प्रेमचंद रचनावली (खण्ड ५)/गबन/तीन

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प्रेमचंद रचनावली ५  (1936) 
द्वारा प्रेमचंद

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लेकिन ससुराल से न आए तो। --उसके सामने तीन लड़कियों के विवाह हो चुके थे, किसी की ससुराल से चन्द्रहार न आया था। कहीं उसकी ससुराल से भी न आया तो? उसने सोचा-तो क्या माताजी अपनी हार मुझे दे देंगी? अवश्य दे देंगी।

इस तरह हंसते-खेलते सात वर्ष कट गए। और वह दिन भी आ गया, जब उसकी चिरसंचित अभिलाषा पूरी होगी।

तीन


मुंशी दीनदयाल की जान-पहचान के आदमियों में एक महाशय दयानाथ थे, बड़े ही सज्जन और सहृदय। कचहरी में नौकर थे और पचास रुपये वेतन पाते थे। दीनदयाल अदालत के कीड़े थे। दयानाथ को उनसे सैकड़ों ही बार काम पड़ चुका था। चाहते, तो हजारों वसूल करते, पर कभी एक पैसे के भी रवादार नहीं हुए थे। कुछ दीनदयाल के साथ ही उनका यह सलूक न था, यह उनका स्वभाव था। यह बात भी न थी कि वह बहुत ऊंचे आदर्श के आदमी हों, पर रिश्वत को हराम समझते थे। शायद इसलिए कि वह अपनी आंखों से इसके कुफल देख चुके थे। किसी को जेल जाते देखा था, किसी को संतान से हाथ धोते, किसी को कुव्यसनों के पंजे में फंसते। ऐसी उन्हें कोई मिसाल न मिलती थी, जिसने रिश्वत लेकर चैन किया हो। उनकी यह दृढ धारणा हो गई थी कि हराम की कमाई हराम ही में जाती है। यह बात वह कभी न भूलते। |

इस जमाने में पचास रुप्ए की भुगुत ही क्या। पांच आदमियों का पालन बड़ी मुश्किल से होता था। लड़के अच्छे कपड़ों को तरसते, स्त्री गहनों को तरसती, पर दयानाथ विचलित न होते थे। बड़ा लड़का दो ही महीने तक कॉलेज में रहने के बाद पढ़ना छोड़ बैठा। पिता ने साफ कह दिया-मैं तुम्हारी डिग्री के लिए सबको भूखा और नंगा नहीं रख सकता। पढ़ना चाहते हो, तो अपने पुरुषार्थ से पढ़ो। बहुतों ने किया है, तुम भी कर सकते हो, लेकिन रमानाथ में इतनी लगन न थी। इधर दो साल से वह बिल्कुल बेकार था। शतरंज खेलता, सैर-सपाटें करता और मां और छोटे भाइयों पर रोब जमाता। दोस्तों की बदौलत शौक पूरा होता रहता था। किसी का चेस्टर मांग लिया और शाम को हवा खाने निकल गए। किसी का पंप-शू पहन लिया, किसी की घड़ी कलाई पर बांध ली। कभी बनारसी फैशन में निकले, कभी लखनवी फैशन में। दस मित्रों ने एक-एक कपड़ा बनवा लिया, तो दस सूट बदलने का साधन हो गया। सहकारिता का यह बिल्कुल नया उपयोग था। इसी युवक को दीनदयाल ने जालपा के लिए पसंद किया। दयानाथ शादी नहीं करना चाहते थे। उनके पास न रुपये थे और न एक नए परिवार का भार उठाने की हिम्मत, पर जागेश्वरी ने त्रिया-हठ से काम लिया और इस शक्ति के सामने पुरुष को झुकना पड़ा। जागेश्वरी बरसों से पुत्र-वधू के लिए तड़प रही थी। जो उसके सामने बहुएं बनकर आई, वे आज पोते खिला रही हैं, फिर उस दुखिया को कैसे धैर्य होता। वह कुछ-कुछ निराश हो चली थी। ईश्वर से मनाती थी कि कहीं से बात आए। दीनदयाल ने संदेश भेजा, तो उसको आंखें-सी मिल गईं। अगर कहीं यह शिकार हाथ से निकल गया, तो फिर न जाने कितने दिन और राह देखनी पड़े। कोई यहां क्यों आने लगा। न धन ही है, न जायदाद। लड़के पर कौन रीझता है। लोग तो धन देखते हैं, इसलिए उसने इस अवसर पर सारी शक्ति लगा दी और उसकी विजय हुई।

