प्रेमचंद रचनावली (खण्ड ५)/गबन/पचास

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प्रेमचंद रचनावली ५  (1936) 
द्वारा प्रेमचंद

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              पचास

दारोगा घर जाकर लेट रहे। ग्यारह बज रहे थे। नींद खुली, तो आठ बज गए थे। उठकर बैठे ही थे कि टेलीफोन पर पुकार हुई। जाकर सुनने लगे। डिप्टी साहब बोल रहे थे—इस रमानाथ ने बड़ा गोलमाल कर दिया है। उसे किसी दूसरी जगह ठहराया जायगा। उसका सब सामान कमिश्नर साहब के पास भेज देना होगा। रात को वह बंगले पर था या नहीं?

दारोगा ने कहा-जी नहीं, रात मुझसे बहाना करके अपनी बीवी के पास चला गया था?

टेलीफोन-तुमने उसको क्यों जाने दिया? हमको ऐसा डर लगता है, कि उसने जज से सब हाल कह दिया है। मुकदमों की जांच फिर से होगा। आपसे बड़ा भारी ब्लंडर हुआ है। सारा मेहनत पानी में गिर गया। उसको जबरदस्ती रोक लेना चाहिए था।

दारोगा-तो क्या वह जज साहब के पास गया था?

डिप्टी–हां साहब, वहीं गया था, और जज भी कायदा को तोड़ दिया। वह फिर से मुकदमा का पेशी करेगा। रमा अपना बयान बदलेगा। अब इसमें कोई डाउट नहीं है और यह सब आपका बंगलिग है। हम सब उस बाढ़ में बह जायगा। जोहरा भी दगा दिया।

दरोगा उसी वक्त रमानाथ का सब सामान लेकर पुलिस-कमिश्नर के बंगले की तरफ चले। रमा पर ऐसा गुस्सा आ रहा था कि पावें तो समूचा ही निगल जाएं। कमबख्त को कितना समझाया, कैसी-कैसी खातिर की; पर दगा कर ही गया। इसमें जोहरा की भी सांठ-गांठ है।

बीवी को डांट-फटकार करने का महज बहाना था। जोहरा बेगम की तो आज ही खबर लेता हूं। कहां जाती है। देवीदीन से भी समझूंगा।

एक हफ्ते तक पुलिस-कर्मचारियों में जो हलचल रही उसका जिक्र करने की कोई जरूरत नहीं। रात की रात और दिन के दिन इसी फिक्र में चक्कर खाते रहते थे। अब मुकदमे से कहीं ज्यादा अपनी फिक्र थी। सबसे ज्यादा घबराहट दारोगा को थी। बचने की कोई उम्मीद नहीं नजर आती थी। इंस्पेक्टर और डिप्टी--दोनों ने सारी जिम्मेदारी उन्हीं के सिर डाल दी और खुद बिल्कुल अलग हो गए।

इस मुकदमे की फिर पेशी होगी, इसकी सारे शहर में चर्चा होने लगी। अंगरेजी न्याय के इतिहास में यह घटना सर्वथा अभूतपूर्व थी। कभी ऐसा नहीं हुआ। वकीलों में इस पर कानूनी बहसें होतीं। जज साहब ऐसा कर भी सकते हैं? मगर जज दृढ़ था। पुलिसवालों ने बड़े-बड़े जोर लगाए, पुलिस कमिश्नर ने यहां तक कहा कि इससे सारा पुलिस विभाग बदनाम हो जायगा, लेकिन जज ने किसी की न सुनी। झूठे सबूतों पर पंद्रह आदमियों की जिंदगी बरबाद करने की जिम्मेदारी सिर पर लेना उसकी आत्मा के लिए असह्य था। उसने हाईकोर्ट को सूचना दी और गवर्नमेंट को भी।

