प्रेमचंद रचनावली ६/गोदान-३६

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गोदान  (1936) 
द्वारा प्रेमचंद

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कितना प्राण रह गया है-कितना जख्मों से चूर, कितना ठोकरों से कुचला हुआ? उससे पूछो, कभी तूने विश्राम के दर्शन किए, कभी तू छांह में बैठा? उस पर यह अपमान। और वह अब भी जीता है, कायर, लोभी, अधम। उसका सारा विश्वास जो अगाध होकर स्थूल और अंधा हो गया था, मानो टूक-टूक उड़ गया है।

दातादीन ने कहा-तो मैं जाता हूं। न हो, तुम इसी बखत नोखेराम के पास चले जाओ।

होरी दीनता से बोला-चला जाऊंगा महराज। मगर मेरी इज्जत तुम्हारे हाथ है।


छत्तीस


दो दिन तक गांव में खूब धूमधाम रही। बाजे बजे, गाना-बजाना हुआ और रूपा रो-धोकर बिदा हो गई, मगर होरी को किसी ने घर से निकलते न देखा। ऐसा छिपा बैठा था, जैसे मुंह में कालिख लगी हो। मालती के आ जाने से चहल-पहल और बढ़ गई। दूसरे गांव की स्त्रियां भी आ गईं।

गोबर ने अपने शील-स्नेह से सारे गांव को मुग्ध कर लिया है। ऐसा कोई घर न था, जहां वह अपने मीठे व्यवहार की याद न छोड़ आया हो। भोला तो उसके पैरों पर गिर पड़े। उनकी स्त्री ने उसको पान खिलाए और एक रुपया बिदाई दी और उसका लखनऊ का पता भी पूछा। कभी लखनऊ आएगी तो उससे जरूर मिलेगी। अपने रुपये की उससे कोई चर्चा न की।

तीसरे दिन जब गोबर चलने लगा तो होरी ने धनिया के सामने आंखों में आंसू भरकर वह अपराध स्वीकार किया, जो कई दिन से उसकी आत्मा को मथ रहा था, और रोकर बोला-बेटा, मैंने इस जमीन के मोह से पाप की गठरी सिर पर लादी। न जाने भगवान् मुझे इसका क्या दंड देंगे।

गोबर जरा भी गर्म न हुआ, किसी प्रकार का रोष उसके मुंह पर न था। श्रद्धाभाव से बोला-इसमें अपराध की कोई बात नहीं है दादा। हां, रामसेवक के रुपये अदा कर देना चाहिए। आखिर तुम क्या करते? मैं किसी लायक नहीं, तुम्हारा खेती में उपज नहीं करज कहीं मिल नहीं सकता, एक महीने के लिए भी घर में भोजन नहीं। ऐसी दसा में तुम और कर ही क्या सकते थे? जात न बचाते तो रहते कहां? जब आदमी का कोई बस नहीं चलता, तो अपने को तकदीर पर ही छोड़ देता है। न जाने यह धांधली कब तक चलती रहेगी? जिसे पेट की रोटी मयस्सर नहीं, उसके लिए मरजाद और इज्जत सब ढोंग है। औरों की तरह तुमने भी दूसरों का गला दबाया होता, उनकी जमा मारी होती, तो तुम भी भले आदमी होते। तुमने कभी नीति को नहीं छोड़ा, यह उसी का दंड है। तुम्हारी जगह मैं होता, या तो जेहल में होता या फांसी पा गया होता। मुझसे यह कभी बरदास न होता कि मैं कमा-कमाकर सबका घर भरूं और आप अपने बाल-बच्चों के साथ मुंह में जाली लगाए बैठा रहूं।

धनिया बहू को उसके साथ भेजने को राजी न हुई। झुनिया का मन भी अभी कुछ दिन यहां रहने का था। तय हुआ कि गोबर अकेला ही जाय।

दूसरे दिन प्रातःकाल गोबर सबसे विदा होकर लखनऊ चला। होरी उसे गांव के बाहर तक पहुंचाने आया। गोबर के प्रति इतना प्रेम उसे कभी न हुआ था। जब गोबर उसके चरणों [ ३२४ ]
पर झुका, तो होरी रो पड़ा, मानो फिर उसे पुत्र के दर्शन न होंगे। उसकी आत्मा में उल्लास था, गर्व था, संकल्प था। पुत्र से यह श्रद्धा और स्नेह पाकर वह तेजवान हो गया है, विशाल हो गया है। कई दिन पहले उस पर जो अवसाद-सा छा गया था, एक अंधकार-सा, जहां वह अपना मार्ग भूला जाता था, वहां अब उत्साह है और प्रकाश है।

