प्रेमचंद रचनावली ६/गोदान-१२

विकिस्रोत से
गोदान  (1936) 
द्वारा प्रेमचंद

[ १२४ ]

बारह

रात को गोबर झुनिया के साथ चला, तो ऐसा कांप रहा था, जैसे उसकी नाक कटी हुई हो। झुनिया को देखते ही सारे गांव में कुहराम मच जायगा, लोग चारों ओर से कैसी हाय-हाय मचायंगे, धनिया कितनी गालियां देगी, यह सोच-सोचकर उसके पांव पीछे रह जाते थे। होरी का तो उसे भय न था। वह केवल एक बार दहाड़ेंगे, फिर शांत हो जायंगे। डर था धनिया का, जहर खाने लगेगी, घर में आग लगाने लगेगी। नहीं, इस वक्त वह झुनिया के साथ घर नहीं जा सकता।

लेकिन कहीं धनिया ने झुनिया को घर में घुसने ही न दिया और झाड़ू लेकर मारने दौड़ी, तो वह बेचारी कहां जायगी? अपने घर तो लौट नहीं सकती। कहीं कुएं में कूद पड़े या गले में फांसी लगा ले, तो क्या हो? उसने लंबी सांस ली। किसकी शरण ले?

मगर अम्मां इतनी निर्दयी नहीं हैं कि मारने दौड़ें। क्रोध में दो-चार गालियां देंगी। लेकिन जब झुनिया उनके पांव पकड़कर रोने लगेगी, तो उन्हें जरूर दया आ जायगी। तब तक वह खुद कहीं छिपा रहेगा। जब उपद्रव शांत हो जायगा, तब वह एक दिन धीरे से आयगा और अम्मा को मना लेगा। अगर इस बीच उसे कहीं मजूरी मिल जाय और दो-चार रुपये लेकर घर लौटे, तो फिर धनिया का मुंह बंद हो जायगा।

झुनिया बोली-मेरी छाती धक्-धक कर रही है। मैं क्या जानती थी, तुम मेरे गले यह रोग मढ़ दोगे। न जाने किस बुरी साइत में तुमको देखा। न तुम गाय लेने आते, न यह सब कुछ होता। तुम आगे-आगे जाकर जो कुछ कहना-सुनना हो, कह सुन लेना। मैं पीछे से जाऊंगी।

गोबर ने कहा-नहीं-नहीं, पहले तुम जाना और कहना, मैं बाजार से सौदा बेचकर घर जा रही थी। रात हो गई है, अब कैसे जाऊं? तब तक मैं आ जाऊंगा।

झुनिया ने चिंतित मन से कहा-तुम्हारी अम्मां बड़ी गुस्सैल हैं। मेरा तो जी कांपता है। कहीं मुझे मारने लगें तो क्या करूंगी?

गोबर ने धीरज दिलाया-अम्मां की आदत ऐसी नहीं। हम लोगों तक को तो कभी एक तमाचा मारा नहीं, तुम्हें क्या मारेंगी। उनको जो कुछ कहना होगा, मुझे कहेंगी, तुमसे तो बोलेंगी भी नहीं।

गांव समीप आ गया। गोबर ने ठिठककर कहा-अब तुम जाओ।

झुनिया ने अनुरोध किया-तुम भी देर न करना।

'नहीं-नहीं, छन भर में आता हूं, तू चल तो।'

[ १२५ ]

'मेरा जी न जाने कैसा हो रहा है ! तुम्हारे ऊपर क्रोध आता है।'

'तुम इतना डरती क्यों हो? मैं तो आ ही रहा हूं।'

'इससे तो कहीं अच्छा था कि किसी दूसरी जगह भाग चलते।'

'जब अपना घर है तो क्यों कहीं भागें? तुम नाहक डर रही हो।'

‘जल्दी से आओगे न?'

'हां-हां, अभी आता हूं।'

'मुझसे दगा तो नहीं कर रहे हो? मुझे घर भेजकर आप कहीं चलते बनो?'

