प्रेमचंद रचनावली ६/गोदान-२८

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गोदान  (1936) 
द्वारा प्रेमचंद

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प्रायश्चित के लिए व्याकुल हो रहा था। अब उसके जीवन का रूप बिलकुल दूसरा होगा, जिसमें कटुता की जगह मृदुता होगी, अभिमान की जगह नम्रता। उसे अब ज्ञात हुआ कि सेवा करने का अवसर बड़े सौभाग्य से मिलता है, और वह इस अवसर को कभी न भूलेगा।

अट्ठाईस

मिस्टर खन्ना को मजूरों की यह हड़ताल बिलकुल बेजा मालूम होती थी। उन्होंने हमेशा जनता के साथ मिले रहने की कोशिश की थी। वह अपने को जनता का ही आदमी समझते थे। पिछले कौमी आन्दोलन में उन्होंने बड़ा जोश दिखाया था। जिले के प्रमुख नेता रहे थे, दो बार जेल गए थे और कई हजार का नुक़सान उठाया था। अब भी वह मजूरों की शिकायतें सुनने को तैयार रहते थे, लेकिन यह तो नहीं हो सकता कि वह शक्कर मिल के हिस्सेदारों के हित का विचार न करें। अपना स्वार्थ त्यागने को वह तैयार हो सकते थे, अगर उनकी ऊँची मनोवृत्तियों को स्पर्श किया जाता, लेकिन हिस्सेदारों के स्वार्थ की रक्षा न करना, यह तो अधर्म था। यह तो व्यापार है, कोई सदाव्रत नहीं कि सब कुछ मजूरों को ही बांट दिया जाय। हिस्सेदारों को यह विश्वास दिलाकर रुपये लिए गए थे कि इस काम में पन्द्रह-बीस सैकड़े का लाभ है। अगर उन्हें दस सैकड़े भी न मिले, तो वे डायरेक्टरों को और विशेष कर मिस्टर खन्ना को धोखेबाज ही तो समझेंगे। फिर अपना वेतन वह कैसे कम कर सकते थे। और कम्पनियों को देखते उन्होंने अपना वेतन कम रखा था। केवल एक हजार रुपया महीना लेते थे। कुछ कमीशन भी मिल जाता था, मगर वह इतना लेते थे, तो मिल का संचालन भी करते थे। मजूर केवल हाथ से काम करते हैं। डायरेक्टर अपनी बुद्धि से, विद्या से, प्रतिभा से, प्रभाव से काम करता है। दोनों शक्तियों का मोल बराबर तो नहीं हो सकता। मजूरों को यह सन्तोष क्यों नहीं होता कि मन्दी का समय है, और चारों तरफ बेकारी फैली रहने के कारण आदमी सस्ते हो गए हैं। उन्हें तो एक की जगह पौन भी मिले, तो सन्तुष्ट रहना चाहिए था। और सच पूछो तो वे सन्तुष्ट हैं। उनका कोई कसूर नहीं। वे तो मूर्ख हैं, बछिया के ताऊ। शरारत तो ओंकारनाथ और मिर्जा खुर्शेद की है। यही लोग उन बेचारों को कठपुतली की तरह नचा रहे हैं, केवल थोड़े-से पैसे और यश के लोभ में पड़कर। यह नहीं सोचते कि उनकी दिल्लगी से कितने घर तबाह हो जाएंगे। ओंकारनाथ का पत्र नहीं चलता तो बेचारे खन्ना क्या करें। और आज उनके पत्र के एक लाख ग्राहक हो जायं, और उससे उन्हें पांच लाख का लाभ होने लगे, तो क्या वह केवल अपने गुजारे भर को लेकर शेष कार्यकर्ताओं में बांट देंगे? कहां की बात! और वह त्यागी मिर्जा खुर्शेद भी तो एक दिन लखपति थे। हजारों मजूर उनके नौकर थे। तो क्या वह अपने गुजारे-भर को लेकर सब कुछ मजूरों को बांट देते थे। वह उसी गुजारे की रकम में यूरोपियन छोकरियों के साथ विहार करते थे। बड़े-बड़े अफ़सरों के साथ दावतें उड़ाते थे, हज़ारों रुपए महीने की शराब पी जाते थे और हर-साल फ्रांस और स्वीटजरलैंड की सैर करते थे। आज मजूरों की दशा पर उनका कलेजा फटता है।