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दयानाथ ने कहा- भाई, तुम जानो तुम्हारा काम जाने। मुझमें समाई नहीं है। जो आदमी अपने पेट की फिक्र नहीं कर सकता, उसका विवाह करना मुझे तो अधर्म-सी मालूम होता है। फिर रुपये की भी तो फिक्र है। एक हजार तो टीमटाम के लिए चाहिए, जोड़े और गहनों के लिए अलग। (कानों पर हाथ रखकर) ना बाबा ! यह बोझ मेरे मान का नहीं !

जागेश्वरी पर इन दलीलों का कोई असर न हुआ। बोली-वह भी तो कुछ देगा?

'मैं उससे मांगने तो जाऊंगा नहीं।'

तुम्हारे मांगने की जरूरत ही न पड़ेगी। वह खुद ही देंगे। लड़की के ब्याह में पैसे का मुंह कोई नहीं देखता। हां, मकदूर चाहिए; सो दीनदयाल पोढ़े आदमी हैं। और फिर यही एक संतान है; बचाकर रखेंगे, तो किसके लिए?

दयानाथ को अब कोई बात न सूझी, केवल यहीं कहा-वह चाहे लाख दे दें, चाहे एक न दें। मैंने कहूंगा कि दो, ने कहूंगा कि मत दो। कर्ज मैं लेना नहीं चाहता और लूं, तो दूंगा किसके घर से।

जागेश्वरी ने इस बाधा को मानो हवा में उड़ाकर कहा- मुझे तो विश्वास है कि वह टीके में एक हजार से कम न देंगे। तुम्हारे टीमटाम के लिए इतना बहुत है। गहनों का प्रबंध किसी सरफ से कर लेना। टीके में एक हजार देंगे, तो क्या द्वार पर एक हजार भी न देंगे? वही रुपये सर्राफ को दे देना। दो-चार सौ बाकी रहे, वह धीरे-धीरे चुक जाएंगे। बच्चा के लिए कोई-न-कोई द्वार खुलेगा ही। दयानाथ ने उपेक्षा-भाव से कहा-खुल चुका, जिसे शतरंज और सैर-सपाटे से फुसरत न मिले, उसे सभी द्वार बंद मिलेंगे।

जागेश्वरी को अपने विवाह की बात याद आई। दयानाथ भी तो गुलछरें उड़ाते थे, लेकिन उसके आते ही उन्हें चार पैसे कमाने की फिक्र कैसी सिर पर सवार हो गई थी। साल भर भी न बीतने पाया था कि नौकर हो गए। बोली-बहू आ जाएगी, तो उसकी आंखें भी खुलेंगी, देख लेना। अपनी बात याद करो। जब तक गले में जुआ नहीं पड़ा है, तभी तक यह कुलेलें हैं। जुआ पड़ा और सारा नशा हिरन हुआ। निकम्मों को राह पर लाने का इससे बढ़कर और कोई उपाय ही नहीं।

जब दयानाथ परास्त हो जाते थे, तो अखबार पढ़ने लगते थे। अपनी हार को छिपाने का उनके पास यही साधन था।

चार


मुंशी दीनदयाल उन आदमियों में से थे, जो सीधों के साथ सीधे होते हैं, पर टेढ़ों के साथ टेढ़े ही नहीं, शैतान हो जाते हैं। दयानाथ बड़ा-सा मुंह खोलते, हजारों की बातचीत करते, तो दीनदयाल उन्हें ऐसा चकमा देते कि वह उम्र भर याद करते। दयानाथ की सज्जनता ने उन्हें वशीभूत कर लिया। उनका विचार एक हजार देने की था, पर एक हजार टीके ही में दे आए। मानकी ने कहा--"जब टीके में एक हजार दिया, तो इतना ही घर पर भी देना पड़ेगा। आएगा कहां से?

दीनदयाल चिढ़कर बोले–भगवान् मालिक है। जब उन लोगों ने उदारता दिखाई और