प्रेमचंद रचनावली ६/गोदान-१९
है, उसके प्राणियों की सृष्टि की है। और प्राण जैसे देह का संचालन करता है, उसी तरह आपने उसका संचालन किया है। प्राण निकल जाय, तो देह की क्या गति होगी? मातृत्व महान् गौरव का पद है देवीजी! और गौरव के पद में कहां अपमान और धिक्कार और तिरस्कार नहीं मिला? माता का काम जीवन-दान देना है। जिसके हाथों में इतनी अतुल शक्ति है, उसे इसकी क्या परवाह कि कौन उससे रूठता है, कौन बिगड़ता है। प्राण के बिना जैसे देह नहीं रह सकती, उसी तरह प्राण का भी देह ही सबसे उपयुक्त स्थान है। मैं आपको धर्म और त्याग का क्या उपदेश दूं? आप तो उसकी सजीव प्रतिमा हैं। मैं तो यही कहूंगा कि....
गोविन्दी ने अधीर होकर कहा--लेकिन मैं केवल माता ही तो नहीं हूं, नारी भी तो हूं?
मेहता ने एक मिनट तक मौन रहने के बाद कहा--हां, हैं, लेकिन मैं समझता हूं कि नारी केवल माता है, और इसके उपरान्त वह जो कुछ है, वह मातृत्व का उपक्रम मात्र। मातृत्व संसार की सबसे बड़ी साधना, सबसे बड़ी तपस्या, सबसे बड़ा त्याग और सबसे महान् विजय है। एक शब्द में उसे लय कहूंगा--जीवन का, व्यक्तित्व का और नारीत्व का भी। आप मिस्टर खन्ना के विषय में इतना ही समझ लें कि वह अपने होश में नहीं हैं। वह जो कुछ कहते हैं या करते हैं, वह उन्माद की दशा में करते हैं, मगर यह उन्माद शान्त होने में बहुत दिन न लगेंगे, और वह समय बहुत जल्द आएगा, जब वह आपको अपनी इष्टदेवी समझेंगे।
गोविन्दी ने इसका कुछ जवाब न दिया। धीरे-धीरे कार की ओर चली। मेहता ने बढ़कर कार का द्वार खोल दिया। गोविन्दी अन्दर जा बैठी। कार चली, मगर दोनों मौन थे।
गोविन्दी जब अपने द्वार पर पहुँचकर कार से उतरी, तो बिजली के प्रकाश में मेहता ने देखा, उसकी आंखें सजल हैं।
बच्चे घर में से निकल आए और 'अम्माँ-अम्माँ' कहते हुए माता से लिपट गए। गोविन्दी के मुख पर मातृत्व की उज्ज्वल गौरवमयी ज्योति चमक उठी।
उसने मेहता से कहा--इस कष्ट के लिए आपको बहुत धन्यवाद। और सिर नीचा कर लिया। आंसू की एक बूंद उसके कपोल पर आ गिरी थी।
मेहता की आंखें भी सजल हो गईं--इस ऐश्वर्य और विलास के बीच में भी यह नारी-हृदय कितना दुखी है।
उन्नीस
मिर्जा खुर्शेद का हाता क्लब भी है, कचहरी भी, अखाड़ा भी। दिन भर जमघट लगा रहता है। मुहल्ले में अखाड़े के लिए कहीं जगह नहीं मिलती थी। मिर्जा ने एक छप्पर डलवाकर अखाड़ा बनावा दिया है, वहां नित्य सौ-पचास लड़तिये आ जुटते हैं। मिर्जाजी भी उनके साथ जोर करते हैं। मुहल्ले की पंचायतें भी यहीं होती हैं। मियां-बीवी और सास-बहू और भाई-भाई के झगड़े-टंटे यहीं चुकाए जाते हैं। मुहल्ले के सामाजिक जीवन का यही केन्द्र है और राजनीतिक आन्दोलन का भी। आए दिन सभाएं होती रहती हैं। यहीं स्वयंसेवक टिकते हैं, यहीं उनके प्रोग्राम बनते हैं, यहीं से नगर का राजनीतिक संचालन होता है। पिछले जलसे में मालती नगर-कांग्रेस-कमेटी
की सभानेत्री चुन ली गई है। तब से इस स्थान की रौनक और भी बढ़ गई।