इन दोनों नेताओं की तो खन्ना को परवाह न थी। उनकी नियत की सफाई में पूरा संदेह था। न रायसाहब की ही उन्हें परवाह थी, जो हमेशा खन्ना की हां-में-हां मिलाया करते थे और
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उनके हर-एक काम का समर्थन कर दिया करते थे। अपने परिचितों में केवल एक ही ऐसा व्यक्ति था, जिसके निष्पक्ष विचार पर खन्ना जी को पूरा भरोसा था और वह डाक्टर मेहता थे। जब से उन्होंने मालती से घनिष्ठता बढ़ानी शुरू की थी, खन्ना की नजरों में उनकी इज्जत बहुत कम हो गई थी। मालती बरसों खन्ना की हृदयेश्वरी रह चुकी थी, पर उसे उन्होंने सदैव खिलौना समझा था। इसमें सन्देह नहीं कि वह खिलौना उन्हें बहुत प्रिय था। उसके खो जाने, या टूट जाने, या छिन जाने पर वह खूब रोते, और वह रोए थे, लेकिन थी वह खिलौना ही। उन्हें कभी मालती पर विश्वास न हुआ। वह कभी उनके ऊपरी विलास-आवरण को छेदकर उनके अन्तःकरण तक न पहुंच सकी थी। वह अगर खुद खन्ना से विवाह का प्रस्ताव करती, तो वह स्वीकार न करते। कोई बहाना करके टाल देते। अन्य कितने ही प्राणियों की भांति खन्ना का जीवन भी दोहरा या दो-रुखी था। एक ओर वह त्याग और जन-सेवा और उपकार के भक्त थे, तो दूसरी ओर स्वार्थ और विलास और प्रभुता के। कौन उनका असली रुख था, यह कहना कठिन है। कदाचित् उनकी आत्मा का उत्तम आधा सेवा और सहृदयता से बना हुआ था, मद्धिम आधा स्वार्थ और विलास से। पर उत्तम और मद्धिम में बराबर संघर्ष होता रहता था। और मद्धिम ही अपनी उद्दंडता और हठ के कारण सौम्य और शान्त उत्तम पर गालिब आता था। उनका मद्धिम मालती की ओर झुकता था, उत्तम मेहता की ओर, लेकिन वह उत्तम अब मद्धिम के साथ एक हो गया था। उनकी समझ में न आता था कि मेहता-जैसा आदर्शवादी व्यक्ति मालती-जैसी चंचल, विलासिनी रमणी पर कैसे आसक्त हो गया। वह बहुत प्रयास करने पर भी मेहता को वासनाओं का शिकार न स्थिर कर सकते थे और कभी-कभी उन्हें यह सन्देह भी होने लगता था कि मालती का कोई दूसरा रूप भी है, जिसे वह न देख सके या जिसे देखने की उनमें क्षमता न थी।

पक्ष और विपक्ष के सभी पहलुओं पर विचार करके उन्होंने यही नतीजा निकाला कि इस परिस्थिति में मेहता ही से उन्हें प्रकाश मिल सकता है।

डाक्टर मेहता को काम करने का नशा था। आधी रात को सोते थे और घड़ी रात रहे उठ जाते थे। कैसा भी काम हो, उसके लिए वह कहीं-न-कहीं से समय निकाल लेते थे। हाकी खेलना हो या यूनिवसिर्टी डिबेट, ग्राम्य संगठन हो या किसी शादी का नैवेद्य, सभी कामों के लिए उनके पास लगन थी और समय था। वह पत्रों में लेख भी लिखते थे और कई साल से एक बृहत् दर्शन-ग्रन्थ लिख रहे थे, जो अब समाप्त होने वाला था। इस वक्त भी वह एक वैज्ञानिक खेल ही खेल रहे थे। अपने बागीचे में बैठे हुए पौधों पर विद्युत-संचार-क्रिया की परीक्षा कर रहे थे। उन्होंने हाल में एक विद्वान-परिषद् में यह सिद्ध किया था कि फसलें बिजली की जोर से बहुत थोड़े समय में पैदा की जा सकती हैं, उनकी पैदावार बढ़ाई जा सकती है और बेफसल की चीजें भी उपजाई जा सकती हैं। आज-कल सबेरे के दो-तीन घंटे वह इन्हीं परीक्षाओं में लगाया करते थे।

