प्रेमचंद रचनावली ६/गोदान-३४

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गोदान  (1936) 
द्वारा प्रेमचंद

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एक नया जन्म ले रहा है।

उन्होंने मालती के चरण दोनों हाथों से पकड़ लिए और कांपते हुए स्वर में बोले-तुम्हारा आदेश स्वीकार है मालती।

और दोनों एकांत होकर प्रगाढ़ आलिंगन में बंध गए। दोनों की आंखों से आंसुओं की धारा बह रही थी।


चौंतीस


सिलिया का बालक अब दो साल का हो रहा था और सारे गांव में दौड़ लगाता था। अपने साथ वह एक विचित्र भाषा लाया था, और उसी में बोलता था, चाहे कोई समझे या न समझे। उसकी भाषा में ट, ल और घ की कसरत थी और स, र आदि वर्ण गायब थे। उस भाषा में रोटी का नाम था ओटी, दूध का तूत, साग का छाग और कौड़ी का तौली। जानवरों की बोलियों की ऐसी नकल करता है कि हंसते-हंसते लोगों के पेट में बल पड़ जाता है। किसी ने पूछा-रामू कुत्ता कैसे बोलता है? रामू गंभीर भाव से कहता भों-भों और काटने दौड़ता। बिल्ली कैसे बोले? और रामू म्यांव-म्यांव करके आंखें निकालकर ताकता और पंजों से नोचता। बड़ा मस्त लड़का था। जब देखो खेलने में मगन रहता, न खाने की सुधि थी, न पीने की। गोद से उसे चिढ़ थी।

उसके सबसे सुख के क्षण वह होते, जब द्वार पर नीम के नीचे मनों धूल बटोरकर उसमें लोटता, सिर पर चढ़ाता, उसकी ढेरियां लगाता, घरौंदे बनाता। अपनी उम्र के लड़कों से उसकी एक क्षण न पटती। शायद उन्हें अपने साथ खेलने के योग्य न समझता था।

कोई पूछता-तुम्हारा नाम क्या है?

चटपट कहता-लामू।

'तुम्हारे बाप का क्या नाम है?'

'मातादीन।'

'और तुम्हारी मां का?'

'छिलिया।'

'और दातादीन कौन है?'

'वह अमाला छाला है।'

न जाने किसने दातादीन से उसका यह नाता बता दिया था।

रामू और रूपा में खूब पटती थी। वह रूपा का खिलौना था। उसे उबटन मलती, काजल लगाती, नहलाती, बाल संवारती, अपने हाथों कौर बना-बनाकर खिलाती, और कभी-कभी उसे गोद में लिए रात को सो जाती। धनिया डांटती, तू सब कुछ छुआछूत किए देती है, मगर वह किसी की न सुनती। चीथड़े की गुड़ियों ने उसे माता बनना सिखाया था। वह मातृ-भावना जीता-जागता बालक पाकर अब गुड़ियों से संतुष्ट न हो सकती थी।

होरी के घर के पिछवाड़े जहां किसी जमाने में उसकी बरदौर थी, उसी के खंडहर में सिलिया अपना एक फूस का झोंपड़ा डालकर रहने लगी थी। होरी के घर में उम्र तो नहीं कट [ ३१२ ]
सकती थी।

मातादीन को कई सौ रुपये खर्च करने के बाद अंत में काशी के पंडितों ने फिर से ब्राह्मण बना दिया था। उस दिन बड़ा भारी होम हुआ, बहुत-से ब्राह्मणों ने भोजन किया और बहुत से मंत्र और श्लोक पढ़े गए। मातादीन को शुद्ध गोबर और गोमूत्र खाना-पीना पड़ा। गोबर से उसका मन पवित्र हो गया। मूत्र से उसकी आत्मा में अशुचिता के कीटाणु मर गए।

