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प्रेमचंद रचनावली (खण्ड ५)/गबन/बत्तीस

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प्रेमचंद रचनावली ५
प्रेमचंद

बनारस: सरस्वती-प्रेस, पृष्ठ १४३ से – १४८ तक

 


मणिभूषण ने फिर पूछा-शायद कहीं लिखकर रख गए हों?

रतन-मुझे तो कुछ मालूम नहीं। कभी जिक्र नहीं किया।

मणिभूषण ने मन में प्रसन्न होकर कहा-मेरी इच्छा है कि उनकी कोई यादगार बनवा दी जाय।

रतन ने उत्सुकता से कहा-हां-हां, मैं भी चाहती हूं।

मणिभूषण–गांव की आमदनी कोई तीन हजार साल की है, यह आपको मालूम है। इतना ही उनका वार्षिक दान होता था। मैंने उनके हिसाब की किताब देखी है। दो सौ ढाई सौ से किसी महीने में कम नहीं है। मेरी सलाह है कि वह सब ज्यों-का-त्यों बना रहे।

रतन ने प्रसन्न होकर कहा-हां, और क्या।

मणिभूषण तो गांव की आमदनी तो धर्मार्थ पर अर्पण कर दी जाए। मकानों का किराया कोई दो सौ रुपये महीना है। इससे उनके नाम पर एक छोटी-सी संस्कृत पाठशाला खोल दी जाए।

रतन-बहुत अच्छा होगा।

मणिभूषण और यह बंगला बेच दिया जाए। इस रुपये को बैंक में रख दिया जाये।

रतन-बहुत अच्छा होगा। मुझे रुपये-पैसे की अब क्या जरूरत है।

मणिभूषण आपकी सेवा के लिए तो हम सब हाजिर हैं। मोटर भी अलग कर दी जाय।अभी से यह फिक्र की जाएगी, तब जाकर कहीं दो-तीन महीने में फुरसत मिलेगी।

रतन ने लापरवाही से कहा-अभी जल्दी क्या है। कुछ रुपये बैंक में तो हैं।

मणिभूषण–बैंक में कुछ रुपये थे, मगर महीने भर से खर्च भी तो हो रहे हैं। हजार-पांच सो पड़े होंगे। यहां तो रुपये जैसे हवा में उड़ जाते हैं। मुझसे तो इस शहर में एक महीना भी न रहा जाय। मोटर को तो जल्द ही निकाल देना चाहिए।

रतन ने इसके जवाब में भी यही कह दिया-अच्छा तो होगा। वह उस मानसिक दुर्बलता की दशा में थी, जब मनुष्य को छोटे-छोटे काम भी असूझ मालूम होने लगते हैं। मणिभूषण की कार्य-कुशलता ने एक प्रकार से उसे पराभूत कर दिया था। इस समय जो उसके साथ थोड़ी-सी भी सहानुभूति दिखा देता, उसी को वह अपना शुभचिंतक समझने लगती। शोक और मनस्ताप ने उसके मन को इतना कोमल और नर्म बना दिया था कि उस पर किसी की भी छाप पड़ सकती थी। उसकी सारी मलिनता और भिन्नता मानो भस्म हो गई थी; वह सभी को अपना समझती थी। उसे किसी पर संदेह न था, किसी से शंका न थी। कदाचित् उसके सामने कोई चोर भी उसकी संपत्ति का अपहरण करता तो वह शोर न मचाती।

बत्तीस

षोड़शी के बाद से जालपा ने रतन के घर आना-जाना कम कर दिया था। केवल एक बार घंटे-दो घंटे के लिए चली जाया करती थी। इधर कई दिनों से मुंशी दयानाथ को ज्वर आने लगा था। उन्हें ज्वर में छोड़कर कैसे जाती। मुंशीजी को जरा भी ज्वर आता, तो वह बक-झक

करने लगते थे। कभी गाते, कभी रोते, कभी यमदूतों को अपने सामने नाचते देखते। उनका जी चाहता कि सारा घर मेरे पास बैठा रहे, संबधयों को भी बुला लिया जाय, जिसमें वह सबसे अंतिम भेंट कर लें। क्योंकि इस बीमारी से बचने की उन्हें आशा न थी। यमराज स्वयं उनके सामने विमान लिए खड़े थे। जागेश्वरी और सब कुछ कर सकती थी, उनकी बक-झक न सुन सकती थी। ज्योंही वह रोने लगते, वह कमरे से निकल जाती। उसे भूत-बाधा का भ्रम होता था।

