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भक्तभावन/भूमिका

विकिस्रोत से
भक्तभावन
ग्वाल, संपादक प्रेमलता बाफना

वाराणसी: विश्वविद्यालय प्रकाशन, पृष्ठ भूमिका से – २६ तक

 

रीति परम्परा के अंतिम आचार्य-कवि ग्वाल ( सं० १८५९-१९२४ वि०) रीतिकाल को आलोकित करने वाले एक ऐसे नक्षत्र हैं,जिनकी कृतियों में रीतिकाव्य अपनी पूर्णता को प्राप्त कर अस्त होने लगता है । वस्तुत:ग्वाल का काव्य रीतिकाव्य चेतना का वह निर्वाणोन्मुख दीपक है जिसके पश्चात् रीतिकाव्य की अटूट परम्परा का वैसा आलोक पुन:दिखाई नहीं देता है अतएव यह कहा जा सकता है कि ग्वाल तथा उनका कृतित्व रीतिकाल की अंतिम सीमारेखा का निर्माण करने वाला केन्द्र बिन्दु है । ब्रजभाषा काव्य के प्रकाण्ड पंडित आचार्य विश्वनाथ प्रसाद मिश्र ने ग्वाल कवि के महत्व के सम्बन्ध में लिखा हैं-" ग्वाल कवि ने रीति ग्रंथों के लिए संस्कृत का पर्याप्त वाङ्मय आलोड़ित किया था । कवि रूप में ग्वाल कवि का महत्व चाहे उतना न हो पर रीति ग्रन्थकार के रूप में उनका पूरा महत्व माना जाना चाहिए । हिन्दी रीति साहित्य की परम्परा में संस्कृत आधार ग्रंथों का कदाचित सबसे अधिक आलोड़न करने वाले ये ही हुए हैं ।

जीवन परिचय

ग्वाल कवि का समस्त जीवन काव्य-रचना करने में ही व्यतीत हुआ था । यह कहना अतिशयोक्ति न होगा कि काव्य ही उनका मनोरंजन था और वहीं उनकी जीविकोपार्जत का सावन भी । ऐते महात्वपुर्ण कवि के जीवन-वृत्त एवं रचनाओं की प्रचुर प्रामाणिक जानकारी तत्कालीन युग के अन्य कवियों की भांँति ही अनुपलब्ध है । पण्डित विश्वनाथ प्रसाद मिश्र, डॉ० किशोरीलाल गुप्त, डॉ० ब्रजनारायण सिंह तथा डॉ० भगवान सहाय पचौरी आदि विद्वान मुन्शी अमीर अहमद मीनाई साहब की प्रसिद्ध पुस्तक 'इन्तखाबे यादगार' के आधार पर ग्वाल की जन्मतिथि सं० १८५९ वि० मानते हैं, जो अधिक प्रामाणिक प्रतीत होती है । ग्वाल के सम्बंध में सर्वाधिक प्राचीन लेख मीनाई साहब का ही मिलता है । वे अपने युग के एक ख्यातनामा शायर थे और रियासत रामपुर में लगभग चालीस वर्ष तक राज्याश्रित रहे थे । ग्वाल भी रामपुर दरबार में कुछ वर्ष राज्याश्रित रहे थे । मीनाई साहब उनके समसामयिक और अभिन्न मित्र थे ।

ग्वाल के पिता का नाम सेवाराम राय था और ये जाति से ब्रह्मभट ( बन्दीजन ) थे । इनका आरम्भिक जीवन वृन्दावन मधुरा में व्यतीत हुआ था । कवि नवनीत चतुर्वेदी के अनुसार जब ग्वाल केवल आठ वर्ष के थे तभी इनके पिता की मृत्यु हो गयी थी । बालक ग्वाल के पालन-पोषण और शिक्षा-दीक्षा की समस्त जिम्मेदारी इनकी निराश्रित माता के कन्धों पर आ गयी । रायों के कुल-धर्मानुसार ग्वाल की माता भी उनको किसी काव्य-शिक्षक से शिक्षा दिलाने के लिए बडी़ बेचैन रही । उन दिनों वृन्दावन में दयानिधि गोस्वामी अपनी पाठशाला में कवियों को शिक्षा देते थे । ग्वाल की माता ने पुत्र को दयानिधि के चरणों में डाल दिया । इसी पाठशाला में प्रसिद्ध कवि गोपाल सिंह नवीन भी पढे़ थे । कवि हरदेव ग्वाल के सहपाठी थे। किन्तु ग्वाल को शिक्षा यहाँ अधिक दिन तक न चल सकी।' ग्वाल की माता ग्वाल को लेकर अपने पितृगृह काशी चली गयी। वहाँ चार-पांच वर्षों तक ग्वाल ने बड़े मनोयोग पूर्वक संस्कृत के काव्यशास्त्रीय ग्रन्थों का अध्ययन किया। काशी से लौटकर ग्वाल ने बरेली के खुशहालराय नामक कवि को काव्य-गुरु बनाया। बरेली में इनकी एक पाठशाला चलती थी, जिसमें कविगण शिक्षा पाते थे। ग्वाल ने इनको सर्वत्र सम्मान सहित स्मरण किया है तथा 'कवि मुकुट मणि' विशेषण के साथ स्पष्टतः गुरु घोषित किया है।

