प्रेमचंद रचनावली (खण्ड ५)/गबन/आठ

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प्रेमचंद रचनावली ५  (1936) 
द्वारा प्रेमचंद

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है, उसे भी पूरा कर दिखाएगा। इन कमीनी चालों से वह अलग ही रहना चाहते थे। ऐसे कुत्सित कार्य में पुत्र से साठ-गांठ करना उनकी अंतरात्मा को किसी तरह स्वीकार न था। पूछो-इसे क्यों उठा लाए?

रमा ने धृष्टता से कहा-आप ही का तो हुक्म था।

दयानाथ-झूठ कहते हो।

रमानाथ-तो क्या फिर रख आऊं?

रमा के इस प्रश्न ने दयानाथ को घोर संकट में डाल दिया। झेंपते हुए बोले–अब क्या रख आओगे,कहीं देख ले,तो गजब ही हो जाए। वही काम करोगे,जिसमें जग-हंसाई हो। खड़े क्या हो,संदूकची मेरे बड़े संदूक में रख आओ और जाकर लेट रहो। कहीं जाग पड़े तो बस!

बरामदे के पीछे दयानाथ का कमरा था। उसमें एक देवदार का पुराना संदूक रखा थी रमा ने संदूकची उसके अंदर रख दी और बड़ी फुर्ती से ऊपर चला गया। छत पर पहुंचकर उसने आहट ली,जालपा पिछले पहर की सुखद निद्रा में मग्न थी।

रमा ज्योंही चारपाई पर बैठा,जालपा चौंक पड़ी और उससे चिमट गई। रमा ने पूछा-क्या है,तुम चौक क्यों पड़ीं?

जालपा ने इधर-उधर प्रसन्न नेत्रों से ताककर कहा-कुछ नहीं, एक स्वप्‍न देख रही थी। तुम बैठे क्यों हो,कितनी रात है अभी?

रमा ने लेटते हुए कहा-सबेरा हो रहा है,क्या स्‍वप्‍न देखती थीं?

जालपा–जैसे कोई चोर मेरे गहनों की संदूकची उठाए लिए जाता हो।

रमा का हृदय इतने जोर से धक-धक् करने लगा, मानो उस पर हथौड़े पड़ रहे हैं। खून सर्द हो गया। परंतु संदेह हुआ,कहीं इसने मुझे देख तो नहीं लिया। वह जोर से चिल्ला पड़ा-चोर! चोर!

नीचे बरामदे में दयानाथ भी चिल्ला उठे-चोर! चोर!

जालपा घबड़ाकर उठी। दौड़ी हुई कमरे में गई, झटके से आल्भा खोली। संदूकची वहां न थी? मूर्छित होकर गिर पड़ी।

आठ

सवेरा होते ही दयानाथ गहने लेकर सराफ के पास पहुंचे और हिसाब होने लगा। सराफ के पंद्रह सौ रु० आते थे; मगर वह केवल पंद्रह सौ रु के गहने लेकर संतुष्ट न हुआ। बिके हुए गहनों को वह बट्टे पर ही ले सकता था। बिकी हुई चीज कौन वापस लेता है। जाकड़ पर दिए होते, तो दूसरी बात थी। इन चीजों को तो सौदा हो चुका था। उसने कुछ ऐसी व्यापारिक सिद्धांत की बातें कीं, दयानाथ को कुछ ऐसा शिकंजे में कसा कि बेचारे को हां-हां करने के सिवा और कुछ न सूझा। दफ्तर का बाबू चतुर दुकानदार से क्या पेश पात ? पंद्रह सौ रु. में पच्चीस सौ रु० के गहने भी चले गए, ऊपर से पचास रु० और बाकी रह गए। इस बात पर पिता-पुत्र में कई दिन खूब वाद-विवाद हुआ। दोनों एक दूसरे को दोषी ठहराते रहे। कई दिन आपस में बोलचाल बंद [ २८ ]
रही, मगर इस चोरी का हाल गुप्त रखा गया। पुलिस को खबर हो जाती, तो भंडा फूट जाने का भय था। जालपा से यही कहा गया कि माल तो मिलेगी नहीं,व्यर्थ का झंझट भले ही होगा।जालपा ने भी सोचा,जब भाल ही न मिलेगा, तो रपट व्यर्थ क्यों की जाय।