गोबर को यहां रहते साल भर हो गया। अब वह सीधा-साधा ग्रामीण युवक नहीं है। उसने बहुत कुछ दुनिया देख ली और संसार का रंग-ढग भी कुछ-कुछ समझने लगा है। मूल में वह अब भी देहाती है, पैसे को दांत से पकड़ता है, स्वार्थ को कभी नहीं छोड़ता, और परिश्रम से जी नहीं चुराता, न कभी हिम्मत हारता है, लेकिन शहर की हवा उसे भी लग गई है। उसने पहले महीने में तो केवल मजूरी की और आधा पेट खाकर थोड़े रुपये बचा लिए। फिर वह कचालू और मटर और दही-बड़े के खोमचे लगाने लगा। इधर ज्यादा लाभ देखा, तो नौकरी छोड़ दी। गर्मियों में शर्बत और बरफ की दूकान भी खोल दी। लेन-देन में खरा था, इसलिए उसकी साख जम गई। जाड़े आए, तो उसने शर्बत की दुकान उठा दी और गर्म चाय पिलाने लगा। अब उसकी रोजाना आमदनी ढाई-तीन रुपये से कम नहीं है। उसने अंग्रेजी फैशन के बाल कटवा लिए हैं, महीन धोती और पम्प-शू पहनता है। एक लाल ऊनी चादर खरीद ली और पान-सिगरेट का शौकीन हो गया है। सभाओं में आने-जाने से उसे कुछ-कुछ राजनीतिक ज्ञान भी हो चला है। राष्ट्र और वर्ग का अर्थ समझने लगा है। सामाजिक रूढ़ियों की प्रतिष्ठा और लोक-निंदा का भय अब उसमें बहुत कम रह गया है। आए दिन की पंचायतों ने उसे निस्संकोच बना दिया है। जिस बात के पीछे वह यहां घर से दूर, मुंह छिपाए पड़ा हुआ है, उसी तरह की, बल्कि उससे भी कहीं निंदास्पद बातें यहां नित्य हुआ करती हैं, और कोई भागता नहीं। फिर वही क्यों इतना डरे और मुंह चुराए।
इतने दिनों में उसने एक पैसा भी घर नहीं भेजा। वह माता-पिता को रुपये-पैसे के मामले में इतना चतुर नहीं समझता। वे लोग तो रुपये पाते ही आकाश में उड़ने लगेंगे। दादा को तुरंत गया करने की ओर अम्मां को गहने बनवाने की धुन सवार हो जाएगी। ऐसे व्यर्थ के कामों के लिए उसके पास रुपये नहीं हैं। अब वह छोटा-मोटा महाजन है। वह पड़ोस के इक्केवालों, गाड़ीवानों और धोबियों को सूद पर रुपये उधार देता है। इस दस-ग्यारह महीने में ही उसने अपनी मेहनत और किफायत और पुरुषार्थ से अपना स्थान बना लिया है और अब झुनिया को यहीं लाकर रखने की बात सोच रहा है।
तीसरे पहर का समय है। वह सड़क के नल पर नहाकर आया है और शाम के लिए आलू उबाल रहा है कि मिर्जा खुद आकर द्वार पर खड़े हो गए। गोबर अब उनका नौकर नहीं है, पर अदब उसी तरह करता है और उनके लिए जान देने को तैयार रहता है। द्वार पर जाकर पूछा-क्या हुक्म है सरकार?
मिर्जा ने खड़े-खड़े कहा-तुम्हारे पास कुछ रुपये हों, तो दे दो। आज तीन दिन से बोतल खाली पड़ी हुई है, जी बहुत बेचैन हो रहा है।
गोबर ने इसके पहले भी दो-तीन बार मिर्जाजी को रुपये दिए थे, पर अब तक वसूल न सका था। तकाजा करते डरता था और मिर्जाजी रुपये लेकर देना न जानते थे। उनके हाथ में रुपये टिकते ही न थे। इधर आए, उधर गायब। यह तो न कह सका, मैं रुपये न दूंगा या मेरे पास रुपये नहीं हैं, शराब की निंदा करने लगा-आप इसे छोड़ क्यों नहीं देते सरकार? क्या इसके पीने से कुछ फायदा होता है?
मिर्जाजी ने कोठरी के अंदर आकर खाट पर बैठते हुए कहा-तुम समझते हो, मैं छोड़ना नहीं चाहता और शौक से पीता हूं। मैं इसके बगैर जिंदा नहीं रह सकता। तुम अपने रुपयों के लिए न डरो। मैं एक-एक कौड़ी अदा कर दूंगा।
गोबर अविचलित रहा-मैं सच कहता हूं मालिक मेरे पास इस समय रुपये होते तो
आपसे इंकार करता?
