों और अन्य निकटवर्ती गाँवों में सुपारी फिरी। कथा के उपरान्त भोज का भी नेवता था। जो सुनता, आश्चर्य करता-'यह आज रेत में दूब कैसे जमी!'

सन्ध्या समय जब सब लोग जमा हो गये, पंडितजी अपने सिहासन पर विराजमान हुए, तो महादेव खड़ा होकर उच्च स्वर में बोला-

'भाइयो, मेरी सारी उम्र छल-कपट में कट गयी। मैंने न जाने कितने आदमियों को दगा दी, कितना खरे को खोटा किया, पर अब भगवान्ने मुझ पर दया की है, वह मेरे मुँह की कालिख मिटाना चाहते हैं। मैं आप सभी भाइयों से ललकारकर कहता हूँ कि जिसका मेरे जिम्मे जो कुछ निकलता हो, जिसको जमा मैने मार ली हो, जिसके चोखे माल को खोटा कर दिया हो,वह आकर अपनी एक-एक कौड़ी चुका ले। अगर [ १०५ ]
कोई यहाँ न पा सका हो, तो आप लोग उससे जाकर कह दीजिए, कल से एक महीने तक जब जी चाहे, आये, और अपना हिसाब चुकता कर ले। गवाही साखी का काम नहीं।

सब लोग सन्नाटे में आ गये। कोई मार्मिक भाव से सिर हिलाकर बोला-'हम कहते न थे!’ किसी ने अविश्वास से कहा-'क्या खाकर भरेगा, हजारों का टोटल हो जायगा!’

एक ठाकुर ने ठठोली की-'और जो लोग सुरधाम चले गये?'

महादेव ने उत्तर दिया-'उनके घरवाले तो होंगे?’

किन्तु इस समय लोगों को वसूली की इतनी इच्छा न थी, जितनी यह जानने की कि इसे इतना धन मिल कहाँ से गया? किसी को महादेव के पास आने का साहस न हुआ। देहात के आदमी थे, गड़े मुर्दे उखाड़ना क्या जाने। फिर प्रायः लोगों को याद भी न था कि उन्हें महादेव से क्या पाना है, और ऐसे पवित्र अवसर पर भूल-चूक हो जाने का भय उनका मुँह बन्द किये हुए था। सब से बड़ी बात यह थी कि महादेव की साधुता ने उन्हें वशीभूत कर लिया था।

अचनाक पुरोहितजी बोले-'तुम्हें याद है, मैंने एक कंठा बनाने के लिए सोना दिया था, और तुमने कई माशे तौल में उड़ा दिये थे।

महादेव---'हाँ, याद है। आपका कितना नुकसान हुआ होगा?’

पुरोहित--५०) से कम न होगा।'

महादेव ने कमर से दो मोहरें निकाली, और पुरोहितजी के सामने रख दी।

पुरोहित की लोलुपता पर टीकाएँ होने लगीं-'यह बेईमानी है, बहुत हो तो दो-चार रुपये का नुकसान हुआ होगा। बेचारे से ५०) ऐंठ लिये। नारायण का भी डर नहीं। बनने को पंडित, पर नीयत ऐसी खराब! राम-राम!!' [ १०६ ]लोगो को महादेव पर एक श्रद्धा-सी हो गयी। एक घंटा बीत गया पर उन सहस्रों मनुष्य में से एक भी न खड़ा हुआ तब महादेव ने फिर कहा-'मालूम होता है, आप लोग अपना-अपना हिसाब भूल गये हैं। इसलिए आज कथा होने दीजिए, मैं एक महीने तक आपकी राह देखूँगा। इसके पीछे तीर्थ यात्रा करने चला जाऊँगा। आप सब भाइयों से मेरी बिनती है कि आप मेरा उद्धार करें।

एक महीने तक महादेव लेनदारों की राह देखता रहा। रात को चोरों के भय से नींद न आती। अब वह कोई काम न करता। शराब का चसका भी छूटा। साधु-अभ्यागत जो द्वार पर आ जाते, उनका यथायोग्य सत्कार करता। दूर-दूर उसका सुयश फैल गया। यहाँ तक कि महीना पूरा हो गया और एक आदमी भी हिसाब लेने न आया। अब महादेव को ज्ञात हुआ कि संसार में कितना धर्म, कितना सम्व्यवहार है! अब उसे मालूम हुआ कि संसार बुरों के लिए बुरा है, और अच्छों के लिए अच्छा।

( ६ )

इस घटना को हुए ५० वर्ष बीत चुके हैं। आप बेंदो जाइए, तो दूर ही से एक सुनहरा कलस दिखायी देता है। यह ठाकुरद्वारे का कलस है। उससे मिला हुआ एक पक्का तालाब है, जिसमें खूब कमल खिले रहते हैं। उसकी मछलियाँ कोई नहीं पकड़ता। तालाब के किनारे एक विशाल' समाधि है। यही आत्माराम का स्मृति-चिह्न है। उसके संबंध में विभिन्न किवदंतियाँ प्रचलित हैं। कोई कहता है उसका रत्न-जटित पिंजड़ा स्वर्ग को चला गया। कोई कहता है, वह 'सत्त गुरदत्त' कहता हुआ अंतर्ध्दान हो गया। पर यथार्थ यह है कि उस पक्षी-रूपी चन्द्र को किसी बिल्ली-राहु ने ग्रस लिया। लोग कहते हैं, आधी रात को अभी तक तालाब के किनारे आवाज आती है[ १०७ ]

'सत्त गुरदत्त शिवदत्त दाता,

राम के चरन में चित्त लागा।’

महादेव के विषय में भी कितनी ही जन-श्रुतियाँ हैं। उनमें सबसे मान्य यह है कि आत्माराम के समाधिस्थ होने के बाद वह कई सन्यासियों के साथ हिमालय चला गया, और वहाँ से लौटकर न आया। उसका नाम आत्माराम प्रसिद्ध हो गया।