'इतना नीच नहीं हूं झूना ! जब तेरी बांह पकड़ी है, तो मरते दम तक निभाऊंगा।'

झुनिया घर की ओर चली। गोबर एक क्षण दुविधे में पड़ा खड़ा रहा। फिर एकाएक सिर पर मंडराने वाली धिक्कार की कल्पना भयंकर रूप धारण करके उसके सामने खड़ी हो गई। कहीं सचमुच अम्मां मारने दौड़ें, तो क्या हो? उसके पांव जैसे धरती से चिमट गए। उसके और उसके घर के बीच केवल आमों का छोटा-सा बाग था। झुनिया की काली परछाई धीरे-धीरे जाती हुई दीख रही थी। उसकी ज्ञानेंद्रियां बहुत तेज हो गई थीं। उसके कानों में ऐसी भनक पड़ी जैसे अम्मां झुनिया को गाली दे रही हैं। उसके मन की कुछ ऐसी दशा हो रही थी, मानो सिर पर गड़ांसे का हाथ पड़ने वाला हो। देह का सारा रक्त सूख गया हो। एक क्षण के बाद उसने देखा, जैसे धनिया घर से निकलकर कहीं जा रही हो। दादा के पास जाती होगी। साइत दादा खा-पीकर मटर अगोरने चले गए हैं। वह मटर के खेत की ओर चला। जौ-गेहूं के खेतों को रौंदता हुआ वह इस तरह भागा जा रहा था, मानो पीछे दौड़ आ रही है। वह है दादा की मंड़ैया । वह रुक गया और दबे पांव आकर मंडैया के पीछे बैठ गया। उसका अनुमान ठीक निकला। वह पहुंचा ही था कि धनिया की बोली सुनाई दी। ओह ! गजब हो गया। अम्मां इतनी कठोर हैं। एक अनाथ लड़की पर इन्हें तनिक भी दया नहीं आती। और जो मैं सामने जाकर फटकार दूं कि तुमको झुनिया से बोलने का कोई मजाल नहीं है, तो सारी सेखी निकल जा। अच्छा। दादा भी बिगड़ रहे हैं। केले के लिए आज ठीकरा भी तेज हो गया। मैं जरा अदब करता हूं, उसी का फल है। यह तो दादा भी वहीं जा रहे हैं। अगर झुनिया को इन्होंने मारा-पीटा तो मुझसे न सहा जायगा। भगवान्। अब तुम्हारा ही भरोसा है। मैं न जानता था, इस विपत में जान फंसेगी। झुनिया मुझे अपने मन में कितना धूर्त, कायर और नीच समझ रही होगी, मगर उसे मार कैसे सकते हैं? घर से निकाल भी कैसे सकते हैं? क्या घर में मेरा हिस्सा नहीं है? अगर झुनिया पर किसी ने हाथ उठाया, तो आज महाभारत हो जायगा। मां बाप जब तक लड़कों की रक्षा करें, तब तक मां-बाप हैं। जब उनमें ममता ही नहीं है, तो कैसे मां-बाप।

होरी ज्योंही मंडै़या से निकला, गोबर भी दबे पांव धीरे-धीरे पीछे-पीछे चला, लेकिन द्वार पर प्रकाश देखकर उसके पांव बंध गए। उस प्रकाश-रेखा के अंदर वह पांव नहीं रख सकता। वह अंधेरे में ही दीवार से चिमटकर खड़ा हो गया। उसकी हिम्मत ने जवाब दे दिया। हाय । बेचारी झुनिया पर निरपराध यह लोग झल्ला रहे हैं, और वह कुछ नहीं कर सकता। उसने खेल-खेल में जो एक चिंगारी फेंक दी थी, वह सारे खलिहान को भस्म कर देगी, यह उसने न समझा था। और अब उसमें इतना साहस न था कि सामने आकर कहे-हां, मैंने चिंगारी फेंकी थी जिन टिकौनों से उसने अपने मन को संभाला था, [ १२६ ]
वे सब इस भूकंप में नीचे आ रहे और वह झोंपड़ा नीचे गिर पड़ा। वह पीछे लौटा। अब वह झुनिया को क्या मुंह दिखाए ।