मिस्टर खन्ना की कथा सुनकर उन्होंने कठोर मुद्रा से उनकी ओर देखकर कहा-क्या यह जरूरी था कि डयूटी लग जाने से मजूरों का वेतन घटा दिया जाय? आपको सरकार से शिकायत करनी चाहिए थी। अगर सरकार ने नहीं सुना तो उसका दंड मजूरों को क्यों दिया जाय? क्या आपका विचार है कि मजूरों को इतनी मजूरी दी जाती है कि उसमें चौथाई कम कर देने से मजूरों को कष्ट नहीं होगा। आपके मजूर बिलों में रहते हैं-गन्दे, बदबूदार बिलों में-जहाँ आप एक मिनट भी रह जायं, तो आपको कै हो जाय। कपड़े जो पहनते हैं, उनसे आप अपने जूते भी न पोछेंगे। खाना जो वह खाते हैं, वह आपका कुत्ता भी न खाएगा। मैंने उनके जीवन में भाग लिया है। आप उनकी रोटियां छीनकर अपने हिस्सेदारों का पेट भरना चाहते हैं....
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खन्ना ने अधीर होकर कहा-लेकिन हमारे सभी हिस्सेदार तो धनी नहीं हैं। कितनों ही ने अपना सर्वस्व इसी मिल की भेंट कर दिया है और इसके नफे के सिवा उनके जीवन का कोई आधार नहीं है।

मेहता ने इस भाव से जवाब दिया, जैसे इस दलील का उनकी नजरों में कोई मूल्य नहीं है-जो आदमी किसी व्यापार में हिस्सा लेता है, वह इतना दरिद्र नहीं होता कि उसके नफे ही का जीवन का आधार समझे। हो सकता है। कि नफा कम मिलने पर उसे अपना एक नौकर कम कर देना पड़े या उसके मक्खन और फलों का बिल कम हो जाय, लेकिन वह नंगा या भूखा न रहेगा। जो अपनी जान खपाते हैं, उनका हक उन लोगों से ज्यादा है, जो केवल रुपया लगाते हैं।

यही बात पडत ओंकारनाथ ने कही थी। मिर्जा खुर्शेद ने भी यही सलाह दी थी। यहां तक कि गोविन्दी ने भी मजूरों ही का पक्ष लिया था, पर खन्नाजी ने उन लोगों की परवा न की थी, लेकिन मेहता के मुंह से वही बात सुनकर वह प्रभावित हो गए। ओंकारनाथ को वह स्वार्थी समझते थे, मिर्जा खुर्शेद को गैरजिम्मेदार और गोविन्दी को अयोग्य। मेहता की बात में चरित्र अध्ययन और सद्भाव की शक्ति थी।

सहसा मेहता ने पूछा-आपने अपनी देवीजी से भी इस विषय में राय ली?

खन्ना ने सकुचाते हुए कहा-हां पूछा था।

'उनकी क्या राय थी?'

'वही जो आपकी है।'

'यही आशा थी। और आप उस विदुषी को अयोग्य समझते हैं। उसी वक्त मालती आ पहुंची और खन्ना को देखकर बोली-अच्छा आप विराज रहे हैं? मैंने मेहताजी को आज दावत की है। सभी चीजें अपने हाथ से पकाई हैं। आपको भी नेवता देती हूं। गोविन्दी देवी में आपका यह अपराध क्षमा करा दूंगी।

खन्ना को कौतूहल हुआ। अब मालती अपने हाथों से खाना पकाने लगी है? मालती, वही मालती, जो खुद कभी अपने जूते न पहनती थी, जो खुद कभी बिजली का बटन नहीं दबाती थी, विलास और विनोद ही जिसका जीवन था।