मुंशीजी के कमरे में कई समाचार-पत्रों के फाइल थे। यही उन्हें एक व्यसन था। जालपा का जी वहां बैठे-बैठे घबड़ाने लगता, तो इन फाइलों को उलट-पलटकर देखने लगती। एक दिन उसने एक पुराने पत्र में शतरंज का एक नक्शा देखा, जिसे हल कर देने के लिए किसी सज्जन ने पुरस्कार भी रक्खा था। उसे खयाल आया कि जिस ताक पर रमानाथ की बिसात और मुहरे रक्खे हुए हैं उस पर एक किताब में कई नक्शे भी दिए हुए हैं। वह तुरंत दौड़ी हुई ऊपर गई और वह कापी उठा लाई। यह नक्या उस कापी में मौजूद था, और नक्शी ही न था, उसका हल भी दिया हुआ था। जालपा के मन में सहसा यह विचार चमक पड़ा, इस नक्शे को किसी पत्र में छपा दें तो कैसा हो । शायद उनकी निगाह पड़ जाय। यह नक्शा इतना सरल तो नहीं है कि आसानी से हल हो जाय। इस नगर में जब कोई उनकी सानी नहीं है, तो ऐसे लोगों की संख्या बहुत नहीं हो सकती, जो यह नक्शा हल कर सकें। कुछ भी हो, जब उन्होंने यह नक्शा हल किया है, तो इसे देखते हीं फिर हल कर लेंगे। जो लोग पहली बार देखेंगे, उन्हें दो-एक दिन सोचने में लग जायंगे। मैं लिख दूंगी कि जो सबसे पहले हल कर ले, उसी को पुरस्कार दिया जाय। जुआ तो है ही। उन्हें रुपये न भी मिलें, तो भी इतना तो संभव है जो कि हल करने वाली में उनका नाम भी हो। कुछ पता लग जायगा। कुछ भी न हो, तो रुपये हो तो जायंगे। दस रुपये का पुरस्कार रख दें। पुरस्कार कम होगा, तो कोई बड़ा खिलाड़ी इधर ध्यान न देगा। यह बात भी रमा के हित की ही होगी।

इसी उधेड़-बुन में वह आज रतन से न मिल सकी। रतन दिन-भर तो उसकी राह देखती रही। जब वह शाम को भी न गई, तो उससे न रह गयी। आज वह पति-शोक के बाद पहली बार घर से निकली। कहीं रौनक न थी, कहीं जीवन न था, मानो सारा नगर शोक मना रहा है। उसे तेज मोटर चलाने की धुन थी, पर आज वह तांगे से भी कम जा रही थी। एक वृद्धा को सड़क के किनारे बैठे देखकर उसने मोटर रोक दिया और उसे चार आने दे दिए। कुछ आगे और बढी,तो दो कांस्टेबल एक कैदी को लिए जा रहे थे। उसने मोटर रोकर एक कांस्टेबल को बुलाया और उसे एक रुपया देकर कहा-इस कैदी को मिठाई खिला देना। कांस्टेबल ने सलाम करके रुपया ले लिया। दिल में खुश हुआ, आज किसी भाग्यवान का मंह देखकर उठा था।

जालपा ने उसे देखते ही कहा-क्षमा करना बहन, आज मैं न आ सकी। दादाजी को कई दिन से ज्वर आ रहा है।

रतन ने तुरंत मुंशीजी के कमरे की ओर कदम उठाया और पूछा-यहीं हैं न? तुमने मुझसे न कही।

मुंशीजी का ज्वर इस समय कुछ अतार हुआ था। रतन को देखते ही बोले-बड़ा दुःख हुआ देवीजी, मगर यह तो संसार है। आज एक की बारी है, कल दूसरे की बारी है। यही चल-चलाव लगा हुआ है। अब मैं भी चला। नहीं बच सकता। बड़ी प्यास है, जैसे छाती में कोई भट्टी जल रही हो। फुंका जाता हूं। कोई अपना नहीं होता। बाईजी, संसार के नाते सब स्वार्थ के नाते हैं। आदमी अकेला हाथ पसारे एक दिन चला जाता है। हाय-हाय | लड़का था वह भी हाथ से निकल गया । न जाने कहां गया। आज होता, तो एक पानी देने वाला तो होता। यह दो लौंडे हैं, इन्हें कोई फिक्र ही नहीं, मैं मर जाऊं या जी जाऊं। इन्हें तीन दफे खाने को चाहिए, तीन दफे पानी पीने को। बस और किसी काम के नहीं। यहां बैठते दोनों का दम घुटता है। क्या करूं अबकी न बचूंगा।

रतन ने तस्कीन दी-यह मलेरिया है, दो-चार दिन में आप अच्छे हो जायेंगे। घबड़ाने की कोई बात नहीं ।