"श्री खुसाल कवि मुकुटमनि ताकरि सिष्य विकास।
दासी वृन्दा विपिन के श्री मथुरा सुखवास॥"

कविता काल

आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने सं॰ १८७९ वि॰ से सं॰ १९१८ वि॰ तक ग्वाल का कविता काल माना है। अधिकांश विवान् यद्यपि इसी मत के पोषक है किन्तु डॉ॰ भगवान सहाय पचौरी के अनुसार आरम्भिक ग्रन्थों 'निम्बार्क स्वाम्यष्टक' और 'नेह निबाह' तथा परवर्ती रचना 'दगशतक' के उपलब्ध होने के पश्चात् दोनों ही तिथियां परिवर्तित हो जाती हैं। 'निम्बार्क स्वाम्यष्टक' एवं 'नेह निबाह' दोनों ही लघु ग्रन्थ भाव, भाषा और शैली को देखते हुए कवि के आरम्भिक काव्याभ्यासकाल की अत्यन्त सामान्य कोटि की कृतियाँ सिद्ध होती है। भले ही इनमें रचनाकाल का उल्लेख नहीं है परन्तु ये प्रत्येक दशा में 'यमुना लहरी' और 'रसिकानन्द' के पहले लिखी गयी हैं। अतः इनका कविताकाल १८७९ वि॰ से पूर्व ही मानना उचित है। भक्तभावन का संग्रह काल सं॰ १९१९ वि॰ है। इस प्रकार इनका कविताकाल सं॰ १८७९ वि॰ के पूर्व से सं॰ १९१९ वि॰ तक कहा जा सकता है।