मुस्कराकर कहा-अगर आपने पकाया है तो जरूर खाऊंगा। मैं तो कभी सोच ही न सकता था कि आप पाक-कला में भी निपुण हैं।

मालती नि:संकोच भाव से बोली-इन्होंने मार मारकर वैद्य बना दिया। इनका कासे टाल देती? पुरुष देवता ठहरे।

खन्ना ने इस व्यंग्य का आनंद लेकर मेहता की ओर आंखें मारते हुए कहा-पुरुष तो आपके लिए इतने सम्मान की वस्तु न थी।

मालती झेंपी नहीं। इस संकेत का आशय समझकर जोश-भरे स्वर में बोली-लेकिन अब हो गई हूं, इसलिए कि मैंने पुरुष का जो रूप अपने परिचितों की परिधि में देखा था, उससे यह कहीं सुंदर है। पुरुष इतना सुंदर, इतना कोमल हृदय....

मेहता ने मालती की ओर दीन-भाव से देखा और बोले-नहीं मालती, मुझ पर दया करो, नहीं मैं यहां से भाग जाऊंगा।

इन दिनों जो कोई मालती से मिलता वह उससे मेहता की तारीफों के पुल बांध देती, जैसे कोई नवदीक्षित अपने नए विश्वासों का ढिंढोरा पीटता फिरे। सुरुचि का ध्यान भी उसे न
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रहता और बेचारे मेहता दिल में कटकर रह जाते थे। वह कड़ी और कड़वी आलोचना तो बड़े शौक से सुनते थे, लेकिन अपनी तारीफ सुनकर जैसे बेवकूफ बन जाते थे, मुंह जरा-सा निकल आता था, जैसे कोई फबती कसी गई हो। और मालती उन औरतों में न थी, जो भीतर रह सके। वह बाहर ही रह सकती थी, पहले भी और अब भी, व्यवहार में भी विचार में भी। मन में कुछ रखना वह न जानती थी। जैसे एक अच्छी साड़ी पाकर वह उसे पहनने के लिए अधीर हो जाती थी, उसी तरह मन में कोई सुंदर भाव आए, तो वह उसे प्रकट किए बिना चैन न पाती थी।

मालती ने और समीप आकर उनकी पीठ पर हाथ रखकर मानो उनकी रक्षा करते हुए कहा-अच्छा भागो नहीं, अब कुछ न कहूंगी। मालूम होता है, तुम्हें अपनी निंदा ज्यादा पसंद है। तो निंदा ही सुनो-खन्नाजी, यह महाशय मुझ पर अपने प्रेम का जाल....

शक्कर-मिल की चिमनी यहां से साफ नजर आती थी। खन्ना ने उसकी तरफ देखा। वह चिमनी खन्ना के कीर्ति स्तंभ की भांति आकाश में सिर उठाए खड़ी थी। खन्ना की आंखों में अभिमान चमक उठा। इसी वक्त उन्हें मिल के दफ्तर में जाना है। वहां डायरेक्टरों की एक अर्जेंट मीटिंग करनी होगी और इस परिस्थिति को उन्हें समझाना होगा और इस समस्या को हल करने का उपाय भी बतलाना होगा।

मगर चिमनी के पास यह धुआं कहां से उठ रहा है? देखते-देखते सारा आकाश बैलून की भांति धुएं से भर गया। सबों ने सशंक होकर उधर देखा। कहीं आग तो नहीं लग गई? आग ही मालूम होती है।

सहसा सामने सड़क पर हजारों आदमी मिल की तरफ दौड़े जाते नजर आए। खन्ना ने खड़े होकर जोर से पूछा-तुम लोग कहां दौड़े जा रहे हो?