मुंशीजी ने दीन नेत्रों से देखकर कहा-बैठ जाइए बहूजी, आप कहती हैं, आपका आशीर्वाद है तो शायद बच जाऊं, लेकिन मुझे तो आशा नहीं है। मैं भी ताल ठोके यमराज से लड़ने को तैयार बैठा हूं। अब उनके घर मेहमानी खाऊंगा। अब कहां जाते हैं बचकर बचा ! ऐसा- ऐसा मोदं, कि वह भी याद करें। लोग कहते हैं, वहां भी आत्माएं इसी तरह रहती हैं। इसी तरह वहां भी कचहरियां हैं, हाकिम हैं, राजा हैं, रंक हैं। व्याख्यान होते हैं, समाचार-पत्र छपते हैं। फिर क्या चिंता है। वहां भी अहलमद हो जाऊंगा। मजे से अखबार पढा करूंगा।

रतन को ऐसी हंसी छूटी कि वहां खड़ी न रह सकी। मुंशीजी विनोद के भाव से वे बातें नहीं कर रहे थे। उनके चेहरे पर गंभीर विचार को रेखा थी। आज डेढ़-दो महीने के बाद रतन हंसी, और इस असामयिक हंसी को छिपाने के लिए कमरे से निकल आई। उसके साथ ही जालपा भी बाहर आ गई।

रतन ने अपराधी नेत्रों से उसकी ओर देखकर कहा-दादाजी ने मन में क्या समझा होगा। सोचते होंगे, मैं तो जान से मर रहा हूं और इसे हंसी सूझती है। अब वहां न जाऊंगी, नहीं ऐसी ही कोई बात फिर कहेंगे, तो मैं बिना हंसे न रह सकूगीं। देखो तो आज कितनी बे-मौका हंसी आई है।

वह अपने मन को इस उच्छृंखलता के लिए धिक्कारने लगी। जालपा ने उसके मन का भाव ताड़कर कहा-मुझे भी अक्सर इनकी बातों पर हंसी आ जाती है, बहन ! इस वक्त तो इनकी ज्वर कुछ हल्का है। जब जोर का ज्वर होता है तब तो यह और भी ऊल-जलूल बकने लगते हैं। उस वक्त हंसी रोकनी मुश्किल हो जाती है। आज सबेरे कहने लगे—मेरा पेट भक हो गया-मेरा पेट भक हो गया। इसकी रट लगा दी। इसका आशय क्या था, न मैं समझ सकीं, न अम्मां समझ सकीं, पर वह बराबर यही रटे जाते थे—पेट भक हो गया । पेट भक हो गया ! आओ कमरे में चलें।

रतन–मेरे साथ न चलोगी?

जालपा-आज तो न चल सकूगीं, बहन।

‘कल आओगी?'

‘कह नहीं सकती। दादा का जी कुछ हल्का रहा, तो आऊंगी।'

'नहीं भाई, जरूर आना। तुमसे एक सलाह करनी है।' ‘क्या सलाह है?'

'मन्नी कहते हैं, यहां अब रहकर क्या करना है, घर चलो। बंगले को बेच देने को कहते जालपा ने एकाएक ठिठककर उसका हाथ पकड़ लिया और बोली-यह तो तुमने बुरी खबर सुनाई, बहन ! मुझे इस दशा में तुम छोड़कर चली जाओगी? मैं न जाने दूंगी ! मनी से कह दो, बंगला बेच दें, मगर जब तक उनका कुछ पता न चल जायगा। मैं तुम्हें न छोडूगी। तुम कुल एक हफ्ते बाहर रहीं, मुझे एक-एक पल पहाड़ हो गया। मैं न जानती थी कि मुझे तुमसे इतना प्रेम हो गया है। अब तो शायद मैं मर ही जाऊं। नहीं बहन, तुम्हारे पैरों पड़ती हूं, अभी जाने का नाम न लेना।

रतन की भी आंखें भर आईं। बोली-मुझसे भी वहां न रहा जायगा, सच कहती हूं। मैं तो कह दूंगी, मुझे नहीं जाना है। जालपा उसका हाथ पकड़े हुए ऊपर अपने कमरे में ले गई और उसके गले में हाथ डालकर बोली-कसम खाओ कि मुझे छोड़कर न जाओगी।

रतन ने उसे अंकबार में लेकर कहा-लो, कसम खाती हूं, न जाऊंगी। चाहे इधर की दुनिया उधर हो जाय। मेरे लिए वहां क्या रखा है। बंगला भी क्यों बेचूं। दो-ढाई सौ मकानों का किराया है। हम दोनों के गुजर के लिए काफी है। मैं आज ही मन्नी से कह दूंगी-मैं न जाऊंगी।

सहसा फर्श पर शतरंज के मुहरे और नक्शे देखकर उसने पूछा--यह शतरंज किसके साथ खेल रही थीं?