वह सौ कदम चला, पर इस तरह जैसे कोई सिपाही मैदान से भागे। उसने झुनिया से प्रीति और विवाह की जो बातें की थीं, वह सब याद आने लगीं। वह अभिसार की मीठी स्मृतियां याद आईं, जब वह अपने उन्मत्त उसांसों में, अपनी नशीली चितवनों में मानो अपने प्राण निकालकर उसके चरणों पर रख देता था। झुनिया किसी वियोगी पक्षी की भांति अपने छोटे-से घोंसले में एकांत-जीवन काट रही थी। वहां नर का मत्त आग्रह न था, न वह उद्दीप्त उल्लास, न शावकों की मीठी आवाजें, मगर बहेलिये का जाल और छल भी तो वहां न था। गोबर ने उसके एकांत घोंसले में जाकर उसे कुछ आनंद पहुंचाया या नहीं, कौन जाने, पर उसे विपत्ति में डाल ही दिया। वह संभल गया। भागता हुआ सिपाही मानो अपने एक साथी का बढ़ावा सुनकर पीछे लौट पड़ा।

उसने द्वार पर आकर देखा, तो किवाड़ बंद हो गए थे। किवाड़ों के दराजों से प्रकाश की रेखाएं बाहर निकल रही थीं। उसने एक दरार से अंदर झांका। धनिया और झुनिया बैठी हुई थीं। होरी खड़ा था। झुनिया की सिसकियां सुनाई दे रही थीं और धनिया उसे समझा रही थी-बेटी, तू चलकर घर में बैठ। मैं तेरे काका और भाइयों को देख लूंगी। जब तक हम जीते हैं, किसी बात की चिंता नहीं है। हमारे रहते कोई तुझे तिरछी आंखों देख भी न सकेगा। गोबर गद्गद हो गया। आज वह किसी लायक होता, तो दादा और अम्मां को सोने से मढ़ देता और कहता-अब तुम कुछ परवा न करो, आराम से बैठे खाओ और जितना दान-पुन्न करना चाहो करो। झुनिया के प्रति अब उसे कोई शंका नहीं है। वह उसे जो आश्रय देना चाहता था, वह मिल गया। झुनिया उसे दगाबाज समझती है, तो समझे। वह तो अब तभी घर आएगा, जब वह पैसे के बल से सारे गांव का मुंह बंद कर सके और दादा और अम्मां उसे कुल का कलंक न समझकर कुल का तिलक समझें। मन पर जितना ही गहरा आघात होता है उसकी प्रतिक्रिया भी उतनी ही गहरी होती है। इस अपकीर्ति और कलंक ने गोबर के अंतस्तल को मथकर वह रत्न निकाल लिया, जो अभी तक छिपा पड़ा था। आज पहली बार उसे अपने दायित्व का ज्ञान हुआ और उसके साथ ही संकल्प भी। अब तक वह कम-से-कम काम करना और ज्यादा-से-ज्यादा खाना अपना हक समझता था। उसके मन में कभी यह विचार ही नहीं उठा कि घरवालों के साथ उसका भी कुछ कर्तव्य है। आज माता-पिता की उदात्त क्षमा ने जैसे उसके हृदय में प्रकाश डाल दिया। जब धनिया और झुनिया भीतर चली गई, तो वह होरी की उसी मंडै़या में जा बैठा और भविष्य के मंसूबे बांधने लगा।