एक आदमी ने रुककर कहा-अजी, शक्कर-मिल में आग लग गई। आप देख नहीं रहे हैं।

खन्ना ने मेहता की ओर देखा और मेहता ने खन्ना की ओर। मालती दौड़ी हुई बंगले में गई और अपने जूते पहन आई। अफसोस और शिकायत करने का अवसर न था। किसी के मुंह से एक बात न निकली। खतरे में हमारी चेतना अंतर्मुखी हो जाती है। खन्ना की कार खड़ी ही थी। तीनों आदमी घबराए हुए आकर बैठे और मिल की तरफ भागे। चौरास्ते कर पहुंचे तो देखा, सारा शहर मिल की ओर उमड़ा चला आ रहा है। आग में आदमियों को खींचने का जादू है, कार आगे न बढ़ सकी।

मेहता ने पूछा-आग-बीमा तो करा लिया था न।

खन्ना ने लंबी सांस खींचकर कहा-कहां भाई, अभी तो लिखा-पढ़ी हो रही थी। क्या जानता था, यह आफत आने वाली है।

कार वहीं राम-आसरे छोड़ दी गई और तीनों आदमी भी चीरते हुए मिल के सामने जा पहुंचे। देखा तो अग्नि का एक सागर आकाश में उमड़ रहा था। अग्नि की उन्मत्त लहरें एक पर-एक, दांत पीसती थीं, जीभ लपलपाती थीं, जैसे आकाश को भी निगल जायंगी। उस अग्नि समुद्र के नीचे ऐसा धुआं छाया था, मानो सावन की घटा कालिख में नहाकर नीचे उतर आई हो। उसके ऊपर से आग का थरथराता हुआ, उबलता हुआ हिमाचल खड़ा था। हाते में लाखों आदमियों की भीड़ थी, पुलिस भी थी, फायर ब्रिगेड भी, सेवा समितियों के सेवक भी, पर सब-के-सब आग की भीषणता से मानो शिथिल हो गए हों। फायर ब्रिगेड के छींटे उस अग्नि-
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सागर में जाकर जैसे बुझ जाते थे। ईंटें जल रही थीं, लोहे के गार्डर जल रहे थे और पिघली हुई शक्कर के परनाले चारों तरफ बह रहे थे। और तो और जमीन से भी ज्वाला निकल रही थी।

दूर से तो मेहता और खन्ना को यह आश्चर्य हो रहा था कि इतने आदमी खड़े तमाशा क्यों देख रहे हैं, आग बुझाने में मदद क्यों नहीं करते, मगर अब इन्हें भी ज्ञात हुआ कि तमाशा देखने के सिवा और कुछ करना अपने वश से बाहर है। मिल की दीवारों से पचास गज के अंदर जाना जान-जोखिम था। ईंट और पत्थर के टुकड़े चटक-चटाक टूटकर उछल रहे थे। कभी-कभी हवा का रुख इधर हो जाता था, तो भगदड़ पड़ जाती थी।

ये तीनों आदमी भीड़ के पीछे खड़े थे। कुछ समझ में न आता था, क्या करें। आखिर आग लगी कैसे है और इतनी जल्द फैल कैसे गई। क्या पहले किसी ने देखा ही नहीं? या देखकर भी बुझाने का प्रयास न किया? इस तरह के प्रश्न सभी के मन में उठ रहे थे, मगर वहां पूछे किससे, मिल के कर्मचारी होंगे तो जरूर, लेकिन उस भीड़ में उनका पता मिलना कठिन था।

सहसा हवा का इतना तेज झोंका आया कि आग की लपटें नीची होकर इधर लपकीं, जैसे समुद्र में ज्वार आ गया हो। लोग सिर पर पांव रखकर भागे। एक-दूसरे पर गिरते, रेलते जैसे कोई शेर झपटा आता हो। अग्नि-ज्वालाएं जैसे सजीव हो गई थीं, सचेष्ट भी, जैसे कोई शेषनाग अपने सहस्र मुख से आग फुंकार रहा हो। कितने ही आदमी तो इस रेले में कुचल गए। खन्ना मुंह के बल गिर पड़े, मालती को मेहताजी दोनों हाथों से पकड़े हुए थे, नहीं जरूर कुचल गई होती? तीनों आदमी हाते की दीवार के पास एक इमली के पेड़ के नीचे आकर रुके। खन्ना एक प्रकार की चेतना-शून्य तन्मयता से मिल की चिमनी की ओर टकटकी लगाए खड़े थे।

मेहता ने पूछा-आपको ज्यादा चोट तो नहीं आई?