जालपा को गहनों से जितना प्रेम था,उतना कदाचित् संसार की और किसी वस्तु से न था,और उसमें आश्चर्य की कौन-सी बात थी। जब वह तीन वर्ष की अबोध बालिका थी, उस वक्त उसके लिए सोने के चूड़े बनवाए गए थे। दादी जब उसे गोद में खिलाने लगती,तो गहनों की ही चर्चा करती-तेरा दूल्हा तेरे लिए बड़े सुंदर गहने लाएगा। ठुमक ठुमककर चलेगी।

जालपा पूछती-चांदी के होंगे कि सोने के, दादीजी?

दादी कहती–सोने के होंगे बेटी,चांदी के क्यों लाएगा? चांदी के लाए तो तुम उठाकर उसके मुंह पर पटक देना।

मानकी छेड़कर कहती-चांदी के तो लाएगा ही। सोने के उसे कहां मिले जाते हैं।

जालपा रोने लगती,इस बूढ़ी दादी,मानकी,घर की महरियां,पड़ोसिने और दीनदयाल-सबै हसते।उन लोगों के लिए यह विनोद का अशेष भांडार था।

बालिका जब ज़रा और बड़ी हुई,तो गुड़ियों के ब्याह करने लगी। लड़के की ओर से चढ़ावे जाते,दुलहिन को गहने पहनाती,डोली में बैठाकर विदा करती,कभी-कभी दुलहन गुड़िया अपने गुड़े दूल्हे से गहनों के लिए मान करती,गुड्‍डा बेचारा कहीं-न-कहीं से गहने लाकर स्त्री को प्रसन्न करता था।उन्हीं दिनों बिसाती ने उसे वह चन्द्रहार दिया,जो अब तक उसके पास सुरक्षित था।

जरा और बड़ी हुई तो बड़ी-बूढियों में बैठकर गहनों की बातें सुनने लगी।महिलाओं के उस छोटे-से संसार में इसके सिवा और कोई चर्चा ही न थी। किसने कौन-कौन गहने बनवाए, कितने दाम लगे,ठोस हैं या पोले,जड़ाऊ हैं या सादे,किस लड़की के विवाह में कितने गहने आए–इन्हीं महत्त्वपूर्ण विषयों पर नित्य आलोचना-प्रत्यालोचना,टीका-टिप्पणी होती रहती थी। कोई दूसरा विषय इतना रोचक,इतना ग्राह्य हो ही नहीं सकता था।

इस आभूषण-मंडित संसार में पली हुई जालपा का यह आभूषण-प्रेम स्वाभाविक ही था। महीने भर से ऊपर हो गया। उसकी दशा ज्यों-की-त्यों है। न कुछ ख़ाती-पीती है,न किसी से हंसती-बोलती है। खाट पर पड़ी हुई शून्य नेत्रों से शून्याकाश की ओर ताकती रहती है। सारा घर समझाकर हार गया,पड़ोसिने समझाकर हार गई, दीनदयाल आकर समझा गए,पर जालपा ने रोग-शय्या न छोड़ी। उसे अब घर में किसी पर विश्‍वास नहीं है,यहां तक कि रमा से भी उदासीन रहती है। वह समझती है,सारा घर मेरी उपेक्षा कर रहा है। सब-के-सब मेरे प्राण के ग्राहक हो रहे हैं। जब इनके पास इतना धन है,तो फिर मेरे गहने क्यों नहीं बनवाते? जिससे हम सबसे अधिक स्नेह रखते हैं,उसी पर सबसे अधिक रोष भी करते हैं। जालपा को सबसे अधिक क्रोध रमानाथ पर था। अगर यह अपने माता-पिता से जोर देकर कहते, तो कोई इनकी बात न टाल सकता, पर यह कुछ कहें भी? इनके मुंह में तो दही जमा हुआ है। मुझसे प्रेम होता, तो यों निश्चित न बैठे रहते। जब तक सारी चीजें न बनवा लेते,रात को नींद आती। मुंह देखे की मुहब्बत हैं,मां-बाप से कैसे कहें,जाएंगे तो अपनी ही ओर,मैं कौन हूं।