लेकिन एक तरह से इस प्रायश्चित ने उसे सचमुच पवित्र कर दिया। होम के प्रचंड अग्निकुंड में उसकी मानवता निखर गई और होम की ज्वाला के प्रकाश से उसने धर्म-स्तंभों को अच्छी तरह परख लिया। उस दिन से उसे धर्म के नाम से चिढ़ हो गई। उसने जनेऊ उतार फेंका और पुरोहिती को गंगा में डुबा आया। अब वह पक्का खेतिहर था। उसने यह भी देखा कि यद्यपि विद्वानों ने उसका ब्राह्मणत्व स्वीकार कर लिया, लेकिन जनता अब भी उसके हाथ का पानी नहीं पीती, उससे मुहूर्त पूछती है, साइत और लग्न का विचार करवाती है, उसे पर्व के दिन दान भी दे देती है, पर उससे अपने बरतन नहीं छुलाती।

जिस दिन सिलिया के बालक का जन्म हुआ, उसने दूनी मात्रा में भंग पी, और गर्व से जैसे उसकी छाती तन गई और उंगलियां बार-बार मूंछों पर पड़ने लगीं। बच्चा कैसा होगा? उसी के जैसा? कैसे देखें? उसका मन मसोसकर रह गया।

तीसरे दिन उसे रूपा खेत में मिली। उसने पूछा-रुपिया, सिलिया का लड़का देखा?

रुपिया बोली-देखा क्यों नहीं। लाल-लाल है, खूब मोटा, बड़ी-बड़ी आंखें हैं, सिर में झबराले बाल हैं, टुकुर-टुकुर ताकता है।

मातादीन के हृदय में जैसे वह बालक आ बैठा था, और हाथ-पांव फेंक रहा था। उसकी आंखों में नशा-सा छा गया। उसने उस किशोरी रूपा को गोद में उठा लिया, फिर कंधे पर बिठा लिया, फिर उतारकर उसके कपोलों को चूम लिया।

रूपा बाल संभालती हुई ढीठ होकर बोली-चलो मैं तुमको दूर से दिखा दूं। ओसारे में ही तो है। सिलिया बहन न जाने क्यों हरदम रोती रहती है।

मातादीन ने मुंह फेर लिया। उसकी आंखें सजल हो आई थीं और होंठ कांप रहे थे।

उस रात को जब सारा गांव सो गया और पेड़ अंधकार में डूब गए, तो वह सिलिया के द्वार पर आया और संपूर्ण प्राणों से बालक का रोना सुना, जिसमें सारी दुनिया का संगीत, आनंद और माधुर्य भरा हुआ था।

सिलिया बच्चे को होरी के घर में खटोले पर सुलाकर मजूरी करने चली जाती। मातादीन किसी-न-किसी बहाने से होरी के घर आता और कनखियों से बच्चे को देखकर अपना कलेजा और आंखें और प्राण शीतल करता।

धनिया मुस्कराकर कहती-लजाते क्यों हो, गोद में ले लो, प्यार करो, कैसा काठ का कलेजा है तुम्हारा। बिल्कुल तुमको पड़ा है।

मातादीन एक-दो रुपये सिलिया के लिए फेंककर बाहर निकल आता। बालक के साथ उसकी आत्मा भी बढ़ रही थी, खिल रही थी, चमक रही थी। अब उसके जीवन का भी एक उद्देश्य था, एक व्रत था। उसमें संयम आ गया, गंभीरता आ गई, दायित्व आ गया।

एक दिन रामू खटोले पर लेटा हुआ था। धनिया कहीं गई थी। रूपा भी लड़कों का शोर सुनकर खेलने चली गई। घर अकेला था। उसी वक्त मातादीन पहुंचा। बालक नीले आकाश [ ३१३ ]
की ओर देख-देख हाथ-पांव फेंक रहा था, हुमक रहा था-जीवन के उस उल्लास के साथ जो अभी उसमें ताजा था। मातादीन को देखकर वह हंस पड़ा। मातादीन स्नेह-विह्वल हो गया। उसने बालक को उठाकर छाती से लगा लिया। उसकी सारी देह और हृदय और प्राण रोमांचित हो उठे, मानो पानी की लहरों में प्रकाश की रेखाएं कांप रही हों। बच्चे की गहरी, निर्मल, अथाह, मोद-भरी आंखों में जैसे उसको जीवन का सत्य मिल गया। उसे एक प्रकार का भय-सा लगा, मानो वह दृष्टि उसके हृदय में चुभी जाती हो-वह कितना अपवित्र है, ईश्वर का वह प्रसाद कैसे छू सकता है? उसने बालक को सशंक मन के साथ फिर लिटा दिया। उसी वक्त रूपा बाहर से आ गई और वह बाहर निकल गया।