रूपा अपनी ससुराल में खुश थी। जिस दशा में उसका बालपन बीता था, उसमें पैसा सबसे कीमती चीज था। मन में कितनी साधे थीं जो मन ही में घुट-घुटकर रह गई थीं। वह अब उन्हें पूरा कर रही थी और रामसेवक अधेड़ होकर भी जवान हो गया था। रूपा के लिए वह पति था, उसके जवान, अधेड़ या बूढ़े होने से उसकी नारी-भावना में कोई अंतर न आ सकता था। उसकी यह भावना पति के रंग-रूप या उम्र पर आश्रित न थी, उसकी बुनियाद इससे बहुत गहरी थी, शाश्वत परंपराओं की तह में, जो केवल किसी भूकंप से ही हिल सकती थी। उसका यौवन अपने ही में मस्त था, वह अपने ही लिए अपना बनाव-सिंगार करती थी और आप ही खुश होती थी। रामसेवक के लिए उसका दूसरा रूप था। तब वह गृहिणी बन जाती थी, घर के काम-काज में लगी हुई। अपनी जवानी दिखाकर उसे लज्जा या चिंता में न डालना चाहता थी। किसी तरह की अपूर्णता का भाव उसके मन में न आता था। अनाज से भरे हुए बखार और गांव की सिवान तक फैले हुए खेत और द्वार पर ढोरों की कतारें और किसी प्रकार की अपूर्णता को उसके अंदर आने ही न देती थीं।

और उसकी सबसे बड़ी अभिलाषा थी अपने घर वालों को खुश देखना। उनकी गरीबी कैसे दूर कर दे? उस गाय की याद अभी तक उसके दिल में हरी थी, जो मेहमान की तरह आई थी और सबको रोता छोड़कर चली गई थी। वह स्मृति इतने दिनों के बाद और भी मृदु हो गई थी। अभी उसका निजत्व इस नए घर में न जम पाया था। वही पुराना घर उसका अपना घर था। वहीं के लोग अपने आत्मीय थे, उन्हीं का दुःख उसका दु:ख और उन्हीं का सुख उसका सुख था। इस द्वार पर ढोरों का एक रेवड़ देखकर उसे वह हर्ष न हो सकता था, जो अपने द्वार पर एक गाय देखकर होता। उसके दादा की यह लालसा कभी पूरी न हुई थी। जिस दिन वह गाय आई थी, उन्हें कितना उछाह हुआ था। जैसे आकाश से कोई देवी आ गई हो। तब से फिर उन्हें इतनी समाई ही न हुई कि दूसरी गाय लाते, पर वह जानती थी, आज भी वह लालसा होरी के मन में उतनी ही सजग है। अबकी वह जायगी, तो साथ वह धौरी गाय जरूर लेती जायगी। नहीं, अपने आदमी के हाथ क्यों न भेजवा दे। रामसेवक से पूछने की देर थी। मंजूरी हो गई और दूसरे दिन एक अहीर के मारफत रूपा ने गाय भेज दी। अहीर से कहा, दादा से कह देना मंगल के दूध पीने के लिए भेजी है। होरी भी गाय लेने की फिक्र में था। यों अभी उसे गाय की कोई जल्दी न थी, मगर मंगल यहीं है और वह बिना दूध के कैसे रह सकता है। रुपये भेजते ही वह सबसे पहले गाय लेगा। मंगल अब केवल उसका पोता नहीं है, केवल गोबर का बेटा नहीं है, मालती देवी का खिलौना भी है। उसका लालन-पालन उसी तरह का होना चाहिए।

मगर रुपये कहां से आए? संयोग से उसी दिन एक ठीकेदार ने सड़क के लिए गांव के ऊसर में कंकड़ की खुदाई शुरू की। होरी ने सुना तो चट-पट वहां जा पहुंचा, और आठ आने रोज पर खुदाई करने लगा, अगर यह काम दो महीने भी टिक गया तो गाय भर को रुपए मिल जायंगे। दिन-भर लू और धूप में काम करने के बाद वह घर आता, तो बिल्कुल मरा हुआ, लेकिन अवसाद का नाम नहीं। उसी उत्साह से दूसरे दिन फिर काम करने जाता। रात को भी खाना [ ३२५ ]
खाकर ढिबरी के सामने बैठ जाता और सुतली कातता। कहीं बारह-एक बजे सोने जाता। धनिया भी पगला गई थी, उसे इतनी मेहनत करने से रोकने के बदले खुद उसके साथ बैठी-बैठी सुतली कातती। गाय तो लेनी ही है, रामसेवक के रुपये भी तो अदा करने हैं। गोबर कह गया है। उसे बड़ी चिंता है।

