प्रेमचंद रचनावली (खण्ड ५)/गबन/तेइस

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प्रेमचंद रचनावली ५  (1936) 
द्वारा प्रेमचंद
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तेईस


एक सप्ताह हो गया, रमा का कहीं पता नहीं। कोई कुछ कहता है, कोई कुछ। बेचारे रमेश बाबू दिन में कई-कई बार आकर पूछ जाते हैं। तरह-तरह के अनुमान हो रहे हैं। केवल इतना ही पता चलता है कि रमानाथ ग्यारह बजे रेलवे स्टेशन की ओर गए थे। मुंशी दयानाथ का खयाल है, यद्यपि वे इसे स्पष्ट रूप से प्रकट नहीं करते कि रमा ने आत्महत्या कर ली। ऐसी दशा में यही होता है। इसकी कई मिसालें उन्होंने खुद आंखों से देखी हैं। सास और ससुर दोनों ही जालपा पर सारा इल्जाम थोप रहे हैं। साफ-साफ कह रहे हैं कि इसी के कारण उसके प्राण गए। इसने उसके नाकों दम कर दिया। पूछो, थोड़ी-सी तो आपकी आमदनी, फिर तुम्हें रोज सैर-सपाटे और दावत-तवाजे की क्यों सूझती थी। जालपा पर किसी को दया नहीं आती। कोई उसके आंसू नहीं पोंछता। केवल रमेश बाबू उसकी तत्परता और सद्बुद्धि की प्रशंसा करते हैं, लेकिन मुंशी दयानाथ की आंखों में उस कृत्य की कुछ मूल्य नहीं। आग लगाकर पानी लेकर दौड़ने से कोई निर्दोष नहीं हो जाता है।

एक दिन दयानाथ वाचनालय से लौटे, तो मुंह लटका हुआ था। एक तो उनकी सूरत यों ही मुहर्रमी थी, उस पर मुंह लटका लेते थे तो कोई बच्चा भी कह सकता था कि इनका मिजाज बिगड़ा हुआ है।

जागेश्वरी ने पूछा-क्या है, किसी से कहीं बहस हो गई क्या?

दयानाथ–नहीं जी, इन तकाजों के मारे हैरान हो गया। जिधर जाओ, उधर लोग नोचने दौड़ते हैं, न जाने कितना कर्ज ले रक्खा है। आज तो मैंने साफ कह दिया, मैं कुछ नहीं जानता। मैं किसी का देनदार नहीं हूं। जाकर मेमसाहब से मांगो। | इसी वक्त जालपा आ पड़ी। ये शब्द उसके कानों में पड़ गए। इन सात दिनों में उसकी सूरत ऐसी बदल गई थी कि पहचानी न जाती थी। रोते-रोते आंखें सूज आई थीं। ससुर के ये कठोर शब्द सुनकर तिलमिला उठी, बोली-जी हां। आप उन्हें सीधे मेरे पास भेज दीजिए, मैं उन्हें या तो समझा दूंगी, या उनके दाम चुका दून्गी । दयानाथ ने तीखे होकर कहा-क्या दे दोगी तुम, हजारों का हिसाब है, सात सौ तो एक ही सराफ के हैं। अभी कै पैसे दिए हैं तुमने?

जालपा-उसके गहने मौजूद हैं, केवल दो-चार बार पहने गए हैं। वह आए तो मेरे पास भेज दीजिए। मैं उसकी चीजें वापस कर दूंगी। बहुत होगा दस-पांच रुपये तावान के ले लेगा।

यह कहती हुई वह ऊपर जा रही थी कि रतन आ गई और उसे गले से लगाती हुई बोली-क्या अब तक कुछ पता नहीं चला?

जालपा को इन शब्दों में स्नेह और सहानुभूति का एक सागर उमड़ता हुआ जान पड़ा। यह गैर होकर इतनी चिंतित है, और यहां अपने ही सास और ससुर हाथ धोकर पीछे पड़े हुए हैं। इन अपनों से गैर ही अच्छे। आंखों में आंसू भरकर बोली-अभी तो कुछ पता नहीं चला बहन।

रतन—यह बात क्या हुई, कुछ तुमसे तो कहा-सुनी नहीं हुई?