एक दिन खूब ओले गिरे। सिलिया घास लेकर बाजार गई हुई थी। रूपा अपने खेल में मगन थी। रामू अब बैठने लगा था। कुछ-कुछ बकवां चलने भी लगा था। उसने जो आंगन में बिनौले बिछे देखे, तो समझा बताशे फैले हुए हैं। कई उठाकर खाए और आंगन में खूब खेला। रात को उसे ज्वर आ गया। दूसरे दिन निमोनिया हो गया। तीसरे दिन संध्या समय सिलिया की गोद में ही बालक के प्राण निकल गए।

लेकिन बालक मरकर भी सिलिया के जीवन का केंद्र बना रहा। उसकी छाती में दूध का उबाल-सा आता और आंचल भीग जाता। उसी क्षण आंखों से आंसू भी निकल पड़ते। पहले सब कामों से छुट्टी पाकर रात को जब वह रामू को हिए से लगाकर स्तन उसके मुंह में दे देती तो मानो उसके प्राणों में बालक की स्फूर्ति भर जाती। तब वह प्यारे-प्यारे गीत गाती, मीठे-मीठे स्वप्न देखती और नए-नए संसार रचती, जिसका राजा रामू होता। अब सब कामों से छुट्टी पाकर वह अपनी सूनी झोंपड़ी में रोती थी और उसके प्राण तड़पते थे, उड़ जाने के लिए उस लोक में, जहां उसका लाल इस समय भी खेल रहा होगा। सारा गांव उसके दुःख में शरीक था। रामू कितना चोंचाल था, जो कोई बुलाता, उसी की गोद में चला जाता। मरकर और पहुंच से बाहर होकर वह और भी प्रिय हो गया था, उसकी छाया उससे कहीं सुंदर, कहीं चोंचाल, कहीं लुभावनी थी।

मातादीन उस दिन खुल पड़ा। परदा होता है हवा के लिए। आंधी में परदे उठाके रख दिए जाते हैं कि आंधी के साथ उड़ न जायं। उसने शव को दोनों हथेलियों पर उठा लिया और अकेला नदी के किनारे तक ले गया, जो एक मील का पाट छोड़कर पहली-सी धार में समा गई थी। आठ दिन तक उसके हाथ सीधे न हो सके। उस दिन वह जरा भी नहीं लजाया, जरा भी नहीं झिझका।

और किसी ने कुछ कहा भी नहीं, बल्कि सभी ने उसके साहस और दृढ़ता की तारीफ की।

होरी ने कहा यही मरद का धरम है, जिसकी बांह पकड़ी, उसे क्या छोड़ना।

धनिया ने आंखें नचाकर कहा-मत बखान करो, जी जलता है। यह मरद है? मैं ऐसे मरद को नामरद कहती हूं। जब बांह पकड़ी थी, तब क्या दूध पीता था कि सिलिया बांभनी हो गई थी?

एक महीना बीत गया। सिलिया फिर मजूरी करने लगी थी। संध्या हो गई थी। पूर्णमासी का चांद विहंसता-सा निकल आया था। सिलिया ने कटे हुए खेत में से गिरे हुए जौ के बाल चुनकर टोकरी में रख लिए थे और घर जाना चाहती थी कि चांद पर निगाह पड़ गई और दर्द[ ३१४ ]
भरी स्मृतियों का मानो स्रोत खुल गया। आंचल दूध से भीग गया और मुख आंसुओं से। उसने सिर लटका लिया और जैसे रुदन का आनंद लेने लगी।

सहसा किसी की आहट पाकर वह चौंक पड़ी। मातादीन पीछे से आकर सामने खड़ा हो गया और बोला-कब तक रोए जायगी सिलिया? रोने से वह फिर तो न आ जायगा।

और यह कहते-कहते वह खुद रो पड़ा।

सिलिया के कंठ में आए हुए भर्त्सना के शब्द पिघल गए। आवाज संभालकर बोली-तुम आज इधर कैसे आ गए?