राज्यश्र्य

काव्य रचना में पारंगत हो जाने पर ग्वाल देशाटन करते हुए नामा राज्य के महाराजा जसवंतसिंह की सेवा में उपस्थित हुए। महाराजा जसवंतसिंह काव्य प्रेमी और कवियों के आश्रयदाता होने के साथ ही साथ स्वयं भी एक अच्छे कवि थे। उन्होंने महाकवि ग्वाल को अपने दरबार में रख लिया। नाभा दरवार में उस समय जितने राज्याधित कवि थे उनमें वृन्दावन निवासी गोपालराय 'नबीन' प्रमुख थे; जिनसे म्बालजी का अच्छा परिचय था। बचपन में दोनों ने वृन्दावन में गोस्वामी दयानिधि की पाठशाला में एक साथ काम्यशिक्षा प्राप्त की थी। बहुत संभव है कि नवीनजी की प्रेरणा से ही ग्वाल नाभा दरबार में पहुंचे हों। रसिकानन्द प्रन्थ की रचना सं॰ १८७९ वि॰ में नाभा में हुई थी। इससे अनुमान होता है कि बाल सं॰ १८७९ वि॰ के पूर्व नाभा गये थे। अंतर्साक्ष्य के आधार पर सं॰ १८९१ वि॰ में 'कवि दपण' तथा सं॰ १८९३ वि॰ में 'हमीरों' की रचना अमृतसर में की गयी थो। कवि उस समय सरदार लहनासिंह का आश्रित था। इतिहासकार सैयद मुहम्मद लसीफ के अनुसार सरदार लहनासिंह देशराजसिंह मजीठिया का पुत्र था जो महाराजा रणजीतसिंह द्वारा पहाड़ी राज्य का शासक नियुक्त किया था। परन्तु वह अमृतसर में रहकर ही राजकाज करता था। लहनासिंह कई भाषाओं के शाता और ज्योतिष के अच्छे जानकार थे। लाहौर के महाराजा रणजीतसिंह (सं॰ १८३७–१८९६ वि॰) ने अल्पावस्था में ही सं॰ १८४७ वि॰ में राजकाज संभाला था और सं॰ १८५८ वि॰ में महाराजा की उपाधि धारण की और उनकी मृत्यु सं० १८९६ वि॰ में हुई। अंतर्साक्ष्य के आधार पर 'विजय विनोद' की रचना सं॰ १९०१ वि॰ में पूर्ण हुई। महाराजा शेरसिंह की मृत्यु सं॰ १९०३ वि॰ में हुई। 'विजय विनोद' में महाराजा रणजीतसिंह के राज्य से शेरसिंह के काल तक का, लाहौर दरबार के षड्यंत्रों और युद्धों का कवि ने ऐसा सजीव चित्रण किया है कि कवि ने जैसे सब कुछ अपनी आँखों से देखा हो। ये जीते जागते चित्र महाराजा रणजीतसिंह के दरबार में ग्वाल की उपस्थिति के प्रबल प्रमाण हैं। परन्तु कवि लाहौर दरबार में किस संवत् में उपस्थित हुआ, इसका स्पष्ट उल्लेख नहीं मिलता। कवि सं॰ १८९३ वि॰ तक अमृतसर में था। इसके पश्चात् ही कभी वह रणजीतसिंह की मृत्य (सं॰ १८९६ वि॰) के पूर्व लाहौर पहुँचा होगा, जहाँ पर संवत् १८९१ वि॰ तक उसका रहना प्रमाणित होता है। पं॰ चन्द्रकान्तबाली के मतानुसार ग्वाल कवि लाहौर दरबार छोड़कर पुनः नाभा गये थे। राजा जसवंत सिंह को मृत्यु (सं॰ १८९७ वि॰) के उपरांत उनके अठारह वर्षीय पुत्र देवेन्द्रसिंह अपदस्थ कर दिये गये। इसके पश्चात् उनके पुत्र भरपूरसिंह आठ वर्ष की उम्र में ही राजा बनाये गये। बाल भरपूरसिंह के दरबार में रहे और यहीं उन्होंने 'गुरु पचासा' की रचना की। सं॰ १९१७ वि॰ में उन्होंने यहीं रहते हुए भीरहसन को प्रसिद्ध मसनवी 'सिहर उल बयान' का 'इश्क लहर दरयाव' नाम से काव्यानुवाद प्रस्तुत किया। अंतक्ष्यि के आधार पर यह अन्य राजाशा से ही लिखा गया था। अतएव नाभा में कवि बाल दूसरी बार भी रहे, यह प्रमाणित हो जाता है। कवि नवनीत चतुर्वेदी ने लिखा है कि म्वाल ने लाहौर से चलकर पंजाब की सुकेतमंडी में अपना डेरा डाला। वहां के शासक ने उनका स्वागत किया। खाल वहीं रहने लगे और अपने दोनों लड़कों-खूबचन्द और खेमचन्द को भी वहीं बुला लिया। यहाँ ग्वाल को जीविका के लिए एक गांव भी मिला था। कुछ समय पश्रात् ग्वाल खूबचन्द के साथ मथुरा आ गये और खेमचन्द को वहीं मण्डी में गांव आदि के प्रबन्ध के लिए छोड़ दिया। मथुरा आने के बाद ग्वाल कभी-कभी राजपूताने की रियासतों में भी दौरा लगा आते थे। टोंक के नवाब के लिए उन्होंने खड़ी बोली में 'कृष्णाष्टक' की रचना को जिसे उन्होंने खूब पसन्द किया। किन्तु यह प्रमाणित नहीं होता। म्वाल का अन्तिम समय रामपुर में व्यतीत हुमा था। वहाँ के शासक हिन्दी-उर्दू के ज्ञाता और काव्य-मर्मज्ञ थे। नवाबजादा इमदादुल्लाखां 'ताब' वाल के शिष्य हो गये थे। यहीं ग्वाल का देहान्त हुआ जिसका मुंशी अहमद मीनाई 'अमीर' साहब ने अपने ग्वाल विषयक संस्मरणों में उल्लेख किया है।

बंश परिचय
ग्वालजी के दो पुत्र थे––खूबचन्द और खेमचन्द। दोनों ही विवाहित थे। कविता करने की प्रतिभा दोनों में थी। नवनीतजी के अनुसार निःसंतान खूबचन्द की युवावस्था में ही मृत्यु हो गयी थी। खेमचन्द कवि के साथ मण्डी में रहने लगा था। जहां से वह वापिस लौट कर मथुरा नहीं आया। उसकी पत्नी कवि की मृत्यु तक मथुरा में ग्वाल की हवेली में ही रही किन्तु उसके भी कोई सन्तान नहीं थी। अतएव ग्वाल का वंश आगे नचल सका।
सम्प्रदाय