रात के बारह बज गए थे। दोनों बैठे सुतली कात रहे थे। धनिया ने कहा-तुम्हें नींद आती हो तो जाके सो रहो। भोरे फिर तो काम करना है।

होरी ने आसमान की ओर देखा-चला जाऊंगा। अभी तो दस बजे होंगे। तू जा, सो रह।

'मैं तो दोपहर को छन-भर पौढ़ रहती हूं।'

'मैं भी चबेना करके पेड़ के नीचे सो लेता हूं।'

'बड़ी लू लगती होगी।'

'लू क्या लगेगी? अच्छी छांह है।'

'मैं डरती हूं, कहीं तुम बीमार न पड़ जाओ।'

'चल, बीमार वह पड़ते हैं, जिन्हें बीमार पड़ने की फुरसत होती है। यहां तो यह धुन है कि अबकी गोबर आय, तो रामसेवक के आधे रुपये जमा रहें। कुछ वह भी लायगा। बस, इस साल इस रिन से गला छूट जाय, तो दूसरी जिंदगी हो।'

'गोबर की अबकी बड़ी याद आती है, कितना सुशील हो गया है।'

'चलती बेर पैरों पर गिर पड़ा।'

'मंगल वहां से आया तो कितना तैयार था। यहां आकर कितना दुबला हो गया है।'

'वहां दूध, मक्खन, क्या नहीं पाता था? यहां रोटी मिल जाय, वही बहुत है। ठीकेदार से रुपये मिले और गाय लाया।'

'गाय तो कभी आ गई होती, लेकिन तुम जब कहना मानो। अपनी खेती तो संभाले न संभलती थी, पुनिया का भार भी अपने सिर ले लिया।'

'क्या करता, अपना धरम भी तो कुछ है। हीरा ने नालायकी की तो उसके बाल-बच्चों को संभालने वाला तो कोई चाहिए ही था। कौन था मेरे सिवा बता? मैं न मदद करता, तो आज उनकी क्या गति होती, सोच। इतना सब करने पर भी तो मंगरू ने उस पर नालिस कर ही दी।'

'रुपये गाड़कर रखेगी तो क्या नालिस न होगी?'

'क्या बकती है। खेती से पेट चल जाय, यही बहुत है। गाड़कर कोई क्या रखेगा।'

'हीरा तो जैसे संसार से ही चला गया।'

'मेरा मन तो कहता है कि वह आवेगा, कभी न कभी जरूर।'

दोनों सोए। होरी अंधेरे मुंह उठा तो देखता है कि हीरा सामने खड़ा है, बाल बढ़े हुए, कपड़े तार-तार, मुंह सूखा हुआ, देह में रक्त और मांस का नाम नहीं, जैसे कद भी छोटा हो गया है। दौड़कर होरी के कदमों पर गिर पड़ा।

होरी ने उसे छाती से लगाकर कहा-तुम तो बिल्कुल घुल गए हीरा! कब आए? आज तुम्हारी बार-बार याद आ रही थी। बीमार हो क्या?

आज उसकी आंखों में वह हीरा न था, जिसने उसकी जिंदगी तल्ख कर दी थी, बल्कि वह हीरा था, जो बे-मां-बाप का छोटा-सा बालक था। बीच के ये पच्चीस-तीस साल जैसे मिट गए, उनका कोई चिन्ह भी नहीं था। [ ३२६ ]

हीरा ने कुछ जवाब न दिया। खड़ा रो रहा था।

होरी ने उसका हाथ पकड़कर गद्गद कंठ से कहा-क्यों रोते हो भैया, आदमी से भूल-चूक होती ही है। कहां रहा इतने दिन?

हीरा कातर स्वर में बोला-कहां बताऊं दादा! बस यही समझ लो कि तुम्हारे दर्शन बदे थे, बच गया। हत्या सिर पर सवार थी। ऐसा लगता था कि वह गऊ मेरे सामने खड़ी है, हरदम, सोते-जागते, कभी आंखों से ओझल न होती। मैं पागल हो गया और पांच साल पागलखाने में रहा। आज वहां से निकले छ: महीने हुए। मांगता-खाता फिरता रहा। यहां आने की हिम्मत ही न पड़ती थी। संसार को कौन मुंह दिखाऊंगा? आखिर जी न माना। कलेजा मजबूत करके चला आया। तुमने बाल-बच्चों को...