शहर के बेलदारों को पांच-छ: आने रोज मिलते हैं, यह उसने सुन रखा था। अगर उसे छ: आने रोज मिलें और वह एक आने में गुजर कर ले, तो पांच आने रोज बच जायं। महीने में दस रुपये होते हैं, और साल-भर में सवा सौ। वह सवा-सौ की थैली लेकर घर आए, तो किसकी मजाल है, जो उसके सामने मुंह खोल सके? यही दातादीन और यही पटेसरी आकर उसकी हां में हां मिलाएंगे और झुनिया तो मारे गर्व के फूल जाय। दो-चार साल वह इसी तरह कमाता रहे, तो सारे घर का दलिद्दर मिट जाय। अभी तो सारे घर की कमाई भी सवा सौ नहीं होती। अब वह अकेला सवा सौ कमाएगा। यही तो लोग कहेंगे कि मजूरी करता है। कहने दो। मजूरी करना कोई पाप तो नहीं है। और सदा छ: आने थोड़े मिलेंगे। जैसे-जैसे वह काम में [ १२७ ]
होशियार होगा, मजूरी भी तो बढ़ेगी। तब वह दादा से कहेगा, अब तुम घर में बैठकर भगवान् का भजन करो। इस खेती में जान खपाने के सिवा और क्या रखा है? सबसे पहले वह एक पछाई गाय लाएगा, जो चार-पांच सेर दूध देगी और दादा से कहेगा, तुम गऊ माता की सेवा करो। इससे तुम्हारा लोक भी बनेगा, परलोक भी।

और क्या, एक आने में उसका गुजर आराम से न होगा? घर-द्वार लेकर क्या करना है? किसी के ओसारे में पड़ा रहेगा। सैकड़ों मंदिर हैं, धरमसाले हैं! और फिर जिसकी वह मजूरी करेगा, क्या वह उसे रहने के लिए जगह न देगा? आटा रुपये का दस सेर आता है। एक आने में ढाई पाव हुआ। एक आने का तो वह आटा ही खा जायगा। लकड़ी, दाल, नमक, साग यह सब कहां से आएगा? दोनों जून के लिए सेर भर तो आटा ही चाहिए। ओह! खाने की तो कुछ न पूछो। मुट्ठी-भर चने में भी काम चल सकता है। हलुवा और पूरी खाकर भी काम चल सकता है। जैसी कमाई हो। वह आधा सेर आटा खाकर दिन-भर मजे से काम कर सकता है। इधर- उधर से उपले चुन, लकड़ी का काम चल गया। कभी एक पैसे की दाल ले ली, कभी आलू। आलू भूनकर भुरता बना लिया। यहां दिन काटना है कि चैन करना है। पत्तल पर आटा गूंधा, उपलों पर बाटियां सेंकीं, आलू भूनकर भुरता बनाया और मजे से खाकर सो रहे । घर ही पर कौन दोनों जून रोटी मिलती है, एक जून तो चबेना ही मिलता है। वहां भी एक जून चबेने पर काटेंगे।

उसे शंका हुई, अगर कभी मजूरी न मिली तो, वह क्या करेगा? मगर मजूरी क्यों न मिलेगी? जब वह जी तोड़कर काम करेगा, तो सौ आदमी उसे बुलाएंगे। काम सबको प्यारा होता है, चाम नहीं प्यारा होता। यहां भी तो सूखा पड़ता है, पाला गिरता है, ऊख में दीमक लगते हैं, जौ में गेरूई लगती हैं, सरसों में लाही लग जाती है। उसे रात को कोई काम मिल जायगा, तो उसे भी न छोड़ेगा। दिन-भर मजूरी की, रात कहीं चौकीदारी कर लेगा। दो आने भी रात के काम में मिल जाये, तो चांदी है। जब वह लौटेगा, तो सबके लिए साड़ियां लाएगा। झुनिया के लिए हाथ का कंगन जरूर बनवायगा। और दादा के लिए एक मुंड़ासा लाएगा।

इन्हीं मनमोदकों का स्वाद लेता हुआ वह सो गया, लेकिन ठंड में नींद कहां। किसी तरह रात काटी और तड़के उठकर लखनऊ की सड़क पकड़ ली। बीस कोस ही तो है। सांझ तक पहुंच जायगा। गांव का कौन आदमी वहां आता-जाता है और वह अपना ठिकाना ही क्यों लिखेगा, नहीं दादा दूसरे ही दिन सिर पर सवार हो जायंगे। उसे कुछ पछतावा था, तो यही कि झुनिया से क्यों न साफ-साफ कह दिया-अभी तू घर जा, मैं थोड़े दिनों में कुछ कमाकर लौटूंगा, लेकिन तब वह घर जाती ही क्यों? कहती-मैं भी तुम्हारे साथ लौटूंगी? उसे वह कहां- कहां बांधे फिरता?