वह रमा से केवल खिंची ही न रहती थी, वह कभी कुछ पूछता तो दो-चार जली-कटी सुना देती।'बेचारा अपना-सा मुंह लेकर रह जाता | गरीब अपनी ही लगाई हुई आग में जला [ २९ ]
जाता था। अगर वह जानता कि उन डींगों का यह फल होगा,तो वह जबान पर मुहर लगा लेता। चिंता और ग्लानि उसके हृदय को कुचले डालती थी। कहां सुबह से शाम तक हंसी कहकहे,सैर-सपाटे में कटते थे,कहां अब नौकरी की तलाश में ठोकरें खाता फिरता था। सारी मस्ती गायब हो गई। बार-बार अपने पिता पर क्रोध आता,यह चाहते तो दो-चार महीने में सब रुपये अदा हो जाते,मगर इन्हें क्या फिक्र!मैं चाहे मर जाऊं पर यह अपनी टेक न छोड़ेंगे। उसके प्रेम से भरे हुए,निष्कपट हृदय में आग-सी सुलगती रहती थी। जालपा का मुरझाया हुआ मुख देखकर उसके मुंह से ठंडी सांस निकल जाती थी। वह सुखद् प्रेम-स्वप्‍न इतनी जल्द भंग हो गया,क्या वे दिन फिर कभी आएंगे? तीन हजार के गहने कैसे बनेंगे? अगर नौकर भी हुआ,तो ऐसा कौन-सा बड़ी ओहदा मिल जाएगा? तीन हजार तो शायद तीन जन्म में भी न जमा हों।वह कोई ऐसा उपाय सोच निकालना चाहता था, जिसमें वह जल्द-से-जल्द अतुल संपत्ति का स्वामी हो जाय। कहीं उसके नाम कोई लाटरी निकल आती ! फिर तो वह जालपा को आभूषणों से मढ़ देता। सबसे पहले चन्द्रहार बनवाता। उसमें हीरे जड़े होते। अगर इस वक्त उसे जाली नोट बनाना आ जाता तो अवश्य बनाकर चला देता। एक दिन वह शाम तक नौकरी की तलाश में मारा-मारा फिरता रहा। शतरंज की बदौलत उसका कितने ही अच्छे-अच्छे आदमियों से परिचय था,लेकिन वह संकोच और डर के कारण किसी से अपनी स्थिति प्रकट न कर सकता था। यह भी जानता था कि यह मान-सम्मान उसी वक्त तक है जब तक किसी के समाने मदद के लिए हाथ नहीं फैलाता। यह आन टूटी,फिर कोई बात भी न पूछेगा। कोई ऐसा भलामानुस न दीखता था,जो कुछ बिना कहे ही जान जाए,और उसे कोई अच्छी-सी जगह दिला दे। आज उसका चित्त बहुत खिन्‍न था। मित्रों पर ऐसा क्रोध आ रहा था कि एक-एक को फटकारे और आएं तो द्वार से दुत्कार दे। अब किसी ने शतरंज खेलने को बुलाया,तो ऐसी फटकार सुनाऊंगा कि यचा याद करें,मगर वह जरा गौर करता तो उसे मालूम हो जाता कि इस विषय में मित्रों का उतना दोष न था,जितना खुद उसका कोई ऐसा मित्र न था,जिससे उसने बढ़-बढ़कर बातें न की हों। यह उसकी आदत थी। घर की असली दशा को वह सदैव बदनामी की तरह छिपाता रहा। और यह उसी का फल था कि इतने मित्रों के होते हुए भी वह बेकार था। वह किसी से अपनी मनोव्यथा न कह सकता था और मनोव्यथा सांस की भाति अंदर घुटकर असह्य हो जाती है। घर में आकर मुंह लटकाए हुए बैठ गया।

जागेश्वरी ने पानी लाकर रख दिया और पूछा–आज तुम दिनभर कहां रहे? लो हाथ- मुंह धो डालो।

रमा ने लोटा उठाया ही था कि जालपा ने आकर उग्र भाव से कहा- मुझे मेरे घर पहुंचा दो,इसी वक्त।