ग्वाल किस सम्प्रदाय से जुड़े हुए थे तथा उनके इष्टदेव कौन थे? आदि प्रश्न विवादग्रस्त रहे हैं। ग्वाल के पिता राधावल्लभीय गोस्वामियों के राय थे। ग्वाल ने स्वयं राधावल्लभीय गोस्वामियों के गुरु दयानिधि से आरम्भिक शिक्षा प्राप्त की थी। राधाकृष्ण और गोप-गोपियों सम्बन्धी भक्तिपरक साहित्य की रचना के कारण उनको कुछ विद्वान् वैष्णव अथवा राधावल्लभीय मानते हैं। 'निम्बार्क स्वाम्यष्टक' की रचना करने के कारण कुछ विद्वान् उन्हें निम्बार्कमतावलम्बी मानते हैं। जगदम्बा का भी ग्वाल ने पर्याप्त वर्णन किया है। इसलिए कुछ उन्हें शाक्त भी कहते हैं। वस्तुतः उनकी रचनाओं के सूक्ष्म अध्ययन से यह प्रमाणित होता है कि कवि किसी सम्प्रदाय विशेष का अनुगामी अथवा आग्रही न था। एक भक्त के रूप में उसने सभी देवी-देवताओं की स्तुति की है। सामान्य रूप से कवि शिवजी का उपासक था और जगदम्बा उनकी इष्टदेवी थी। ग्वाल का बनवाया हुआ शिव-जगदम्बा का ग्वालेश्वर मन्दिर इस मान्यता का प्रत्यक्ष प्रमाण है।

व्यक्तित्व

महाकवि ग्वाल की आकृति बड़ी भव्य और आकर्षक थी। उनका कद मझोला और वर्ण श्याम था। वे अपने मस्तक पर सदैव केसरिया अर्द्धचन्द्र लगाया करते थे और तन पर बंढ़िया अंगरखा तथा सिर पर केसरिया पाग पहिना करते थे। वे कंधे पर गर्मी व वर्षा में बनारसी सेला और जाड़े में काश्मीरी दुशाला धारण करते थे। उनकी प्रकृति ओजपूर्ण थी और वे स्वभाव से कुछ अक्खड़ थे। उन्हें अपने पांडित्य का अभिमान था। अतः किसी भी कवि पण्डित से शास्त्रार्थ करने को वे सदैव तैयार रहते थे। उन्होंने अपने 'कविदर्पण' ग्रन्य में अनेक कवियों के दोषों का कथन किया है। इसलिए समकालीन कवि समाज उनसे रुष्ट भी रहा करता था। फिर भी उनके पाण्डित्य और काव्य चमत्कार का सभी लोहा मानते थे। दूर दूर से कवि लोग ग्वाल से काव्य-शिक्षा ग्रहण करने आते थे। इनके शिष्यों की भी एक लम्बी सूची है जिनमें से खड्गसिंह किशोर और साधुराम प्रसिद्ध कवि हुए हैं। कवि ग्वाल में आचार्यसुलभ स्वाभिमान था। उन्होंने अपने विस्तृत देशाटन के अनुभवों से व्यवहार कुशलता, वाग्विदग्धता और प्रत्युत्पन्नमतित्व को प्रखर और परिपक्व किया था जिससे हिन्दू होते हुए भी कवि मुसलमान और सिखों द्वारा प्रशंसित तथा पुरस्कृत हुआ था। संक्षेप में कहा जा सकता है कि ग्वाल का व्यक्तित्व असाधारण था। मीनाई साहब के अनुसार ग्वाल की मृत्यु सं॰ १९२४ वि॰ में हुई थी।

रचनाएँ

ग्बालजी को मृत्यु के अनन्तर उनके तथाकथित भित्र नाथूलाल शाह ग्वाल की जमा की हुई समस्त संपत्ति हड़प गये और षड्यन्त्र कर ग्वाल की पुत्रवधू को भी हवेली से निकाल दिया। जब यह मामला अदालत में गया तो उक्त हवेली से ग्वालजी का सम्बन्ध सिद्ध न हो, इसलिए उसमें रखे हुए कागज-पत्रों में आग लगवा दी गयी जिससे कवि ग्वाल के कई ग्रन्थों की हस्तलिखित प्रतियाँ तथा उनके संगृहीत अनेक दुर्लभ हस्तलिखित ग्रन्थ भी जलकर भस्म हो गये। ग्वालजी के समकालीन कवि नवनीत के वंशजों से ज्ञात हुआ कि कुछ अन्य नवनीत जी ने जलते हुए मकान में घुस कर बचा लिये थे। इस प्रकार ग्वालजी के अभिन्न मित्र के कारण ही यशकीर्तिस्वरूप उनका साहित्य दुर्लभ हो गया।