दिन चढ़ने लगा। रात को कुछ न खाया था। भूख मालूम होने लगी। पांव लड़खड़ाने लगे। कहीं बैठकर दम लेने की इच्छा होती थी। बिना कुछ पेट में डाले, वह अब नहीं चल सकता, लेकिन पास एक पैसा भी नहीं है। सड़क के किनारे झड़बेरियों के झाड़ थे। उसने थोड़े से बेर तोड़ लिए और उदर को बहलाता हुआ चला। एक गांव में गुड़ पकने की सुगंध आई। अब मन न माना। कोल्हाड़ में जाकर लोटा-डोर मांगा और पानी भरकर चुल्लू से पीने बैठा कि एक किसान ने कहा-अरे भाई, क्या निराला ही पानी पियोगे? थोड़ा-सा मीठा खा लो। अबकी और चला [ १२८ ]
लें कोल्हू और बना लें खांड़। अगले साल तक मिल तैयार हो जायगी, सारी ऊख खड़ी बिक जायगी। गुड़ और खांड़ के भाव चीनी मिलेगी, तो हमारा गुड़ कौन लेगा? उसने एक कटोरे में गुड़ की कई पिंडियां लाकर दीं। गोबर ने गुड़ खाया, पानी पिया। तमाखू तो पीते होगे? गोबर ने बहाना किया-अभी चिलम नहीं पीता। बुड्ढे ने प्रसन्न होकर कहा-बड़ा अच्छा करते हो भैया। बुरा रोग है। एक बेर पकड़ ले, तो जिंदगी-भर नहीं छोड़ता।

इंजन को कोयला-पानी भी मिल गया। चाल तेज हुई। जाड़े के दिन, न जाने कब दोपहर हो गया। एक जगह देखा, एक युवती एक वृक्ष के नीचे पति से सत्याग्रह किए बैठी थी। पति सामने खड़ा उसे मना रहा था। दो-चार राहगीर तमाशा देखने खड़े हो गए थे। गोबर भी खड़ा हो गया। मानलीला से रोचक और कौन जीवन-नाटक होगा। युवती ने पति की ओर घूरकर कहा-मैं न जाऊंगी, न जाऊंगी, न जाऊंगी।

पुरुष ने जैसे अल्टीमेटम दिया-न जायगी?

'न जाऊंगी।'

'न जायगी?'

'न जाऊंगी।'

पुरुष ने उसके केश पकड़कर घसीटना शुरू किया। युवती भूमि पर लोट गई।

पुरुष ने हारकर कहा-मैं फिर कहता हूं, उठकर चल।

स्त्री ने उसी दृढ़ता से कहा-मैं तेरे घर सात जनम न जाऊंगी, बोटी-बोटी काट डाल।

'मैं तेरा गला काट लूंगा।'

'तो फांसी पाओगे।'

पुरुष ने उसके केश छोड़ दिए और सिर पर हाथ रखकर बैठ गया। पुरुषत्व अपनी चरम सीमा तक पहुंच गया। उसके आगे अब उसका कोई बस नहीं है।

एक क्षण में वह फिर खड़ा हुआ और परास्त होकर बोला-आखिर तू क्या चाहती है?

युवती भी उठ बैठी और निश्चल भाव से बोली-मैं यही चाहती हूं, तू मुझे छोड़ दे।

'कुछ मुंह से कहेगी, क्या बात हुई?'

'मेरे माई-बाप को कोई क्यों गाली दे?'

'किसने गाली दी, तेरे माई-बाप को?'

'जाकर अपने घर में पूछ।'

'चलेगी तभी तो पूछूंगा?'