खन्ना ने कोई जवाब न दिया। उसी तरफ ताकते रहे। उनकी आंखों में वह शून्यता थी जो विक्षिप्तता का लक्षण है।

मेहता ने उनका हाथ पकड़कर फिर पूछा-हम लोग यहां व्यर्थ खड़े हैं। मुझे भय होता है, आपको चोट ज्यादा आ गई है। आइए, लौट चलें।

खन्ना ने उनकी तरफ देखा और जैसे सनककर बोले-जिनकी यह हरकत है, उन्हें मैं खूब जानता हूं। अगर उन्हें इसी में संतोष मिलता है, तो भगवान् उनका भला करें। मुझे कुछ परवा नहीं, कुछ पवा नहीं। कुछ परवाह नहीं। मैं आज चाहूं, तो ऐसी नई मिल खड़ी कर सकता हूं। जी हां, बिल्कुल नई मिल खड़ी कर सकता हूं। ये लोग मुझे क्या समझते हैं? मिल ने मुझे नहीं बनाया, मैंने मिल को बनाया और मैं फिर बना सकता हूं, मगर जिनकी यह हरकत है, उन्हें मैं खाक में मिला दूंगा। मुझे सब मालूम है, रत्ती-रती मालूम है।

मेहता ने उनका चेहरा और उनकी चेष्टा देखी और घबराकर बोले-चलिए, आपको घर पहुंचा हूं। आपकी तबीयत अच्छी नहीं है।

खन्ना ने कहकहा मारकर कहा-मेरी तबीयत अच्छी नहीं है। इसलिए कि मिल जल गई। ऐसी मिलें मैं चुटकियों में खोल सकता हूं। मेरा नाम खन्ना है, चंद्रप्रकाश खन्ना। मैंने अपना सब कुछ इस मिल में लगा दिया। पहली मिल में हमने बीस प्रतिशत नफा दिया। मैंने प्रोत्साहित होकर यह मिल खोली। इसमें आये रुपये मेरे हैं। मैंने बैंक के दो लाख इस मिल में लगा दिए। मैं एक घंटा नहीं, आधा घंटा पहले दस लाख का आदमी था। जी हां, दस, मगर इस वक्त फाकेमस्त हूं-नहीं दिवालिया हूं। मुझे बैंक को दो लाख देना है। जिस मकान में रहता हूं, वह अब मेरा नहीं है। जिस [ २६७ ]
बर्तन में खाता हूं, वह भी अब मेरा नहीं। बैंक से मैं निकाल दिया जाऊंगा। जिस खन्ना को देखकर लोग जलते थे, वह खन्ना अब धूल में मिल गया है। समाज में अब मेरा कोई स्थान नहीं है, मेरे मित्र मुझे अपने विश्वास का पात्र नहीं, दया का पात्र समझेंगे। मेरे शत्रु मुझसे जलेंगे नहीं, मुझ पर हंसेंगे। आप नहीं जानते मिस्टर मेहता, मैंने अपने सिद्धांतों की कितनी हत्या की है। कितनी रिश्वतें दी हैं, कितनी रिश्वतें ली हैं। किसानों की ऊख तौलने के लिए कैसे आदमी रखे, कैसे नकली बाट रखे। क्या कीजिएगा, यह सब सुनकर, लेकिन खन्ना अपनी यह दुर्दशा कराने के लिए क्यों जिंदा रहे? जो कुछ होना है हो, दुनिया जितना चाहे हंसे, मित्र लोग जितना चाहें अफसोस करें, लोग जितनी गालियां देना चाहें, दें। खन्ना अपनी आंखों से देखने और अपने कानों से सुनने के लिए जीता न रहेगा। वह बेहया नहीं है, बेगैरत नहीं है।