मातादीन कातर होकर बोला-इधर से जा रहा था। तुझे बैठा देखा, चला आया।

'तुम तो उसे खेला भी न पाए।'

'नहीं सिलिया, एक दिन खेलाया था।'

'सच?'

'सच।'

'मैं कहां थी?'

'तू बाजार गई थी?'

'तुम्हारी गोद में रोया नहीं?'

'नहीं सिलिया, हंसता था।'

'सच?'

'सच।'

'बस, एक ही दिन खेलाया?'

'हां, एक ही दिन, मगर देखने रोज आता था। उसे खटोले पर खेलते देखता था और दिल थामकर चला जाता था।'

'तुम्हीं को पड़ा था।'

'मुझे तो पछतावा होता है कि नाहक उस दिन उसे गोद में लिया। यह मेरे पापों का दंड है।'

सिलिया की आंखों में क्षमा झलक रही थी। उसने टोकरी सिर पर रख ली और घर चली। मातादीन भी उसके साथ-साथ चला।

सिलिया ने कहा-मैं तो अब धनिया काकी के बरौठे में सोती हूं। अपने घर में अच्छा नहीं लगता।

'धनिया मुझे बराबर समझाती रहती थी।'

'सच?'

'हां सच। जब मिलती थी, समझाने लगती थी।'

गांव के समीप आकर सिलिया ने कहा-अच्छा, अब इधर से अपने घर जाओ। कहीं पंडित देख न लें।

मातादीन ने गर्दन उठाकर कहा-मैं अब किसी से नहीं डरता।

'घर से निकाल देंगे तो कहां जाओगे?'

'मैंने अपना घर बना लिया है।'

'सच?' [ ३१५ ]'हां, सच।'

'कहां, मैंने तो नहीं देखा।'

'चल तो दिखाता हूं।'

दोनों और आगे बढ़े। मातादीन आगे था। सिलिया पीछे। होरी का घर आ गया। मातादीन उसके पिछवाड़े जाकर सिलिया की झोंपड़ी के द्वार पर खड़ा हो गया और बोला-यही मेरा घर है।

सिलिया ने अविश्वास, क्षमा, व्यंग और दु:ख भरे स्वर में कहा-यह तो सिलिया चमारिन का घर है।

मातादीन ने द्वार की टाटी खोलते हुए कहा-यह मेरी देवी का मंदिर है।

सिलिया की आंखें चमकने लगीं। बोली-मंदिर है तो एक लोटा पानी उंडे़लकर चले जाओगे।

मातादीन ने उसके सिर की टोकरी उतारते हुए कंपित स्वर में कहा-नहीं सिलिया, जब तक प्राण है, तेरी शरण में रहूंगा। तेरी ही पूजा करूंगा।

'झूठ कहते हो।'

'नहीं, मैं तेरे चरण छूकर कहता हूं। सुना, पटवारी का लौंडा भुनेसरी तेरे पीछे बहुत पड़ा था। तूने उसे खूब डांटा।'

'तुमसे किसने कहा?'

'भुनेसरी आप ही कहता था।'

'सच?'

'हां, सच।'

सिलिया ने दियासलाई से कुप्पी जलाई। एक किनारे मिट्टी का घड़ा था, दूसरी ओर चूल्हा था, जहां दो-तीन पीतल और लोहे के बासन मंजे-धुले रखे थे। बीच में पुआल बिछा था। वहीं सिलिया का बिस्तर था। इस बिस्तर के सिरहाने की ओर रामू की छोटी-सी खटोली जैसे रो रही थी, और उसी के पास दो-तीन मिट्टी के हाथी-घोड़े अंग-भंग दशा में पड़े हुए थे। जब स्वामी ही न रहा तो कौन उनकी देखभाल करता? मातादीन पुआल पर बैठ गया। कलेजे में हूक-सी उठ रही थी, जी चाहता था, खूब रोए।

सिलिया ने उसकी पीठ पर हाथ रखकर पूछा-तुम्हें कभी मेरी याद आती थी?