जालपा-जरा भी नहीं, कसम खाती हूं। उन्होंने नोटों के खो जाने का मुझसे जिक्र ही [ १०७ ]
नहीं किया। अगर इशारा भी कर देते, तो मैं रुपये दे देती। जब वह दोपहर तक नहीं आए और मैं खोजती हुई दफ्तर गई, तब मुझे मालूम हुआ, कुछ नोट खो गए हैं। उसी वक्त जाकर मैंने रुपये जमा कर दिए।

रतन-मैं तो समझती हूं, किसी से आंखें लड़ गईं। दस-पांच दिन में आप पता लग जायगा। यह बात सच न निकले, तो जो कह दें।

जालपा ने हकबकाकर पूछा-क्या तुमने कुछ सुना है? रतन-नहीं, सुना तो नहीं; पर मेरो अनुमान है।

जालपा–नहीं रतन, मैं इस पर जरा भी विश्वास नहीं करती। यह बुराई उनमें नहीं है, और चाहे जितनी बुराइयां हों। मुझे उन पर संदेह करने का कोई कारण नहीं है। | रतन ने हंसकर कहा-इस कला में ये लोग निपुण होते हैं। तुम बेचारी क्या जानो?

जालपा दृढ़ता से बोली-अगर वह इस कला में निपुण होते हैं, तो हम भी हदय को परखने में कम निपुण नहीं होती। मैं इसे नहीं मान सकती। अगर वह मेरे स्वामी थे, तो मैं भी उनकी स्वामिनी थी।

रतन-अच्छा चलो, कहीं घूमने चलती हो? चलो, तुम्हें कहीं घुमा लावें।

जालपा-नहीं, इस वक्त तो मुझे फुरसत नहीं है। फिर घरवाले यों ही प्राण लेने पर तुले हुए हैं, तब तो जान ही न छोड़ेंगे। किधर जाने का विचार है?

रतन-कहीं नहीं, जरा बाजार तक जाना था। जालपा-क्या लेना है?

रतन-जौहरियों की दुकान पर एक-दो चीज देखेंगी। बस, मैं तुम्हारे-जैसा कंगन चाहती हूँ। बाबूजी ने भी कई महीने के बाद रुपये लौटा दिए। अब खुद तलाश करूंगी।

जालपा–मेरे कंगन में ऐसे कौन-से रूप लगे हैं। बाजार में उससे बहुत अच्छे मिल सकते।

रतन-मैं तो उसी नमूने का चाहती हूं।

जालपा-उस नमूने का तो बना-बनाया मुश्किल से मिलेगा, और बनवाने में महीनों का झंझट। अगर सब्र न आती हो, तो मेरा ही कंगन ले लो, मैं फिर बनवा लूंगी।

रतन ने उछलकर कहा-वाह, तुम अपना कंगन दे दो, तो क्या कहना है । मूसलों ढोल बजाऊ । छ: सौ का था न?

जालपा- हां, था तो छ: सौ की, मगर महीनों सराफ की दुकान की खाक छाननी पड़ी थी। जड़ाई तो खुद बैठकर करवाई थी। तुम्हारे खातिर दे दूंगी।

जालपा ने कंगन निकालकर रतन के हाथों में पहना दिए। रतन के मुख पर एक विचित्र गौरव का आभास हुआ, मानो किसी कंगाल को पारस मिल गया हो। यही आत्मिक आनंद की चरम सीमा है। कृतज्ञता से भरे हुए स्वर से बोली-तुम जितना कहो, उतना देने को तैयार हूं। तुम्हें दबाना नहीं चाहती। तुम्हारे लिए यही क्या कम है कि तुमने इसे मुझे दे दिया। मगर एक बात है। अभी मैं सब रुपये न दे सकेंगी, अगर दो सौ रुपये फिर दे दें तो कुछ हरज है?