होरी ने बात काटी-तुम नाहक भागे। अरे दारोगा को दस-पांच देकर मामला रफे-दफे करा दिया जाता और होता क्या?

'तुमसे जीते-जी उरिन न हूंगा दादा।'

'मैं कोई गैर थोड़े ही हूं भैया।'

होरी प्रसन्न था। जीवन के सारे संकट, सारी निराशाएं, मानो उसके चरणों पर लोट रही थीं। कौन कहता है, जीवन-संग्राम में वह हारा है। यह उल्लास, यह गर्व, यह पुलक क्या हार के लक्षण हैं? इन्हीं हारों में उसकी विजय है। उसके टूटे-फूटे अस्त्र उसकी विजय पताकाएं हैं। उसकी छाती फूल उठी है। मुख पर तेज आ गया है। हीरा की कृतज्ञता में उसके जीवन की सारी सफलता मूर्तिमान हो गई है। उसके बखार में सौ-दो सौ मन अनाज भरा होता, उसकी हांडी में हजार-पांच सौ गड़े होते, पर उससे यह स्वर्ग का सुख क्या मिल सकता था?

हीरा ने उसे सिर पर पांव तक देखकर कहा-तुम भी तो बहुत दुबले हो गए दादा।

होरी ने हंसकर कहा-तो क्या यह मेरे मोटे होने के दिन हैं? मोटे वह होते हैं, जिन्हें न रिन की सोच होती है, न इज्जत की। इस जमाने में मोटा होना बेहयाई है। सौ को दुबला करके तब एक मोटा होता है। ऐसे मोटेपन में क्या सुख? सुख तो जब है कि सभी मोटे हों, सोभा से भेंट हुई।

'उससे तो रात ही भेंट हो गई थी। तुमने तो अपनों को भी पाला, जो तुमसे बैर करते थे, उनको भी पाला और अपना मरजाद बनाए बैठे हो। उसने तो खेती-बारी सब बेच-बाच डाली और अब भगवान् ही जाने, उसका निबाह कैसे होगा?'

आज होरी खुदाई करने चला, तो देह भारी थी। रात की थकन दूर न हो पाई थी, पर उसके कदम तेज थे और चाल में निर्द्वंद्वता की अकड़ थी।

आज दस बजे ही से लू चलने लगी और दोपहर होते-होते तो आग बरस रही थी। होरी कंकड़ के झौवे उठा-उठाकर खदान से सड़क पर लाता था और गाड़ी पर लादता था। जब दोपहर की छुट्टी हुई, तो वह बेदम हो गया था। ऐसी थकन उसे कभी न हुई थी। उसके पांव तक न उठते थे। देह भीतर से झुलसी जा रही थी। उसने न स्नान ही किया न चबेना, उसी थकन में अपना अंगोछा बिछाकर एक पेड़ के नीचे सो रहा, मगर प्यास के मारे कंठ सूखा जाता है। खाली पेट पानी पीना ठीक नहीं। उसने प्यास को रोकने की चेष्टा की, लेकिन प्रतिक्षण भीतर की दाह बढ़ती जाती थी, न रहा गया। एक मजदूर ने बाल्टी भर रखी थी और चबेना कर रहा था। होरी ने उठकर एक लोटा पानी खींचकर पिया और फिर आकर लेट रहा, मगर आध घंटे में उसे [ ३२७ ]
कै हो गई और चेहरे पर मुर्दनी-सी छा गई।

उस मजदूर ने कहा—कैसा जी है होरी भैया?

होरी के सिर में चक्कर आ रहा था। बोला-कुछ नहीं, अच्छा हूं।

यह कहते-कहते उसे फिर कै हुई और हाथ-पांव ठंडे होने लगे। यह सिर में चक्कर क्यों आ रहा है? आंखों के सामने जैसे अंधेरा छाया जाता है। उसकी आंखें बंद हो गईं और जीवन की सारी स्मृतियां सजीव हो-होकर हृदय-पट पर आने लगीं, लेकिन बे-क्रम, आगे की पीछे, पीछे की आगे, स्वप्न-चित्रों की भांति बेमेल, विकृत और असंबद्ध, वह सुखद बालपन आया, जब वह गुल्लियां खेलता था और मां की गोद में सोता था। फिर देखा, जैसे गोबर आया है और उसके पैरों पर गिर रहा है। फिर दृश्य बदला, धनिया दुलहिन बनी हुई, लाल चुंदरी पहने उसको भोजन करा रही थी। फिर एक गाय का चित्र सामने आया, बिल्कुल कामधेनु-सी। उसने उसका दूध दुहा और मंगल को पिला रहा था कि गाय एक देवी बन गई और...