जालपा ने शतरंज के नक्शे पर अपने भाग्य का पांसा फेंकने की जो बात सोचीं थीं, वह सब उससे कह सुनाई। मन में डर रही थी कि यह कहीं इस प्रस्ताव को व्यर्थ न समझे,पागलपन न खयाल करे; लेकिन रतन सुनते ही बाग-बाग हो गई। बोली-दस रुपये तो बहुत कम पुरस्कार है। पचास रुपये कर दो। रुपये मैं देती हूं।

जालपा ने शंका की-लेकिन इतने पुरस्कार के लोभ से कहीं अच्छे शतरंजबाजों ने मैदान में कदम रखा तो?

रतन ने दृढता से कहा-कोई हरज नहीं। बाबूजी की निगाह पड़ गई, तो वह इसे जरूर हल कर लेंगे और मुझे आशा है कि सबसे पहले उन्हीं का नाम आयेगी। कुछ न होगा; तो पता तो लग ही जायगा। अखबार के दफ्तर में तो उनका पता आ ही जायगा। तुमने बहुत अच्छा उपाय सोच निकाला है। मेरा मन कहता है, इसका अच्छा फल होगा, मैं अब मन की प्रेरणा की कायल हो गई हूं। जब मैं इन्हें लेकर कलकत्ते चली थी, उस वक्त मेरा मन कह रहा था, यहां जाना अच्छा न होगा।

जालपा-तो तुम्हें आशा है?

‘पूरी । मैं कल सबेर रुपये लेकर आऊंगी।'

'तो मैं आज खत लिख रक्यूंगी। किसके पास भेजूं? यहां का कोई प्रसिद्ध पत्र होना चाहिए।'

'वहां तो 'प्रजा-मित्र' की बड़ी चर्चा थी; पुस्तकालयों में अक्सर लोग उसी को पढ़ते नजर आते थे।'
'तो' प्रजा-मित्र' ही को लिखूंगी, लेकिन रुपये हड़प कर जाय और नक्शा न छापे तो क्या हो?'

'होगा क्या, पचास रुपये ही तो ले जाएगा। दमड़ी की हाँड़या खोकर कुत्ते की जात तो पहचान ली जायगी, लेकिन ऐसा हो नहीं सकता। जो लोग देशहित के लिए जेल जाते हैं, तरह-तरह की धौंस सहते हैं, वे इतने नीच नहीं हो सकते। मेरे साथ आध घंटे के लिए चलो तो तुम्हें इसी वक्त रुपये दे दूं।'

जालपा ने नाराज होकर कहा-इस वक्त कहां चलें। कल ही आऊंगी।

उसी वक्त मुंशीजी पुकार उठे-बहू!बहू ।

जालपा तो लपकी हुई उनके कमरे की ओर चली। रतने बाहर जा रही थी कि जागेश्वरी पंखी लिए अपने को झलती हुई दिखाई पड़ गईं। रतन ने पूछा-तुम्हें गर्मी लग रही है अम्मांजी? मैं तो ठंड के मारे कांप रही हूं। अरे तुम्हारे पांवों में यह क्या उजला-उजला लगा हुआ है? क्या आटा पीस रही थीं?

जागेश्वरी ने लज्जित होकर कहा-हां, वैद्यजी ने इन्हें हाथ के आटे की रोटी खाने को कहा है। बाजार में हाथ का आटा कहां मयस्सर? मुहल्ले में कोई पिसनहारी नहीं मिलती। मजूरिने तक चक्की से आटा पिसवा लेती हैं। मैं तो एक आना सेर देने को राजी हूं, पर कोई मिलती ही नहीं।

रतन ने अचंभे से कहा-तुमसे चक्की चल जाती है?