'दो रुपये भी नहीं दे सकते?'
'इस समय तो नहीं हैं।'
'मेरी अँगूठी गिरो रख लो।'
गोबर का मन ललचा उठा; मगर बात कैसे बदले? बोला -- यह आप क्या कहते हैं मालिक, रुपए होते तो आपको दे देता, अँगूठी की कौन बात थी|
मिर्जा ने अपने स्वर में बड़ा दीन आग्रह भरकर कहा -- मैं फिर तुमसे कभी न माँगूँगा गोबर! मुझसे खड़ा नहीं हुआ जा रहा है। इस शराब की बदौलत मैंने लाखों की हैसियत बिगाड़ दी और भिखारी हो गया। अब मुझे भी ज़िद पड़ गयी है कि चाहे भीख ही माँगनी पड़े, इसे छोड़ूँगा नहीं।
जब गोबर ने अबकी बार इंकार किया, तो मिर्जा साहब निराश होकर चले गये। शहर में उनके हज़ारों मिलने वाले थे। कितने ही उनकी बदौलत बन गये थे। कितनों ही को गाढ़े समय पर मदद की थी; पर ऐसे से वह मिलना भी न पसन्द करते थे। उन्हें ऐसे हज़ारों लटके मालूम थे, जिससे वह समय-समय पर रुपयों के ढेर लगा देते थे; पर पैसे की उनकी निगाह में कोई क़द्र न थी। उनके हाथ में रुपए जैसे काटते थे। किसी न किसी बहाने उड़ाकर ही उनका चित्त शान्त होता था।
गोबर आलू छीलने लगा। साल-भर के अन्दर ही वह इतना काइयाँ हो गया था और पैसा जोड़ने में इतना कुशल कि अचरज होता था। जिस कोठरी में वह रहता है, वह मिर्जा साहब ने दी है। इस कोठरी और बरामदे का किराया बड़ी आसानी से पाँच रुपया मिल सकता है। गोबर लगभग साल भर से उसमें रहता है; लेकिन मिरज़ा ने न कभी किराया माँगा न उसने दिया। उन्हें शायद ख़याल भी न था कि इस कोठरी का कुछ किराया भी मिल सकता है। थोड़ी देर में एक इक्केवाला रुपये माँगने आया। अलादीन नाम था, सिर घुटा हुआ, खिचड़ी डाढ़ी, और काना। उसकी लड़की बिदा हो रही थी। पाँच रुपए की उसे बड़ी ज़रूरत थी। गोबर ने एक आना रुपया सूद पर रुपए दे दिये। अलादीन ने धन्यवाद देते हुए कहा -- भैया, अब बाल-बच्चों को बुला लो। कब तक हाथ से ठोकते रहोगे।
गोबर ने शहर के ख़र्च का रोना रोया -- थोड़ी आमदनी में गृहस्थी कैसे चलेगी?