जालपा ने साहसपूर्वक कहा- कोई हरज नहीं, जी चाहे कुछ भी मत दो।

रतन-नहीं, इस वक्त मेरे पास चार सौ रुपये हैं, मैं दिए जाती हूँ। मेरे पास रहेंगे तो किसी दूसरी जगह खर्च हो जाएंगे। मेरे हाथ में तो रुपये टिकते ही नहीं, करूं क्या। जब तक [ १०८ ]
खर्च न हो जाएं, मुझे एक चिंता-सी लगी रहती है, जैसे सिर पर कोई बोझ सवार हो।

जालपा ने कंगन की डिबिया उसे देने के लिए निकाली तो उसका दिल मसोस उठा। उसकी कलाई पर यह कंगन देखकर रमा कितना खुश होता था। आज वह होता तो क्या यह चीज इस तरह जालपा के हाथ से निकल जाती ! फिर कौन जाने कंगन पहनना उसे नसीब भी होगा या नहीं। उसने बहुत जब्त किया, पर आंसू निकल ही आए। | रतन उसके आंसू देखकर बोली-इस वक्त रहने दो बहन, फिर ले लूंगी, जल्दी ही क्या है।

जालपा ने उसकी ओर बक्से को बढ़ाकर कहा-क्यों, क्या मेरे आंसू देखकर? तुम्हारी खातिर से दे रही हूं, नहीं यह मुझे प्राणों से भी प्रिय था। तुम्हारे पास इसे देखूंगी, तो मुझे तस्कीन होती रहेगी। किसी दूसरे को मत देना, इतनी दया करना।

रतन-किसी दूसरे को क्यों देने लगी। इसे तुम्हारी निशानी समझेंगी। आज बहुत दिन के बाद मेरे मन की अभिलाषा पूरी हुई। केवल दुःख इतना ही है, कि बाबूजी अब नहीं हैं। मेरा मन कहता है कि वे जल्दी ही आयंगे। वे मारे शर्म के चले गए हैं, और कोई बात नहीं। वकील साहब को भी यह सुनकर बड़ा दु:ख हुआ। लोग कहते हैं, वकीलों का हृदय कठोर होता है, मगर इनको तो मैं देखती हूं, जरा भी किसी की विपत्ति सुनी और तड़प उठे।

जालपा ने मुस्कराकर कहा-बहन,एक बात पूछूं बुरा तो न मानोगी? वकील साहब से तुम्हारी दिल तो न मिलता होगा।

रतन का विनोद-रंजित, प्रसन्न मुख एक क्षण के लिए मलिन हो उठा। मानो किसी ने उसे उस चिर-स्नेह की याद दिला दी हो, जिसके नाम को वह बहुत पहले से चुकी थी। बोली-मुझे तो कभी यह खयाल भी नहीं आया बहन कि मैं युवती हूं और वे बूढ़े हैं। मेरे हृदय में जितना प्रेम, जितना अनुराग है, वह सब मैंने उनके ऊपर अर्पण कर दिया। अनुराग, यौवन या रूप या धन से नहीं उत्पन्न होता। अनुराग अनुराग से उत्पन्न होता है। मेरे ही कारण वे इस अवस्था में इतना परिश्रम कर रहे हैं, और दूसरा है ही कौन क्या यह छोटी बात है? कल कहीं चलोगी? कहो तो शाम को आऊं?

जालपा-जाऊंगी तो मैं कहीं नहीं, मगर तुम आना जरूर। दो घड़ी दिल बहलेगा। कुछ अच्छा नहीं लगता। मन डाल-डाल दौड़ता-फिरता है। समझ में नहीं आता, मुझसे इतना संकोच क्यों किया? यह भी मेरा ही दोष है। मुझमें जरूर उन्होंने कोई ऐसी बात देखी होगी, जिसके कारण मुझसे परदा करना उन्हें जरूरी मालूम हुआ। मुझे यही दुःख है कि मैं उनका सच्चा स्नेह न पा सकी। जिससे प्रेम होता है, उससे हम कोई भेद नहीं रखते।