जागेश्वरी ने झेप से मुस्कराकर कहा-कौन बहुत थी। पाव भर तो दो दिन के लिए हो जाता है। खाते नहीं एक कौर भी। बहू पीसने जा रही थी, लेकिन फिर मुझे उनके पास बैठना पड़ता। मुझे रात-भर चक्की पीसना गौं है, उनके पास घड़ी भर बैठना गौं नहीं।

रतन जाकर जांत के पास एक मिनट खड़ी रही, फिर मुस्कराकर माची पर बैठ गई और बोली-तुमसे तो अब जांत न चलता होगा, मांजी ! लाओ थोड़ा-सा गेहूं मुझे दो, देखें तो।

जागेश्वरी ने कानों पर हाथ रखकर कहा- अरे नहीं बहू, तुम क्या रोगी । चलो यहां रतन ने प्रमाण दिया-मैंने बहुत दिनों तक पीसा है, मांजी। जब मैं अपने घर थी, तो रोज़ पीसती थी। मेरी अम्मां, लाओ थोड़ा-सा गेहूं।

‘हाथ दुखने लगेगा। छाले पड़ जाएंगे।'

'कुछ नहीं होगा भांजी, आप गेहूं तो लाइए।'

जागेश्वरी ने उसका हाथ पकड़कर उठाने की कोशिश करके कहा-गेहूं घर में नहीं हैं। अब इस वक्त बाजार से कौन लावे।

'अच्छा चलिए, मैं भंडारे में देखें। गेहूं होगा कैसे रहीं।'

रसोई की बगल वाली कोठरी में सब खाने-पीने का सामान रहता था। रतने अंदर चली गई और हडियों में टटोल-टटोलकर देखने लगी। एक हांडी में गेहूं निकल आए। बड़ी खुश हुई। बोली-देखो मांजी, निकले कि नहीं, तुम मुझसे बहाना कर रही थीं।

उसने एक टोकरी में थोड़ा-सा गेहूं निकाल लिया और खुश-खुश चक्की पर जाकर
पीसने लगी। जागेश्वरी ने जाकर जालपा से कहा--बहू, वह जांत पर बैठी गेहूं पीस रही हैं। उठाती हूं, उठती ही नहीं। कोई देख ले तो क्या कहे।

जालपा ने मुंशीजी के कमरे से निकलकर सास की घबराहट का आनंद उठाने के लिए कहा-यह तुमने क्या गजब किया, अम्मांजी ! सचमुच, कोई देख ले तो नाक ही कट जाय । चलिए, जरा देखें।

जागेश्वरी ने विवशता से कहा-क्या करूं, मैं तो समझा के हार गई, मानती ही नहीं।

जालपा ने जाकर देखा, तो रतन गेहूं पीसने में मग्न थी। विनोद के स्वाभाविक आनंद से उसका चेहरा खिला हुआ था। इतनी ही देर में उसके माथे पर पसीने की बूंदें आ गई थीं। उसके बलिष्ठ हाथों में जांत लट्टू के समान नाच रहा था।

जालपा ने हंसकर कहा-ओ री, आटा महीन हो, नहीं पैसे न मिलेंगे।

रतन को सुनाई न दिया। बहरों की भांति अनिश्चित भाव से मुस्कराई। जालपा ने और जोर से कहा-आटा खूब महीन पीसना, नहीं पैसे न पाएगी।

रतन ने भी हंसकर कहा-जितना महीन कहिए उतना महीन पीस दें, बहूजी। पिसाई अच्छी मिलनी चाहिए।

जालपा-धेले सेर।

रतन-धेले सेर सही।

जालपा-मुंह धो आओ। धेले सेर मिलेंगे।

रतन-मैं यह सब पीसकर उठूँगी। तुम यहां क्यों खड़ी हो?

जालपा-आ जाऊं, मैं भी खींच दूँ।

रतन-जी चाहता है, कोई जांत का गीत गाऊं।

जालपा-अकेले कैसे गाओगी । (जागेश्वरी से) अम्मां आप जरा दादाजी के पास बैठ जायं, मैं अभी आती हूँ।

जालपा भी जांत पर जा बैठी और दोनों जांत का यह गीत गाने लगी।

मोही जोगिन बनाके कहां गए रे जोगिया।

दोनों के स्वर मधुर थे। जांत की घुमुर-घुमुर उनके स्वर के साथ साज का काम कर रही थी। जब दोनों एक कड़ी गाकर चुप हो जातीं, तो जांत का स्वर मानो कठ-ध्वनि से रंजित होकर और भी मनोहर हो जाता था। दोनों के हृदय इस समय जीवन के स्वाभाविक आनंद से पूर्ण थे? न शोक का भार था, न वियोग का दुःख। जैसे दो चिड़ियां प्रभात की अपूर्व शोभा से मग्न होकर चहक रही हों।

तैंतीस

रमानाथ की चाय की दुकान खुल तो गई, पर केवल रात को खुलती थी। दिन-भर बंद रहती थी। रात को भी अधिकतर देवीदीन ही दुकान पर बैठता, पर बिक्री अच्छी हो जाती थी। पहले ही दिन तीन रुपये के पैसे आए, दूसरे दिन से चार-पांच रुपये का औसत पड़ने लगा। चाय