अब तक विद्वानों ने महाकवि बाल के इकतीस प्रामाणिक ग्रन्थ स्वीकार किये है जिनमें रसरंग, कविदर्पण, प्रस्तार प्रकाश, साहित्यानन्द, रसिकानंद, हमीर हठ, विजय विनोद, नेह निबाह, वंशीवीसा, निम्बार्क स्वाम्यष्टक, गुरुपचासा, इश्क लहर दरयाव आदि इनकी मुख्य रचनाएँ हैं। इनकी अन्तिम रचना 'भक्तभावन' हैं। 'भक्तभावन' ग्वाल की भक्ति-परक रचनाओं का संग्रह है जिसका संकलन स्वयं कवि ने सं॰ १९१९ वि॰ में मथुरा में किया था। हस्तलिखित प्रति में इसका उल्लेख इस प्रकार किया गया है।

'तिनके चरनांबुजन को, करि साष्टांग प्रनाम।
ग्रन्थ फुटकरन को करत, एक ग्रन्थ अभिराम।
बंदी विप्रसु ग्वाल कवि, श्री मथुरा सुखधाम।
'भक्तभावन' जु ग्रन्थ को, धर्यो बुद्धि बल नाम।
संवत निधि ससि निधि ससी, मास बखान।
सितपख दुनिया रवि विषै, प्रगट्यौ ग्रंथ सुजान।'

हस्तलिखित प्रति और प्रतिलिपिकार

सुप्रसिद्ध परवर्ती रीतिकालीन कवि ग्वाल द्वारा विरचित 'भक्तभावन' की हस्तलिखित प्रति महाराजा सयाजीराव विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग द्वारा आयोजित शोधयात्राओं में गुजरात के शोधक, विद्वान, कवि एवं आचार्य गोविन्द गिल्लाभाई के निजी संग्रह से बड़े यत्नपूर्वक प्राप्त हुई है। सम्प्रति यह प्रति महाराजा सयाजीराव विश्वविद्यालय के प्राच्य विद्या-मन्दिर के हस्तलिखित विभाग में सुरक्षित है। वास्तव में 'भक्तभावन' महाकवि ग्वाल का कोई स्वतन्त्र ग्रन्थ न होकर अनेक भनिप्रधान मुक्तक ग्रन्यों का संग्रह है जिसे स्वयं कवि ग्वाल ने अपने जीवन के अन्तिम दशक में किया था। सम्भवतः भक्तिप्रधान रचनाओं का संकलन होने के कारण ही ग्वाल ने इसका नामकरण 'भक्तभावन' किया था।

प्रस्तुत हस्तलिखित प्रति के प्रतिलिपिकार गुजरात के प्रसिद्ध कवि गोविन्द गिल्लाभाई हैं जिन्होंने स्वयं हिन्दी भाषा में अनेक ग्रन्थों का प्रणयन करके हिन्दी साहित्य को समृद्ध बनाया है। इसको मूल प्रति उन्हें मथुरा निवासी ग्वाल के समकालीन कवि नवनीत चतुर्वेदी से प्राप्त हुई थी। इसका उल्लेख हस्तलिखित प्रति के अन्त में अंकित 'पुष्पिका' में इस प्रकार किया गया है: "विक्रम संवत् १९५३ का माघ वदी १० शुक्रवार के दिन श्री सिहोर में गोविन्द गिलाभाई ने यह ग्रन्थ मथुरा से कवि नवनीत जी की पास से मंगाय के उन प्रति पर से यह प्रति स्वार्थे स्वहस्ते लिखके पूरी की है।"

डॉ॰ भगवानसहाय पचौरी के पास भी 'भक्तभावन' की प्रतिलिपि है। यह प्रतिलिपि उन्होंने कवि नवनीत के पास की हस्तलिखित प्रति से की है। उनके अनुसार कवि नवनीत के पास की हस्तलिखित प्रति स्याही, कागज तथा लिखावट की दृष्टि से स्वयं ग्वाल लिखित है। हमारा अनुमान है कि गोविन्द गिल्लाभाई तथा डॉ॰ भगवानसहाय पचौरी दोनों ने ही कवि नवनीत के पास उपलब्ध हस्तलिखित प्रति पर से प्रतिलिपि की है। अतएव दोनों प्रतिलिपियों में विशेष अन्तर की सम्भावना नहीं है। इस दृष्टि से प्रस्तुत हस्तलिखित प्रतिलिपि की प्रामाणिकता असंदिग्ध रूप से स्वीकार की जा सकती है। खेद है कि हमें प्रयास करने के बाद भी डॉ॰ पचौरी के पासवाली सम्पूर्ण प्रतिलिपि प्राप्त नहीं हो सकी।