यह कहते-कहते खन्ना दोनों हाथों से सिर पीटकर जोर-जोर से रोने लगे।

मेहता ने उन्हें छाती से लगाकर दुखित स्वर में कहा-खन्नाजी, जरा धीरज से काम लीजिए। आप समझदार होकर दिल इतना छोटा करते हैं। दौलत से आदमी को जो सम्मान मिलता है, वह उसका सम्मान नहीं, उसकी दौलत का सम्मान है। आप निर्घन रहकर भी मित्रों के विश्वासपात्र रह सकते हैं और शत्रुओं के भी, बल्कि तब कोई आपका रहेगा ही नहीं। आइए, घर चलें। जरा आराम कर लेने से आपका चित्त शांत हो जाएगा।

खन्ना ने कोई जवाब न दिया। तीनों आदमी चौरास्ते पर आए। कार खड़ी थी। दस मिनट में खन्ना की कोठी पर पहुंच गए।

खन्ना ने उतरकर शांत स्वर में कहा-कार आप ले जायं। अब मुझे इसकी जरूरत नहीं है।

मालती और मेहता भी उतर पड़े। मालती ने कहा-तुम चलकर आराम से लेटो, हम बैठे गप-शप करेंगे। घर जाने की तो ऐसी कोई जल्दी नहीं है।

खन्ना ने कृतज्ञता से उसकी ओर देखा और करुण-कंठ से बोले-मुझसे जो अपराध, हुए हैं, उन्हें क्षमा कर देना मालती। तुम और मेहता, बस तुम्हारे सिवा संसार में मेरा कोई नहीं है। मुझे आशा है, तुम मुझे अपनी नजरों से न गिराओगी। शायद दस-पांच दिन में यह कोठी भी छोड़नी पड़े। किस्मत ने कैसा धोखा दिया।

मेहता ने कहा-मैं आपसे सच कहता हूं खन्नाजी, आज मेरी नजरों में आपकी जो इज्जत है, वह कभी न थी।

तीनों आदमी कमरे में दाखिल हुए। द्वार खुलने की आहट पाते ही गोविन्दी भीतर से आकर बोली-क्या आप लोग वहीं से आ रहे हैं? महराज तो बड़ी बुरी खबर लाया है।

खन्ना के मन में ऐसा प्रबल, न रुकने वाला, तूफानी आवेग उठा कि गोविन्दी के चरणों पर गिर पड़े और उन्हें आंसुओं से धो दें। भारी गले से बोले-हां प्रिये, हम तबाह हो गए।

उनकी निर्जीव, निराश आहत आत्मा सांत्वना के लिए विकल हो रही थी, सच्ची स्नेह में डूबी हुई सांत्वना के लिए-उस रोगी की भांति, जो जीवन-सूत्र क्षीण हो जाने पर भी वैद्य के मुख की ओर आशा भरी आंखों से ताक रहा हो। वह गोविन्दी जिस पर उन्होंने हमेशा जुल्म किया, जिसका हमेश अपमान किया, जिससे हमेशा बेवफाई की, जिसे सदैव जीवन का भार समझा, जिसकी मृत्यु की सदैव कामना करते रहे, वही इस समय जैसे अंचल में आशीर्वाद और मंगल और अभय लिए उन पर वार रही थी, जैसे उन चरणों में ही उसके जीवन का स्वर्ग हो, जैसे वह उनके अभागे मस्तक पर हाथ रखकर ही उनकी प्राणहीन धमनियों में फिर रक्त का संचार [ २६८ ]
कर देगी। मन की इस दुर्बल दशा में, घोर विपत्ति में, मानो वह उन्हें कंठ से लगा लेने के लिए खड़ी थी। नौका पर बैठे हुए जल-विहार करते समय हम जिन चट्टानों को घातक समझते हैं, और चाहते हैं कि कोई इन्हें खोदकर फेंक देता, उन्हीं से, नौका टूट जाने पर, हम चिमट जाते हैं।