मातादीन ने उसका हाथ पकड़कर हृदय से लगाकर कहा-तू हरदम मेरी आंखों के सामने फिरती रहती थी। तू भी कभी मुझे याद करती थी।

'मेरा तो तुमसे जी जलता था।'

'और दया नहीं आती थी?'

'कभी नहीं।'

'तो भुनेसरी...'

'अच्छा, गाली मत दो। मैं डर रही हूं कि गांव वाले क्या कहेंगे।'

'जो भले आदमी हैं, वह कहेंगे, यही इसका धरम था। जो बुरे हैं, उनकी मैं परवा नहीं करता।'

'और तुम्हारा खाना कौन पकाएगा?' [ ३१६ ]'मेरी रानी, सिलिया।'

'तो बांभन कैसे रहोगे?'

'मैं बांभन नहीं, चमार ही रहना चाहता हूं। जो अपना धरम पाले, वही बांभन है, जो धर्म से मुंह मोड़े, वही चमार है।'

सिलिया ने उसके गले में बाहें डाल दीं।

पैंतीस


होरी की दशा दिन-दिन गिरती ही जाती थी। जीवन के संघर्ष में उसे सदैव हार हुई, पर उसने कभी हिम्मत नहीं हारी। प्रत्येक हार जैसे उसे भाग्य से लड़ने की शक्ति दे देती थी, मगर अब वह उस अंतिम दशा को पहुंच गया था, जब उसमें आत्मविश्वास भी न रहा था। अगर वह अपने धर्म पर अटल रह सकता, तो भी कुछ आंसू पुंछते, मगर वह बात न थी। उसने नीयत भी बिगाड़ अधर्म भी कमाया, कोई ऐसी बुराई न थी, जिसमें वह पड़ा न हो, पर जीवन की कोई अभिलाषा न पूरी हुई, और भले दिन मृगतृष्णा की भांति दूर ही होते चले गए। यहां तक कि अब उसे, धोखा भी न रह गया था, झूठी आशा की हरियाली और चमक भी अब नजर न आती थी।

हारे हुए महीप की भांति उसने अपने को इस तीन बीघे के किले में बंद कर लिया था। और उसे प्राणों की तरह बचा रहा था। फाके सहे, बदनाम हुआ, मजूरी की, पर किले को हाथ से न जाने दिया, मगर अब वह किला भी हाथ से निकला जाता था। तीन साल से लगान बाकी पड़ा हुआ था और अब पंडित नोखेराम ने उस पर बेदखली का दावा कर दिया था। कहीं से रुपये मिलने की आशा न थी। जमीन उसके हाथ से निकल जाएगी और उसके जीवन के बाकी दिन मजूरी करने में कटेंगे। भगवान् की इच्छा। रायसाहब को क्या दोष दें? असामियों ही से उनका भी गुजर है। इसी गांव पर आधे से ज्यादा घरों पर बेदखली आ रही है, आवे। औरों की जो दशा होगी, वही उसकी भी होगी। भाग्य में सुख बदा होता, तो लड़का यों हाथ से निकल जाता?

सांझ हो गई थी। वह इसी चिंता में डूबा बैठा था कि पंडित दातादीन ने आकर कहा-क्या हुआ होरी, तुम्हारी बेदखली के बारे में? इन दिनों नोखेराम से मेरी बोलचाल बंद है। कुछ पता नहीं। सुना, तारीख को पंद्रह दिन और रह गए हैं।

होरी ने उनके लिए खाट डालकर कहा-वह मालिक हैं, जो चाहे करें, मेरे पास रुपये होते तो यह दुर्दसा क्यों होती। खाया नहीं, उड़ाया नहीं, लेकिन उपज ही न हो और जो हो भी वह कौड़ियों के मोल बिके, तो किसान क्या करे?

'लेकिन जैजात तो बचानी ही पड़ेगी। निबाह कैसे होगा? बाप-दादों की इतनी ही निशानी बच रही है। वह निकल गई, तो कहां रहोगे?'

'भगवान् की मरजी है, मेरा क्या बस?'

'एक उपाय है, जो तुम करो।'

होरी को जैसे अभय-दान मिल गया। उनके पांव पकड़कर बोला-बड़ा धरम होगा महराज, तुम्हारे सिवा मेरा कौन है? मैं तो निरास हो गया था।