हस्तलिखित प्रति का विवरण

यह प्रतिलिपि एक सौ दो पूर्ण साइज के पृष्ठों में लिखी हुई है। परिशिष्ट में ग्वाल कृत नेह निबाह, बंशी वीसा तथा कुब्जाष्टक पृथक्-पृथक रूप से दिये हुए हैं। परिशिष्ट को मिलाकर कुल पत्र संख्या एक सौ सोलह है। लिखावट अत्यन्त स्वच्छ एवं यथासंभव वतनी के दोर्षों से मुक्त। इसमें सोलह छोटे-छोटे ग्रन्थ पृथक्-पृथक् नामोल्लेख सहित संगृहीत हैं। प्रत्येक ग्रन्थ को छन्द क्रमसंख्या एक से आरम्भ की गयी है और अन्त में ग्रन्थ 'सम्पूर्ण' का भी उल्लेख किया गया है जिससे इनके पृथक्करण की समस्या भी भलीभांति समाधान पा जाती है। संगृहीत ग्रन्थ निम्नलिखित है––

१. यमुनालहरी––छन्द संख्या १०८ कवित्त, ५ दोहे, कुल मिलाकर ११३ छन्द। पत्र संख्या १ से २१ तक सम्पूर्ण।

२. श्रीकृष्ण को नखसिख––छन्द संख्या १ से ६५ तक। पत्र संख्या २१ से ३२ तक, सम्पूर्ण।

३. गोपी पचीसी––छन्द संख्या १ से २५ तक। पत्र संख्या ३३ से ३७ तक, सम्पूर्ण।

४. राधाषाष्टक––छन्द संख्या १ वे ८ तक। पत्र संख्या ३७ से ३८ तक, सम्पूर्ण।

५. कृष्णाटक––छन्द संख्या १ से ८ तक। पत्र संख्या ३९ से ४० सक, सम्पूर्ण।

६. रामाष्टक––छन्द संख्या १ से ८ तक। पत्र संख्या ४० से ४१ तक, सम्पूर्ण।

७. गंगास्तुति––छन्द संख्या १ से १५ तक। पत्र संख्या ४२ से ४५ तक, सम्पूर्ण।

८. दशमहाविद्यान को स्तुति––छन्द संख्या १ से १२ तक। पत्र संख्या ४५ से ४७ तक, सम्पूर्ण।

९. ज्वालाष्टक––छन्द संख्या १ से ८ तक। पत्र संख्या ४८ से ५० तक, सम्पूर्ण।

१०. प्रथम गणेशाष्टक––छन्द संख्या १ से ८ तक। पत्र संख्या ५१ से ५३ तक, सम्पूर्ण।

११. द्वितीय गणेशाष्टक––छन्द संख्या १ से ८ तक पत्र संख्या ५४ से ५५ तक, सम्पूर्ण।

१२. शिवावि देवतान को स्तुति––छन्द संख्या १ से ३४ तक। पत्र संख्या ५५ से ६० तक, सम्पूर्ण।

१३. षट्पतु वर्णन तथा अन्योक्ति––छन्द संख्या १ से १२४ तक। पत्र संख्या ६० से ८३ तक, सम्पूर्ण।

१४. प्रस्तावक नीति कवित––छन्द संख्या १से ४० तक। पत्र संख्या ८३ से ९० सक, सम्पूर्ण। १५. दुगक्षतक––छन्द संख्या १ से १०३ तक। पत्र संख्या ९० से ९८ तक, सम्पूर्ण।

१६. भक्ति और शान्तरस के कवित्त––छन्द संख्या १ से २३ तक। पत्र संख्या ९८ से १०२ तक, सम्पूर्ण।

इति भक्तभावन ग्रन्थ पूर्णम्।

परिशिष्ट

१. नेह निबाह छन्द––छन्द संख्या १ से ३० तक। पत्र संख्या १०५ से ११० तक, सम्पूर्ण।

२. बंशी वीसा––छन्द संख्या १ से २० तक। पत्र संख्या १११ से ११४ तक, सम्पूर्ण।

३. कुन्जाष्टक––छन्द संख्या १ से ८ तक। पत्र संख्या ११५ से ११६ तक, सम्पूर्ण।

काव्यपरिचय

इनमें से यमुना लहरी', श्रीकृष्णजू को नखशिख" तथा षट्ऋतु वर्णन" प्रकाशित है। किन्तु इनके प्रकाशित संस्करण संप्रति अनुपलब्ध ही है। संभवतः अन्य सभी रचनाएँ अप्रकाशित हैं। संगृहीत ग्रन्थों का संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है––

१. यमुनालहरी––यह यमुना स्तुति में लिखी गयी महाकवि ग्वाल की प्रथम प्रसिद्ध रचना है। प्रारम्भ के मंगलाचरण के दोहे में राधा को स्तुति की गयी है :––