रमा ने लोटा रख दिया और उसकी ओर इस तरह ताकने लगा,मानो उसकी बात समझ में न आई हो।

जागेश्वरी बोली-भला इस तरह कहीं बहू-बेटियां विदा होती हैं। कैसी बात कहती हो, बहू? जालपा-मैं उन बहू-बेटियों में नहीं हूं। मेरा जिस वक्त जो चाहेगा,जाऊंगी,जिस वक्त जी चाहेगा,आऊंगी। मुझे किसी का डर नहीं है। जब यहां कोई मेरी बात नहीं पूछता, तो मैं भी किसी को अपना नहीं समझती। सारे दिन अनाथों की तरह पड़ी रहती हैं। कोई झांकता तक [ ३० ]
नहीं। मैं चिड़िया नहीं हैं, जिसका पिंजड़ा दाना-पानी रखकर बंद कर दिया जाय। मैं भी आदमी हूं। अब इस घर में मैं क्षण-भर न रुकूंगी। अगर कोई मुझे भेजने न जायगा, तो अकेली चली जाऊंगी। राह में कोई भेड़िया नहीं बैठा है, जो मुझे उठा ले जाएगी और उठा भी ले जाए,तो क्या गम। यहां कौन-सा सुख भोग रही हूं।

रमा ने सावधान होकर कहा-आखिर कुछ मालूम भी तो हो, क्या बात हुई?

जालपा–बात कुछ नहीं हुई, अपनी जी है। यहां नहीं रहना चाहती।

रमानाथ-भला इस तरह जाओगी तो तुम्हारे घरवाले क्या कहेंगे, कुछ यह भी तो सोचो। जालपा–यह सब सोच चुकी हूं, और ज्यादा नहीं सोचना चाहती। मैं जाकर अपने कपड़े बांधती हूं और इसी गाड़ी से जाऊगी।

यह कहकर जालपा ऊपर चली गई। रमा भी पीछे-पीछे यह सोचता हुआ चला, इसे कैसे शांत करूं।

जालपा अपने कमरे में जाकर बिस्तर लपेटने लगी कि रमा ने उसका हाथ पकड़ लिया और बोला-तुम्हें मेरी कसम जो इस वक्त जाने का नाम लो।

जालपा ने त्योरी चढाकर कहा-तुम्हारी कसम की हमें कुछ परवा नहीं है।

उसने अपना हाथ छुड़ा लिया और फिर बिछावन लपेटने लगी। रमा खिसियाना-सा होकर एक किनारे खड़ा हो गया। जालपा ने बिस्तरबंद से बिस्तरे को बांधा और फिर अपने संदूक को साफ करने लगी। मगर अब उसमें वह पहले-सी तत्परता न थी, बार-बार संदूक बंद करती और खोलती। वर्षा बंद हो चुकी थी, केवल छत पर रुका हुआ पानी टपक रहा था। आखिर वह उसी बिस्तर के बंडल पर बैठ गई और बोली-तुमने मुझे कसम क्यों दिलाई।। रमा के हृदय में आशा की गुदगुदी हुई। बोला—इसके सिवा मेरे पास तुम्हें रोकने का और क्या साधन था?

जालपा-क्या तुम चाहते हो कि मैं यहीं घुट घुटकर मर जाऊँ? रमानाथ-तुम ऐसे मनहूस शब्द क्यों मुंह से निकालती हो? मैं तो चलने को तैयार हूं, न मानोगी तो पहुंचाना ही पड़ेगा। जाओ, मेरा ईश्वर मालिक हैं, मगर कम-से-कम बाबूजी और अम्मां से पूछ लो।

बुझती हुई आग में तेल पड़ गया। जालपा तड़पकर बोली-वह मेरे कौन होते हैं, जो उनसे पूछूं ? रमानाथ-कोई नहीं होते? जालपा-कोई नहीं । अगर कोई होते, तो मुझे यों न छोड़ देते। रुपये रखते हुए कोई अपने प्रियजनों का कष्ट नहीं देख सकता। ये लोग क्या मेरे आंसू न पोंछ सकते थे? मैं दिन-के दिन यहां पड़ी रहती हूं. कोई झूठों भी पूछता है? मुहल्ले की स्त्रियां मिलने आती हैं, कैसे मिलूं ? यह सूरत तो मुझसे नहीं दिखाई जाती। न कहीं आना न जाना, न किसी से बात न चीत, ऐसे कोई कै दिन रह सकता है? मुझे इन लोगों से अब कोई आशा नहीं रही। आख़िर दो लड़के और भी तो हैं, उनके लिए भी कुछ जोड़ेंगे कि तुम्हीं को दे दें।