रतन उठकर चली तो जालपा ने देखा-कंगन का बक्स मेज पर पड़ा हुआ है। बोली-इसे लेती जाओ बहन, यहां क्यों छोड़े जाती हो।

रतन-ले जाऊंगी, अभी क्या जल्दी पड़ी है। अभी पूरे रुपये भी तो नहीं दिए ! जालपा–नहीं, नहीं; लेती जाओ। मैं न मानूंगी। मगर रतन सीढ़ी से नीचे उतर गई। जालपा हाथ में कंगन लिए खड़ी रही।

थोड़ी देर बाद जालपा ने संदूक से पांच सौ रुपये निकाले और दयानाथ के पास जाकर बोली-यह रुपये लीजिए; नारायणदास के पास भिजवा दीजिए। बाकी रुपये भी मैं जल्द ही दे दूंगी। [ १०९ ]
दयानाथ ने झेंपकर कहा-रुपये कहां मिल गए?

जालपा ने निःसंकोच होकर कहा-रतन के हाथ कंगन बेच दिया। दयानाथ उसका मुंह ताकने लगे।

चौबीस

एक महीना गुजर गया। प्रयाग के सबसे अधिक छपने वाले दैनिक पत्र में एक नोटिस निकल रहा है, जिसमें रमानाथ के घर लौट आने की प्रेरणा दी गई है, और उसका पता लगा लेने वाले आदमी को पांच सौ रुपये इनाम देने का वचन दिया गया है, मगर अभी कहीं से कोई खबर नहीं आई। जालपा चिंता और दुःख से धुलती चली जाती है। उसकी दशा देखकर दयानाथ को भी उस पर दया आने लगी है। आखिर एक दिन उन्होंने दीनदयाल को लिखा-आप आकर बहू को कुछ दिनों के लिए ले जाइए। दीनदयाल यह समाचार पाते ही घबड़ाए हुए आए; पर जालपा ने मैके जाने से इंकार कर दिया। | दीनदयाल ने विस्मित होकर कहा-क्या यहां पड़े-पड़े प्राण देने का विचार है?

जालपा ने गंभीर स्वर में कहा-अगर प्राणों को इसी भांति जाना होगा, तो कौन रोक सकता है। मैं अभी नहीं मरने की दादाजी, सच मानिए। अभागिनों के लिए वहां भी जगह नहीं है।

दीनदयाल-आखिर चलने में हरज ही क्या है। शहजादी और बसन्ती दोनों आई हुई हैं। उनके साथ हंस-बोलकर जी बहलता रहेगा।

जालपा-यहां लाला और अम्मांजी को अकेली छोड़कर जाने को मेरा जी नहीं चाहता। जब रोना ही लिखा है, तो रोऊंगी।

दीनदयाल-यह बात क्या हुई, सुनते हैं कुछ कर्ज हो गया था, कोई कहता है, सरकारी रकम खा गए थे।

जालपा-जिसने आपसे यह कहा, उसने सरासर झूठ कहा।

दीनदयाल तो फिर क्यों चले गए? जालपा–यह मैं बिल्कुल नहीं जानती। मुझे बार-बार खुद यही शंका होती है।

दीनदयाल-लाला दयनाथ से तो झगड़ा नहीं हुआ?

जालपा-लालाजी के सामने तो वह सिर तक नहीं उठाते, पान तक नहीं खाते, भला झगड़ा क्या करेंगे। उन्हें घूमने का शौक था। सोचा होगा–यों तो कोई जाने न देगा, चलो भाग चलें।

दीनदयाल–शायद ऐसा ही हो। कुछ लोगों को इधर-उधर भटकने की सनक होती है। तुम्हें यहां जो कुछ तकलीफ हो, मुझसे साफ-साफ कह दो। खरच के लिए कुछ भेज दिया करूं?

जालपा ने गर्व से कहा-मुझे कोई तकलीफ नहीं है, दादाजी ! आपकी दया से किसी चीज की कमी नहीं है।