'तू क्या पूछेगा? कुछ दम भी है। जाकर अम्मां के आंचल में मुंह ढांककर सो। वह तेरी मां होगी। मेरी कोई नहीं है। तू उसकी गालियां सुन। मैं क्यों सुनूं? एक रोटी खाती हूं, तो चार रोटी का काम करती हूं। क्यों किसी की धौंस सहूं? मैं तेरा एक पीतल का छल्ला भी तो नहीं जानती।'

राहगीरों को इस कलह में अभिनय का आनंद आ रहा था, मगर उसके जल्द समाप्त होने की कोई आशा न थी। मंजिल खोटी होती थी। एक-एक करके लोग खिसकने लगे। गोबर को पुरुष की निर्दयता बुरी लग रही थी। भीड़ के सामने तो कुछ न कह सकता था। मैदान खाली हुआ तो बोला-भाई, मर्द और औरत के बीच में बोलना तो न चाहिए, मगर इतनी बेदरदी भी अच्छी नहीं होती। [ १२९ ]

पुरुष ने कौड़ी की-सी आंखें निकालकर कहा-तुम कौन हो?

गोबर ने नि:शंक भाव से कहा-मैं कोई हूं, लेकिन अनुचित बात देखकर सभी को बुरा लगता है।

पुरुष ने सिर हिलाकर कहा-मालूम होता है, अभी मेहरिया नहीं आई, तभी इतना दरद है।

'मेहरिया आएगी, तो भी उसके झोटे पकड़कर न खींचूंगा।'

'अच्छा, तो अपनी राह लो। मेरी औरत है, मैं उसे मारूंगा, काटूंगा। तुम कौन होते हो बोलने वाले। चले जाते सीधे से, यहां मत खड़े हो।'

गोबर का गर्म खून और गर्म हो गया। वह क्यों चला जाय? सड़क सरकार की है। किसी के बाप की नहीं है। वह जब तक चाहे, वहां खड़ा रह सकता है। वहां से उसे हटाने का किसी को अधिकार नहीं है।

पुरुष ने होंठ चबाकर कहा-तो तुम न जाओगे? आऊं?

गोबर ने अंगोछा कमर में बांध लिया और समर के लिए तैयार होकर बोला-तुम आओ या न आओ। मैं तो तभी जाऊंगा, जब मेरी इच्छा होगी।

'तो मालूम होता है, हाथ-पैर तुड़ा के जाओगे?'

'यह कौन जानता है, किसके हाथ-पांव टूटेंगे।'

'तो तुम न जाओगे?'

'ना।'

पुरुष मुट्ठी बांधकर गोबर की ओर झपटा। उसी क्षण युवती ने उसकी धोती पकड़ ली और उसे अपनी ओर खींचती हुई गोबर से बोली-तुम क्यों लड़ाई करने पर उतारू हो रहे हो जी, अपनी राह क्यों नहीं जाते? यहां कोई तमासा है? हमारा आपस का झगड़ा है। कभी वह मुझे मारता है, कभी मैं उसे डांटती हूं। तुमसे मतलब?

गोबर यह धिक्कार पाकर चलता बना। दिल में कहा-यह औरत मार खाने ही लायक है।

गोबर आगे निकल गया, तो युवती ने पति को डांटा-तुम सबसे लड़ने क्यों लगते हो? उसने कौन-सी बुरी बात कही थी कि तुम्हें चोट लोग गई। बुरा काम करोगे, तो दुनिया बुरा कहेगी ही, मगर है किसी भले घर का और अपनी बिरादरी का ही जान पड़ता है। क्यों उसे अपनी बहन के लिए नहीं ठीक कर लेते?

पति ने संदेह के स्वर में कहा-क्या अब तक कुवांरा बैठा होगा?

'तो पूछ ही क्यों न लो?'

पुरुष ने दस कदम दौड़कर गोबर को आवाज दी और हाथ से ठहर जाने का इशारा किया। गोबर ने समझा, शायद फिर इसके सिर भूत सवार हुआ, तभी ललकार रहा है। मार खाए बगैर बिना न मानेगा। अपने गांव में कुत्ता भी शेर हो जाता है, लेकिन आने दो।

लेकिन उसके मुख पर समर की ललकार न थी, मैत्री का निमंत्रण था। उसने गांव और नाम और जात पूछी। गोबर ने ठीक-ठीक बता दिया। उस पुरुष का नाम कोदई था।

कोदई ने मुस्कराकर कहा-हम दोनों में लड़ाई होते-होते बची। तुम चले आए, तो मैंने सोचा, तुमने ठीक ही कहा। मैं हक-नाहक तुमसे तन बैठा। कुछ खेती-बारी घर में होती है न?