रमा को बड़ी-बड़ी बातें करने का फिर अवसर मिला। वह खुश था कि इतने दिनों के [ ३१ ]
बाद आज उसे प्रसन्न करने का मौका तो मिला। बोला प्रिये, तम्हारा ख्याल बहुत ठीक है।

जरूर यही बात है। नहीं तो ढाई-तीन हजार उनके लिए क्या बड़ी बात थी? पचासों हजार बैंक में जमा हैं, दफ्तर तो केवल दिल बहलाने जाते हैं।

जालपा–मगर हैं मक्खीचूस पल्ले सिरे के।

रमानाथ- मक्खीचूस न होते, तो इतनी संपत्ति कहां से आती ।

जालपा-मुझे तो किसी की परवा नहीं है जी, हमारे घर किस बात की कमी है। दाल-रोटी वहां भी मिल जायेगी। दो-चार सखी-सहेलियां हैं, खेत-खलिहान हैं, बाग-बगीचे हैं, जी बहलता रहेगा।

रमानाथ-और मेरी क्या दशा होगी,जानती हो? घुट-घुटकर मर जाऊंगा। जब से चोरी हुई,मेरे दिल पर जैसी गुजरती है,वह दिल ही जानता है। अम्मां और बाबूजी से एक बार नहीं,लाखों बार कहा,जोर देकर कहा कि दो-चार चीजें तो बनवा ही दीजिए,पर किसी के कान पर जूं तक न रेंगी। न जाने क्यों मुझसे आंखें फेर लीं।

जालपा–जब तुम्हारी नौकरी कहीं लग जाय, तो मुझे बुला लेना।

रमानाथ–तलाश कर रहा हूं। बहुत जल्द मिलने वाली है। हजारों बड़े-बड़े आदमियों से मुलाकात है, नौकरी मिलते क्या देर लगती है, हां, जरा अच्छी जगह चाहता हूं।

जालपा–मैं इन लोगों का रुख समझती हूं। मैं भी यहां अब दावे के साथ रहूंगी। क्यों, किसी ने नौकरी के लिए कहते नहीं हो?

रमानाथ–शर्म आती है किसी से कहते हुए।

जालपा-इसमें शर्म की कौन-सी बात है ? कहते शर्म आती हो, तो ख़त लिख दो।

रमा उछल पड़ा, कितना सरल उपाय था और अभी तक यह सीधी-सी बात उसे न सूझी थी। बोला--हां, यह तुमने बहुत अच्छी तरकीब बतलाई। कल जरूर लिखूंगा।

जालपा-मुझे पहुंचाकर आना तो लिखना। कल ही थोड़े लौट आओगे।

रमानाथ- तो क्या तुम सचमुच जाओगी? तब मुझे नौकरी मिल चुकी और मैं खत लिख चुका | इस वियोग के दुःख में बैठकर रोऊंगा कि नौकरी ढूंदूंगा। नहीं, इस वक्त जाने का विचार छोड़ो। नहीं, सच कहता हूं, मैं कहीं भाग जाऊंगा। मकान का हाल देख चुका। तुम्हारे सिवा और कौन बैठा हुआ है, जिसके लिए यहां पड़ा सड़ा करू। हटो तो जरा मैं बिस्तर खोल दूं।

जालपा ने बिस्तर पर से जरा खिसककर कहा-मैं बहुत जल्द चली आऊंगी। तुम गए और मैं आई।

रमा ने बिस्तर खोलते हुए कहा-जी नहीं, माफ कीजिए, इस धोखे में नहीं आता। तुम्हें क्या, तुम तो सहेलियों के साथ विहार करोगी, मेरी खबर तक न लोगी, और यहां मेरी जान पर बन आवेगी। इस घर में फिर कैसे कदम रक्खा जायेगा।