श्रीवृषभान कुमारिका, त्रिभुवन सारक नाम।
सीस नवावत ग्वाल कवि, सिद्ध कीजिये काम।

बाद के दोहों में ग्वालजी ने अपना परिचय इस प्रकार प्रस्तुत किया है :––

वासी वृन्दा विपिन के, भी मथुरा सुखवास,
श्री जगदम्बा दई हमें, कविता विमल विकास।
विदित विप्र बन्दी विशद, बरने ध्यास पुरान।
ताकुल सेवाराम को, सुत कवि ग्वाल सुजान।

ग्रन्थ के अन्त में इसका रचनाकाल कार्तिक पूर्णमासी सं॰ १८७९ वि॰ दिया हुआ है :––

संवत निधि' रिसिसिद्धि ससि' कातिक मास सुजान।
पूरनमासी परमप्रिय राधा हरिको ध्यान।
भयौ प्रगट वाही सुदिन, यमुना लहरी ग्रन्थ।
पढ़े सुनै आनन्द मिलै जानि परै सब पन्थ।

वामगणना से सं॰ १८७९ वि॰ ही निकलता है तथा विद्वानों के द्वारा भी यही रचनाकाल मान्य है।

प्रस्तुत रचना में ग्वालजी ने यमुना के माहात्म्य का बड़ा ही रसपूर्ण चित्रण किया है। कवि ने यमुना की पावनता, नाम महिमा, यश-कीर्ति-दर्शन-फल, लोक प्रसिद्धि, पापनाशिनी, पतिततारिणी, स्नान माहात्म्य का वर्णन करने के साथ ही साथ उसके धार्मिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, पौराणिक एवं नैतिक पक्षों का भी बड़ा ही मनोज्ञ, भाववाही और काव्यमय चित्रण किया है। निम्नलिखित कवित्त में दिनेश-तनया की महिमा का इस प्रकार गुणगान किया गया है:–

गावैं गुन नारद न पावैं पार सनकादि,
बन्दीजन हारै हरी मेघा मंजु सेस की।
दास किये तें अति हरस सरस होत,
परम पुनीत होत पदवी सुरेस की।
ग्वाल कवि महिमा कही न परै काहु विधि,
बैठी रहै महिमा दसा है यो गनेस की।
तारक जमेंस की विदारक कलेस की है,
तारक हमेंस की है तनया दिनेस की।

इसमें ग्वाल ने अपने प्रिय विषय नवरस और षट्ऋतुओं का भी वर्णन किया है जिसके लिए उन्हें आचार्य रामचन्द्र शुक्ल का कोप भाजन बनना पड़ा था।[] वीर रस का एक उदाहरण प्रस्तुत है:–

दीह दुराचारी व्यभिचारी अनाचारी एक,
न्हाई जमुना में कह्यो कैसे में उघरिहों।
फेर प्रान त्यागे भुज चार भई ताही ठौर,
आयो जमदूत कहे तोहि में पकरिहों।
ग्वाल कवि एतो सुनि भाग्यबलि भाख्यो वह,
निज भुजदण्ड को घमण्ड अनुसरिहों।
तोरि जम दण्ड को मरोरि बाहु दण्ड को सु,
फोरि फारि मंडल अखंड खंड करिहों।

विद्वानों का अभिमत है कि यह रचना महाकवि पद्माकर की सुप्रसिद्ध रचना 'गंगा-लहरी' के आधार पर लिखी गयी है। किन्तु डॉ॰ भगवानसहाय पचौरी का मत है कि यह कवि का तृतीय ग्रंथ है तथा इसे लिखने की प्रेरणा उन्हें पण्डितराज जगन्नाथ की संस्कृत रचना गंगालहरी से मिली, पद्माकर की गंगालहरी से नहीं। पद्माकर की गंगालहरी वस्तुतः ग्वाल की यमुना लहरी के चार-पाँच वर्ष उपरांत की रचना है।[]

२. श्रीकृष्णजू को नखशिख :
यह महाकवि ग्वाल की एक अति प्रसिद्ध शृङ्गारिक रचना मानी जाती है। इसमें श्रीकृष्ण के नखशिख का रीतिकालीन पद्धति के अनुसार अत्यन्त सुन्दर विवेचन किया गया है। 'नखशिख' के अनेक छंद कवि के रसिकानंद, रसरंग, साहित्यानंद आदि ग्रंथों में भी प्राप्त होते हैं। भक्तभावन में ग्वालजी ने इसे अविकल रूप में संगृहीत किया है। इसका रचनाकाल इस प्रकार दिया हुआ है:–