उसी मजदूर ने पुकारा-दोपहरी ढल गई होरी, चलो झौवा उठाओ।

होरी कुछ न बोला। उसके प्राण तो न जाने किस-किस लोक में उड़ रहे थे। उसकी देह जल रही थी, हाथ-पांव ठंडे हो रहे थे। लू लग गई थी।

उसके घर आदमी दौड़ाया गया। एक घंटा में धनिया दौड़ी हुई आ पहुंची। सोभा और हीरा पीछे पीछे खटोले की डोली बनाकर ला रहे थे।

धनिया ने होरी की देह छुई, तो उसका कलेजा सन् से हो गया। मुख कांतिहीन हो गया था। कांपती हुई आवाज से बोली-कैसा जी है तुम्हारा?

होरी ने अस्थिर आंखों से देखा और बोला-तुम आ गए गोबर? मैंने मंगल के लिए गाय ले ली है। वह खड़ी है, देखो।

धनिया ने मौत की सूरत देखी थी। उसे पहचानती थी। उसे दबे पांव आते भी देखा था, आंधी की तरह आते भी देखा था। उसके सामने सास मरी, ससुर मरा, अपने दो बालक मरे, गांव के पचासों आदमी मरे। प्राण में एक धक्का-सा लगा। वह आधार जिस पर जीवन टिका हुआ था, जैसे खिसका जा रहा था, लेकिन नहीं, यह धैर्य का समय है। उसकी शंका निर्मूल है, लू लग गई है, उसी से अचेत हो गए हैं।

उमड़ते हुए आंसुओं को रोककर बोली-मेरी ओर देखो, मैं हूं, क्या मुझे नहीं पहचानते?

होरी की चेतना लौटी। मृत्यु समीप आ गई थी, आग दहकने वाली थी। धुआं शांत हो गया था। धनिया को दीन आखों से देखा, दोनों कोनों से आंसू की दो बूंदें ढलक पड़ीं। क्षीण स्वर में बोला-मेरा कहा-सुना माफ करना धनिया। अब जाता हूं। गाय की लालसा मन में ही रह गई। अब तो यहां के रुपये करिया-करम में जायंगे। रो मत धनिया, अब कब तक जिलाएगी? सब दुर्दसा तो हो गई। अब मरने दे।

और उसकी आंखें फिर बंद हो गईं। उसी वक्त हीरा और सोभा डोली लेकर पहुंच गए। होरी को उठाकर डोली में लिटाया और गांव की ओर चले।

गांव में यह खबर हवा की तरह फैल गई। सारा गांव जमा हो गया। होरी खाट पर पड़ा शायद सब कुछ देखता था, सब कुछ समझता था, पर जबान बंद हो गई थी। हां, उसकी आंखों से बहते हुए आंसू बतला रहे थे, कि मोह का बंधन तोड़ना कितना कठिन हो रहा है। जो कुछ अपने से नहीं बन पड़ा, उसी के दु:ख का नाम तो मोह है। पाले हुए कर्तव्य और निपटाए हुए [ ३२८ ]
कामों का क्या मोह। मोह तो उन अनाथों को छोड़ जाने में है, जिनके साथ हम अपना कर्तव्य न निभा सके, उन अधूरे मंसूबों में है, जिन्हें हम पूरा न कर सके।

मगर सब कुछ समझकर भी धनिया आशा की मिटती हुई छाया को पकड़े हुए थी। आंखों से आंसू गिर रहे थे, मगर यंत्र की भांति दौड़-दौड़कर कभी आम भूनकर पना बनाती, कभी होरी की देह में भूसी की मालिश करती। क्या करे, पैसे नहीं हैं, नहीं किसी को भेजकर डाक्टर बुलाती।

हीरा ने रोते हुए कहा-भाभी दिल कड़ा करो। गो-दान करा दो, दादा चले।

धनिया ने उसकी ओर तिरस्कार की आंखों से देखा। अब वह दिल को और कितना कठोर करे? अपने पति के प्रति उसका जो धर्म, क्या यह उसको बताना पड़ेगा? जो जीवन का संगी था, उसके नाम को रोना ही क्या उसका धर्म है?

और कई आवाजें आई-हां, गो-दान करा दो, अब यही समय है।

धनिया यंत्र की भांति उठी, आज जो सुतली बेची थी, उसके बीस आने पैसे लाई और पति के ठंडे हाथ में रखकर सामने खड़े मातादीन से बोली-महराज, घर में न गाय है, न बछिया, न पैसा। यही पैसे हैं, यही इनका गो-दान है।

और पछाड खाकर गिर पड़ी।

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