इधर पुलिस वाले रात-दिन रमा की तलाश में दौड़-धूप करते रहते थे, लेकिन रमा न जाने कहां जा छिपा था कि उसका कुछ पता ही न चलता था। हफ्तों सरकारी कर्मचारियों में लिखा-पढ़ी होती रही। मानों कागज स्याह कर दिए गए। उधर समाचार-पत्रों में इस मामले पर नित्य आलोचना होती रहती थी। एक पत्रकार ने जालपा से मुलाकात की और उसका बयान छाप दिया। दूसरे ने जोहरा का बयान छाप दिया। इन दोनों [ २२१ ]बयानों ने पुलिस की बखिया उधेड़ दी। जोहरा ने तो लिखा था कि मुझे पचास रुपए रोज इसलिए दिए जाते थे कि रमानाथ को बहलाती रहूं और उसे कुछ सोचने या विचार करने का अवसर न मिले। पुलिस ने इन बयानों को पढ़ा तो दांत पीस लिए। जोहरा और जालपा, दोनों कहीं और जा छिपीं, नहीं तो पुलिस ने जरूर उनकी शरारत का मजा चखाया होता।

आखिर दो महीने के बाद फैसला हुआ। इस मुकदमे पर विचार करने के लिए एक सिविलियन नियुक्त किया गया। शहर के बाहर एक बंगले में विचार हुआ, जिसमें ज्यादा भीड़-भाड़ न हो, फिर भी रोज दस-बारह हजार आदमी जमा हो जाते थे। पुलिस ने एड़ी-चोटी का जोर लगाया कि मुलजिमों में कोई मुखबिर बन जाए, पर उसका उद्योग न सफल हुआ। दारोगाजी चाहते तो नई शहादतें बना सकते थे, पर अपने अफसरों की स्वार्थपरता पर वह इतने खिन्न हुए कि दूर से तमाशा देखने के सिवा और कुछ न किया। जब सारा यश अफसरों को मिलता और सारा अपयश मातहतों को, तो दारोगाजी को क्या गरज पड़ी थी कि नई शहादतों की फिक्र में सिर खपाते। इस मामले में अफसरों ने सारा दोष दारोगा ही के सिर मढ़ा, उन्हीं की बेपरवाही से रमानाथ हाथ से निकला। अगर ज्यादा सख्ती से निगरानी की जाती, तो जालपा कैसे उसे खत लिख सकती थी और वह कैसे रात को उससे मिल सकता था।

ऐसी दशा में मुकदमा उठा लेने के सिवा और क्या किया जा सकता था। तबेले की बला बंदर के सिर गई। दारोगा तनज्जुल हो गए और नायब दारोगा का तराई में तबादला कर दिया गया।

जिस दिन मुलजिमों को छोड़ा गया, आधा शहर उनका स्वागत करने को जमा था। पुलिस ने दस बजे रात को उन्हें छोड़ा, पर दर्शक जमा हो ही गए। लोग जालपा को भी खींच ले गए। पीछे-पीछे देवीदीन भी पहुँचा। जालपा पर फूलों की वर्षा हो रही थी और 'जालपादेवी की जय!' से आकाश गूंज रहा था।

मगर रमानाथ की परीक्षा अभी समाप्त न हुई थी? उसपर दरोग-बयानी का अभियोग चलाने का निश्चय हो गया।

इक्यावन

उसी बंगले में ठीक दस बजे मुकदमा पेश हुआ। सावन की झड़ी लगी हुई थी। कलकत्ता दलदल हो रहा था, लेकिन दर्शकों का एक अपार समूह सामने मैदान में खड़ा था। महिलाओं में दिनेश की पत्नी और माता भी आई हुई थीं। पेशी से दस-पंद्रह मिनट पहले जालपा और जोहरा भी बंद गाड़ियों में आ पहुंचीं। महिलाओं को अदालत के कमरे में जाने की आज्ञा मिल गई।

पुलिस की शहादतें शुरू हुई। डिप्टी सुपरिटेंडेंट, इंस्पेक्टर, दारोगा, नायब दारोगा–सभी के बयान हुए। दोनों तरफ के वकीलों ने जिरहें भी की, पर इन काररवाइयों में उल्लेखनीय कोई बात न थी। जाब्ते की पाबंदी की जा रही थी। रमानाथ का बयान हुआ, पर उसमें भी कोई नई बात न थी। उसने अपने जीवन के गत एक वर्ष का पूरा वृत्तांत कह सुनाया। कोई बात न छिपाई, वकील के पूछने पर उसने कहा–जालपा के त्याग, निष्ठा और सत्य-प्रेम ने मेरी आँखें खोली और उससे भी ज्यादा जोहरा के