बेकन-विचाररत्नावली/२३ रूढ़ि

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बेकन-विचाररत्नावली  (1899) 
द्वारा महावीरप्रसाद द्विवेदी

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रूढ़ि २३.
१ शास्त्राद्रूढिर्बलीयसी[१]

मनुष्यों के विचार बहुधा उनकी मनोवृत्तिके अनुसार होते हैं; उनके भाषण, उनकी विद्वता और उनके मतके अनुसार होते हैं; परन्तु उनके कृत्य उनकी अभ्यसित रीतिके अनुसार होते हैं। इसीलिए मैकियाव्यलने कहा है—और बहुत ठीक कहा है—कि प्रकृति पर भरोसा न करना चाहिए; और न निरी बातचीत की प्रगल्भता हीपर भरोसा करना चाहिये। कोई भी काम हो, यदि उसको करनेका स्वभाव पड़गया होगा तभी मनुष्य उसे सुव्यवस्थित रीतिपर कर सकेगा। उसका यह कथन है कि यदि कोई घोर साहसका काम करना हो तो एक उग्र स्वभाववाले अथवा अतिशय दृढनिश्चयवाले मनुष्यपर विश्वास न करना चाहिए। ऐसे कामके लिए एक ऐसा मनुष्य नियुक्त करना चाहिए जिसने एक बार रक्तसे अपने हाथ लाल किए हों। अर्थात् जिसे एतादृश काम करने की आदत पड़ गई होगी वही उसे अच्छे प्रकारसे करनेमें समर्थ होगा। परन्तु मैकियाव्यल का कथन सर्वथैव सत्य नहीं है; क्यों कि, वह फ्रायर क्लेमेन्ट, सैविलाक; ज़ारेगाय और बालटाज़र जेरार्डको नही जानता था। ये लोग ऐसे होगए हैं जिन्होंने वे वे काम किए हैं जो उन्होंने पहिले कभी नहीं किए थे। तथापि मैकियाव्यलका कहना बहुत करके यथार्थ है कि प्रकृति और प्रणमें उतनी शाक्ति नहीं है जितनी शक्ति अभ्यासमें [ ६७ ] है। यह सत्य है, परन्तु धर्मभीरुताका प्राबल्य इतना है कि तव्द्दारा प्रेरित होकर मनुष्य कसाईके समान हृदयको कठोर करके पहिले पहिलभी रक्तपात करनेसे नहीं हिचकते। किसीके प्राण हरण करनेमें भी देवताओंको भक्तिभाव दिखलानेके लिए, किएगए प्रण (मानमन्ता) का प्रभाव अभ्यासके प्रभावके बराबर ही होता है। इसके अतिरिक्त और सब कहीं अभ्यास ही का माहात्म्य अधिक देख पड़ता है। मनुष्य प्रतिज्ञा करते हैं; शपथ खाते हैं; वचन देते हैं; सब कुछ करते हैं, परन्तु प्रसंग पड़नेपर फिर जैसा करते आए हैं वैसाही करने लगते हैं। जान पड़ता है इस प्रकारके मनुष्य मनुष्यही नहीं, किन्तु अभ्यासरूपी पहियोंके बल चलनेवाली काठकी कठपुतरी हैं।