अलादीन बीड़ी जलाता हुआ बोला -- ख़रच अल्लाह देगा भैया! सोचो, कितना आराम मिलेगा। मैं तो कहता हूँ, जितना तुम अकेले ख़रच करते हो, उसी में गृहस्थी चल जायगी। औरत के हाथ में बड़ी बरक्कत होती है। ख़ुदा क़सम, जब मैं अकेला यहाँ रहता था, तो चाहे कितना ही कमाऊँ खा-पी सब बराबर। बीड़ी-तमाखू को भी पैसा न रहता। उस पर हैरानी। थके-माँदे आओ, तो घोड़े को खिलाओ और टहलाओ। फिर नानबाई की दूकान पर दौड़ो। नाक में दम आ गया। जब से घरवाली आ गयी है, उसी कमाई में उसकी रोटियाँ भी निकल आती हैं और आराम भी मिलता है। आख़िर आदमी आराम के लिए ही तो कमाता है। जब जान खपाकर भी आराम न मिला, तो ज़िन्दगी ही ग़ारत हो गयी। मैं तो कहता हूँ, तुम्हारी कमाई बढ़ जायगी भैया! जितनी देर में आलू और मटर उबालते हो, उतनी देर में दो-चार प्याले चाय बेच लोगे। अब चाय बारहों मास चलती है|
रात को लेटोगे तो घरवाली पांव दबाएगी। सारी थकान मिट जाएगी।
यह बात गोबर के मन में बैठ गई। जी उचाट हो गया। अब तो वह झुनिया को लाकर ही रहेगा। आलू चूल्हे पर चढ़े रह गए और उसने घर चलने की तैयारी कर दी, मगर याद आया कि होली आ रही है, इसलिए होली का सामान भी लेता चले। कृपण लोगों में उत्सवों पर दिल खोलकर खर्च करने की जो एक प्रवृत्ति होती है, वह उसमें भी सजग हो गई। आखिर इसी दिन के लिए तो कौड़ी-कौड़ी जोड़ रहा था। वह मां, बहनों और झुनिया सबके लिए एक-एक जोड़ी साड़ी ले जाएगा। होरी के लिए एक धोती और एक चादर। सोना के लिए तेल की शीशी ले जायगा, और एक जोड़ा चप्पल। रूपा के लिए एक जापानी गुड़िया और झुनिया के लिए एक पिटारी, जिसमें तेल, सिंदूर और आइना होगा। बच्चे के लिए टोप और फ्राक, जो बाजार में बना-बनाया मिलता है। उसने रुपये निकाले और बाजार चला। दोपहर तक सारी चीजें आ गईं। बिस्तर भी बंध गया, मुहल्ले वालों को खबर हो गई, गोबर घर जा रहा है। कई मर्द-औरतें उसे विदा करने आए। गोबर ने उन्हें अपना घर सौंपते हुए कहा-तुम्हीं लोगों पर छोड़े जाता हूं। भगवान् ने चाहा तो होली के दूसरे दिन लौटूंगा।
एक युवती ने मुस्कराकर कहा-मेहरिया को बिना लिए न आना, नहीं घर में न घुसने पाओगे।
दूसरी प्रौढ़ा ने शिक्षा दी-हां, और क्या, बहुत दिनों तक चूल्हा फूक चुके। ठिकाने से रोटी तो मिलेगी।
गोबर ने सबको राम-राम किया। हिंदू भी थे, मुसलमान भी थे, सभी में मित्रभाव था, सब एक-दूसरे के दुःख-दर्द के साथी थे। रोजा रखने वाले रोजा रखते थे। एकादशी रखने वाले एकादशी। कभी-कभी विनोद-भाव से एक-दूसरे पर छींटे भी उड़ा लेते थे। गोबर अलादीन की नमाज को उठा-बैठी कहता, अलादीन पीपल के नीचे स्थापित सैकड़ों छोटे-बड़े शिवलिंगों को बटखरे बनाता, लेकिन सांप्रदायिक द्वेष का नाम भी न था। गोबर घर जा रहा है। सब उसे हसी-खुशी विदा करना चाहते हैं।
इतने में भूरे इक्का लेकर आ गया। अभी दिन भर का धावा मारकर आया था। खबर मिली, गोबर जा रहा है। वैसे ही एक्का इधर फेर दिया। घोड़े ने आपत्ति की। उसे कई चाबुक लगाए। गोबर ने एक्के पर सामान रखा, एक्का बढ़ा। पहुंचाने वाले गली के मोड़ तक पहुंचाने आए, तब गोबर ने सबको राम-राम किया और एक्के पर बैठ गया।
सड़क पर एक्का सरपट दौड़ा जा रहा था। गोबर घर जाने की खुशी में मस्त था। भूरे उसे घर पहुंचाने की खुशी में मस्त था। और घोड़ा था पानीदार। उड़ चला जा रहा था। बात की बात में स्टेशन आ गया।
गोबर ने प्रसन्न होकर एक रुपया कमर से निकालकर भूरे की तरफ बढ़ाकर कहा-लो, घर वालों के लिए मिठाई लेते जाना।
भूरे ने कृतज्ञता-भरे तिरस्कार से उसकी ओर देखा तुम मुझे गैर समझते हो भैया। एक दिन जरा एक्के पर बैठ गए तो मैं तुमसे इनाम लूंगा। जहां तुम्हारा पसीना घिरे, वहां खून गिराने को तैयार हूं। इतना छोटा दिल नहीं पाया है। और ले भी तो घरवाली मुझे जीता न छोड़ेगी?
गोबर ने फिर कुछ न कहा। लज्जित होकर अपना असबाब उतारा और टिकट लेने चल दिया।