गोविन्दी ने उन्हें एक सोफा पर बैठा दिया और स्नेह-कोमल स्वर में बोली-तो तुम इतना दिल छोटा क्यों करते हो? धन के लिए, जो सारे पापों की जड़ है। उस धन से हमें क्या सुख था? सबेरे से आधीरात तक एक-न-एक इंझट-आत्मा का सर्वनाश! लड़के तुमसे बात करने को तरस जाते थे, तुम्हें संबंधियों को पत्र लिखने तक की फुर्सत न मिलती थी। क्या बड़ी इज्जत थी? हां, थी, क्योंकि दुनिया आजकल धन की पूजा करती है और हमेशा करती चली आई है। उसे तुमसे कोई प्रयोजन नहीं। जब तक तुम्हारे पास लक्ष्मी है, तुम्हारे सामने पूंछ हिलाएगी। कल उतनी ही भक्ति से दूसरों के द्वार पर सिजदे करेगी। तुम्हारी तरफ ताकेगी भी नहीं। सत्पुरुष धन के आगे सिर नहीं झुकाते। वह देखते हैं, तुम क्या हो, अगर तुममें सच्चाई है, न्याय है, त्याग है, पुरुषार्थ है, तो वे तुम्हारी पूजा करेंगे। नहीं तुम्हें समाज का लुटेरा समझकर मुंह फेर लेंगे, बल्कि तुम्हारे दुश्मन हो जाएंगे। मैं गलत तो नहीं कहती मेहताजी?

मेहता ने मानों स्वर्ग-स्वप्न से चौंककर कहा-गलत? आप वही कह रही हैं, जो संसार के महान् पुरुषों ने जीवन का तात्विक अनुभल करने के बाद कहा है। जीवन का सच्चा आधार यही है।

गोविन्दी ने मेहता को संबोधित करके कहा-धनी कौन होता है, इसका कोई विचार नहीं करता। वही जो अपने कौशल से दूसरों को बेवकूफ बना सकता है....

खन्ना ने बात काटकर कहा-नहीं गोविन्दी, धन कमाने के लिए अपने में संस्कार चाहिए। केवल कौशल से धन नहीं मिलता। इसके लिए भी त्याग और तपस्या करनी पड़ती है। शायद इतनी साधना में ईश्वर भी मिल जाय। हमारी सारी आत्मिक और बौद्धिक और शारीरिक शक्तियों के सामंजस्य का नाम धन है।

गोविन्दी ने विपक्षी न बनकर मध्यस्थ भाव से कहा-मैं मानती हूं कि धन के लिए थोड़ी तपस्या नहीं करनी पड़ती, लेकिन फिर भी हमने उसे जीवन में जितने महत्व की वस्तु समझ रखा है, उतना महत्त्व उसमें नहीं है। मैं तो खुश हूं कि तुम्हारे सिर से यह बोझ टला। अब तुम्हारे लड़के आदमी होंगे, स्वार्थ और अभिमान के पुतले नहीं। जीवन का सुख दूसरों को सुखी करने में हैं, उनको लूटने में नहीं । बुरा न मानना, तब तुम्हारे जीवन का अर्थ था आत्मसेवा, भोग और विलास। दैव ने तुम्हें उस साधन से वचित करके तुम्हारे ज्यादा ऊंचे और पवित्र जीवन का रास्ता खोल दिया है। यह सिद्धि प्राप्त करने में अगर कुछ कष्ट भी हो, तो उसका स्वागत करो। तुम इसे विपत्ति समझते ही क्यों हो? क्यों नहीं समझते, तुम्हें अन्याय से लड़ने का अवसर मिला है। मेरे विचार में तो पीड़क होने से पीड़ित होना कहीं श्रेष्ठ है। धन खोकर अगर हम अपनी आत्मा को पा सकें, तो यह कोई मंहगा सौदा नहीं है। न्याय के सैनिक बनकर लड़ने में जो गौरव, जो उल्लास है, क्या उसे इतनी जल्द भूल गए?

गोविन्दी के पीले, सूखे मुख पर तेज की ऐसी चमक थी, मानो उसमें कोई विलक्षण शक्ति आ गई हो, मानो उसकी सारी मूक साघना प्रगल्भ हो उठी हो।

मेहता उसकी ओर भक्तिपूर्ण नेत्रों से ताक रहे थे, खन्ना सिर झुकाए इसे दैवी प्रेरणा समझने की चेष्टा कर रहे थे और मालती मन में लज्जित थी। गोविन्दी के विचार इतने ऊंचे उसका हृदय इतना विशाल और उसका जीवन इतना उज्ज्वल है।