जलपा ने एहसान जताते हुए कहा-आपने मेरा बंधा-बंधाया बिस्तर खोल दिया, नहीं तो आज कितने आनंद से घर पहुंच जाती। शहजादी सच कहती थी, मर्द बड़े टोनहे होते हैं। मैंने आज पक्का इरादा कर लिया था कि चाहे ब्रह्मा भी उतर आएं, पर मैं न मानूंगी। पर तुमने दो ही मिनट में मेरे सारे मनसूबे चौपट कर दिए। कल खत लिखना जरूर। बिना कुछ पैदा किए अब निर्वाह नहीं है। [ ३२ ]
रमानाथ-कल नहीं,मैं इसी वक्त जाकर दो-तीन चिट्ठियां लिखता हूं।

जालपा–पान तो खाते जाओ।

रमानाथ ने पान खाया और मर्दाने कमरे में आकर खत लिखने बैठे।

मगर फिर कुछ सोचकर उठ खड़े हुए और एक तरफ को चल दिए। स्त्री का सप्रेम आग्रह पुरुष से क्या नहीं करा सकता।

नौ

रमा के परिचितों में एक रमेश बाबू म्यूनिसिपल बोर्ड में हेड क्लर्क थे। उम्र तो चालीस के ऊपर थी; पर थे बड़े रसिक। शतरंज खेलने बैठ जाते, तो सवेरा कर देते। दफ्तर भी भूल जाते। न आगे नाथ न पीछे पगहा। जवानी में स्त्री मर गई थी, दूसरा विवाह नहीं किया। उस एकांत जीवन में सिवा विनोद के और क्या अवलंब था। चाहते तो हजारों के वारे-न्यारे करते, पर रिश्वत की कौड़ी भी हराम समझते थे। रमा से बड़ा स्नेह रखते थे। और कौन ऐसा निठल्ला था, जो रात-रात भर उनसे शतरंज खेलता। आज कई दिन से बेचारे बहुत व्याकुल हो रहे थे। शतरंज की एक बाजी भी न हुई। अखबार कहां तक पढ़ते। रमा इधर दो-एक बार आया अवश्य; पर बिसात पर न बैठा। रमेश बाबू ने मुहरे बिछा दिए। उसको पकड़कर बैठाया,पर वह बैठा नहीं। वह क्यों शतरंज खेलने लगा। बहू आई है,उसका मुंह देखेगा,उससे प्रेमालाप करेगा कि इस बूढे के साथ शतरंज खेलेगा! कई बार जी में आया, उसे बुलवाएं, पर यह सोचकर कि वह क्यों आने लगा, रह जाए। कहां जायं? सिनेमा ही देख आवें? किसी तरह समय तो कटे। सिनेमा से उन्हें बहुत प्रेम न था;पर इस वक्त उन्हें सिनेमा के सिवा और कुछ न सूझी। कपड़े पहने और जाना ही चाहते थे कि रमा ने कमरे में कदम रखा।

रमेश उसे देखते ही गेंद की तरह लुढ़ककर द्वार पर जा पहुंचे और उसका हाथ पकड़कर बोले-आइए,आइए बाबू रमानाथ साहब बहादुर ! तुम तो इस बुड्ढे को बिल्कुल भूल ही गए। हां भाई, अब क्यों आओगे? प्रेमिका की रसीली बातों का आनंद यहां कहां? चोरी का कुछ पता चला?

रमानाथ-कुछ भी नहीं।

रमेश–बहुत अच्छा हुआ, थाने में रपट नहीं लिखाई। नहीं सौ-दो सौ के मत्थे और जाते। बहू को तो बड़ा दु:ख हुआ होगा?

रमानाथ कुछ पूछिए मत, तभी से दाना-पानी छोड़ रक्खा है? मैं तो तंग आ गया। जी में आता है, कहीं भाग जाऊं। बाबूजी सुनते नहीं।

रमेश-बाबूजी के पास क्या कारू का खजाना रक्खा हुआ है? अभी चार-पांच हजार खर्च किए हैं, फिर कहां से लाकर गहने बनवा दें? दस-बीस हजार रुपये होंगे, तो अभी तो बच्चे भी तो सामने हैं और नौकरी का भरोसा ही क्या। पचास रु० होती ही क्या है?

रमानाथ-मैं तो मुसीबत में फंस गया। अब मालूम होता है, कहीं नौकरी करनी पड़ेगी। चैन से खाते और मौज उड़ाते थे, नहीं तो बैठे-बैठाए इस मायाजाल में फंसे। अब बतलाइए, है।