किसी समुदायमें जो बात चिरकालसे होती आई है उसे रुढ़ि अथवा रीति कहते हैं। देखिए इस रूढ़िमें कितना पराक्रम है। अमेरिकाके इन्डियनलोग (उनमेंसे जो अपनेको सज्ञान समझते हैं वे) जीतेही जल मरते हैं। यही नहीं; किन्तु उनकी स्त्रियां भी अपने अपने पतिके शवके साथ अग्निप्रवेश करती हैं! पूर्वकालमें ग्रीस देशके स्पार्टा नगरमें, लडकोंके ऊपर, दियाना नामक देवीके मन्दिरमें, कोडों की वर्षा की जाती थी; तथापि वे इतनेपर भी मुखसे चकार तक नहीं निकालते थे। हमको 'स्मरण है, इंग्लैंडमें एलिज़ब्यथ रानीके सिंहासनपर बैठनेके कुछ ही कालोपरान्त, एक आयरलैंडके सरदार को रानीके विरुद्ध शस्त्र उठानेके अपराधमें, प्राणान्त दण्ड हुआ था। उसने राज्यके अधिकारियोंसे यह विनय किया कि मुझे रस्सीसे फांसी न देकर 'विलो' नामक पेड़ की पतली छड़से फांसी दी जाय। इस का यही कारण था कि उसके पहिले राजाके विरुद्ध शस्त्र उठानेवालों को उसी प्रकार फांसी दीगई थी। रूसमें ऐसे ऐसे सन्यासी पडे हैं जो रात रात भर, तबतक पानीमें बैठे तपस्या किया करते हैं, जबतक उनका सारा शरीर बर्फके साथ जमकर पत्थरके समान कड़ा नहीं हो जाता। [ ६८ ] ऊपर जो उदाहरण दिए गए उनका यह तात्पर्य है कि मन और शरीर दोनोंके ऊपर रूढ़िका भारी प्रभाव होता है। अतएव जीवनमें रूढ़िका जब इतना प्राबल्य है तब मनुष्योंको चाहिए कि वे अच्छी अच्छी बातोंको करनेका स्वभाव डालें। बाल्यावस्थामें जो स्वभाव पड़जाता है वह दृढ़ होजाता है। उसीको शिक्षा कहते हैं। विद्याध्ययनके विषयमें भी यही नियम चरितार्थ होता है। अल्पवयमें जितना शीघ्र विद्या आती है उतना शीघ्र तरुण वयमें नहीं आती। अल्पवयमें जैसे चाहिए वैसे उच्चारण जिह्वासे किए जासकते हैं और शरीरकी सन्धियां और अवयव जैसे चाहिए वैसे, चपलताके प्रत्येक काममें, प्रवृत्त किए जा सकते हैं। यह बात तरुणवयमें नहीं पाईजाती। इस नियममें एक अपवाद है; वह यह है कि, जिन मनुष्योंने अपने मनके सिद्धान्त निश्चित नहीं करलिए अतएव जो सदैव नवीन और उपयोगी बातोंके ग्रहण करनेको प्रस्तुत रहते हैं, वे अधिक वयस्क होनेपर भी उपयोगी कलाकौशलको सीख सकते हैं। परन्तु विरलेही इस प्रकारके होते हैं; यह स्मरण रखना चाहिए।

व्यक्तिविशेषके अभ्यासका बल जब इतना है तब दस पांच मनुष्योंके समाजमें उसका बल और भी अधिक समझना चाहिए। समाजमें औरोंके उदाहरणसे शिक्षा मिलती है; उनके समागमसे सुख होता है; उनसे अधिक उत्कर्ष पानेकी इच्छा रहती है। और उनके द्वारा प्रशंसा की जानेसे प्रतिष्ठा भी बढ़ती है। अतएव ऐसे स्थलमें अभ्यासका बल सर्वतोपरि देख पड़ता है। सत्य है; मनुष्यके स्वभावजात जितने अच्छे अच्छे गुण हैं वे सुव्यवस्थित और शिक्षित समाजहीके अवलम्बनपर निर्भर हैं; उसीका आश्रय लेनेसे उनकी विशेष वृद्धि होती है। लोकसत्तात्मक राज्य और उत्तम राज्यप्रणाली, बोएहुए सद्गुणरूपी बीजको पुष्टमात्र करते हैं; परन्तु स्वयं उस बीजमें कोई विशेषता नहीं उत्पन्न कर सकते। [ ६९ ] खेदकी बात है, इस समय, अत्यल्प सिद्धिके लिए अति महान प्रयत्न किए जाते हैं।

  1. रूढ़ि अर्थात् देशाचारके आगे शास्त्रकी भी कुछ नहीं चलती।