गोबर ने बताया-उसके मौरूसी पांच बीघे खेत हैं और एक हल की खेती होती है। [ १३० ]

'मैंने तुम्हें जो भला-बुरा कहा है, उसकी माफी दे दो भाई। क्रोध में आदमी अंधा हो जाता है। औरत गुन-सहूर में लच्छमी है, मुदा कभी-कभी न जाने कौन-सा भूत इस पर सवार हो जाता है। अब तुम्हीं बताओ, माता पर मेरा क्या बस है? जनम तो उन्हीं ने दिया है, पाला- पोसा तो उन्होंने है। जब कोई बात होगी, तो मैं जो कुछ कहूंगा, लुगाई ही से कहूंगा। उस पर अपना बस है। तुम्हीं सोचो, मैं कुपद तो नहीं कह रहा हूं? हां, मुझे उसके बाल पकड़कर घसीटना न था, लेकिन औरत जात बिना कुछ ताड़ना दिए काबू में भी तो नहीं रहती। चाहती है, मां से अलग हो जाऊं । तुम्हीं सोचो, कैसे अलग हो जाऊं और किससे अलग हो जाऊं। अपनी मां से? जिसने जनम दिया? यह मुझसे न होगा। औरत रहे या जाय।'

गोबर को भी राय बदलनी पड़ी। बोला-माता का आदर करना तो सबका धरम ही है। भाई। माता से कौन उरिन हो सकता है?

कोदई ने उसे अपने घर चलने का नेवता दिया। आज वह किसी तरह लखनऊ नहीं पहुंच सकता। कोस दो-कोस जाते-जाते सांझ हो जायगी। रात को कहीं टिकना ही पड़ेगा।

गोबर ने विनोद किया-लुगाई मान गई?

'न मानेगी तो क्या करेगी।'

'मुझे तो उसने ऐसी फटकार बताई कि मैं लजा गया।'

'वह खुद पछता रही है। चलो, जरा माताजी को समझा देना! मुझसे तो कुछ कहते नहीं बनता। उन्हें भी सोचना चाहिए कि बहू को बाप-माई की गाली क्यों देती है। हमारी भी बहन है। चार दिन में उसकी सगाई हो जायगी । उसकी सास हमें गालियां देगी, तो उससे सुना न जायगा? सब दोस लुगाई ही का नहीं है। माता का भी दोस है। जब हर बात में वह अपनी बेटी का पच्छ करेंगी, तो हमें बुरा लगेगा ही। इसमें इतनी बात अच्छी है कि घर से रूठकर चली जाय, पर गाली का जवाब गाली से नहीं देती।'

गोबर को रात के लिए कोई ठिकाना चाहिए था ही। कोदई के साथ हो लिया। दोनों फिर उसी जगह आए, जहां युवती बैठी हुई थी। वह अब गृहिणी बन गई थी। जरा-सा घूंघट निकाल लिया था और लजाने लगी थी।

कोदई ने मुस्कराकर कहा-यह तो आते ही न थे। कहते थे, ऐसी डांट सुनने के बाद उनके घर कैसे जाय?

युवती ने घूंघट की आड़ से गोबर को देखकर कहा-इतनी ही डांट में डर गए? लुगाई आ जायगी, तब कहां भागोगे?

गांव समीप ही था। गांव क्या था, पुरवा था, दस-बारह घरों का, जिसमें आधे खपरैल के थे, आधे फूस के। कोदई ने अपने घर पहुंचकर खाट निकाली, उस पर एक दरी डाल दी, शर्बत बनाने को कह, चिलम भर लाया। और एक क्षण में वही युवती लोटे में शर्बत लेकर आई और गोबर को पानी का एक छींटा मारकर मानो क्षमा मांग ली। वह अब उसका ननदोई हो रहा था। फिर क्यों न अभी से छेड़-छाड़ शुरू कर दे।