वेद सिद्धि अहि 'रैनिकर संवत आश्विन मास
भयो दशहरा को प्रगट नखशिख सरस प्रकाश।

वामगणना से सं॰ १८८४ वि॰ ही निकलता है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, डॉ॰ किशोरीलाल गुप्त तथा डॉ॰ महेन्द्रकुमार ने भी अंताक्ष्यि के आधार पर इसी तिथि को मान्य किया है।

काव्य का प्रारम्भ कवि ने मंगलाचरण से किया है जिसमें उसने राधा और सरस्वती की श्लेष से सुन्दर वंदना प्रस्तुत की है। उसके पश्चात् कृष्ण, महेश, गणेश, गुरु, जगदम्बा तथा पिता का स्मरण किया है। कवि ने श्रीकृष्ण को आलम्बन बनाकर उनके चरण, नरणनख, चरणभूषण, जंघा, नितम्ब, कटि, काछनी, नाभि, त्रिबली, रोमराजि, उदर, भृगुलता, वक्षस्थल, वनमाल, कर, लकुट, बाँसुरी, कंठ, कंठमाल, चोटी, चिंबुक, अघर, दशन, रसना, मुखसुवास, हास्य, नासिका, कपोल, कर्ण, कर्णाभूषण, नेत्र, चितवन, भृकुटी, भाल, मुखमण्डल, मोरमुकुट, गति, पीटपट तथा सम्पूर्ण मूर्ति का विशद काव्यमय चित्र प्रस्तुत किया है। प्रधान रूप से सभी रीतिकालीन कवियों ने नायक की अपेक्षा नायिका के नखशिख का बड़े ही विस्तार से कलात्मक चित्रण किया है। किन्तु महाकवि ग्वाल के सम्बन्ध में विशेष रूप से उल्लेखनीय यह है कि उन्होंने प्रस्तुत रचना में नायक के नखशिख का बहुत ही सुन्दर, ललित, मधुर तथा कलापूर्ण चित्र अंकित किया है। भाषा काव्यानुरूप है। इस नखशिख वर्णन में शृंगार की अपेक्षा भक्ति की प्रधानता दिखाई पड़ती है। कायिक सौन्दर्य के साथ ही अन्तर्वर्ती सौन्दर्य का उद्घाटन करना भी कवि का लक्ष्य रहा है। एक उदाहरण प्रस्तुत है।

मीन मृग खंजन खिस्यान भरे मैन बान,
अधिक गिलान भरे कंज फल ताल के।
राधिका छबीली की छहर छवि छाक भरे,
छैलता के छोर भरे भरे छबि जाल के।
ग्वाल कवि आन भरे सान भरे तान भरे,
कछु अलसान भरे भरे मान भाल के।
लाज भरे लाग भरे लोभ भरे शोभ भरे,
लाली भरे लाड़ भरे लोचन है लाल के।

३. गोपी पचीसी : यह काव्य की पचीसी परम्परा में पच्चीस कवित्त सर्वयों का कृष्ण भक्तिपरक एक उपालम्भ काव्य है। इसके रचना काल के सम्बन्ध में अलग से कोई प्रमाण प्राप्त नहीं होता है। 'भक्तभावन' में नखशिख के बाद यह रचना संगृहीत है। अतएव पूर्वापर क्रम के अनुसार सम्भव है 'नख शिख' के बाद इसकी रचना की गयी हो।

कृष्णमित्र उद्धव जी ब्रज में ब्रजबालाओं को ज्ञानयोग की शिक्षा प्रदान करने आते हैं। किन्तु बेचारी गोपियां साक्षात् रसरूप श्रीकृष्ण की रसिक लीलाओं को छोड़कर उद्धवजी के सुष्का शापयोग के उपदेश को ग्रहण करना नहीं चाहती हैं। उन्हें तो वहाँ उद्धवजी की उपस्थिति ही मम न्तिक पीड़ा का अनुभव कराती हैं। वे उद्धव के व्याज से कृष्ण को उपालम्भ देती है। देखिये––

गोपिन के काज जोग साज दै पठायो ऊधौ
आवत न लाज डीठ प्रानन पियौ चहै।
बरी ही वियोग-बिरहाग्नि भभूकन में,
ता पर सलूक लूक लाखन दियौ चहै।
ग्वाल कवि कान्हर की कौन कुटिलाई कहै
जरै पै लगावै नोन, काटन हियौ चहै।
कंस की जो चेली, ताको चेला भयो हाय दैया,
हमें भेज सेली चेली आपुन कियौ चहै।

४. राधाष्टक : काव्य की अष्टक परम्परा में यह ग्रन्थ लिखा गया है। इसके रचनाकाल का कोई प्रामाणिक आधार प्राप्त नहीं होता है। 'भक्तभावन' में यह रचना 'गोपी पचीसी' के बाद संकलित है। यह भक्तिकाव्य है। विशेष रूप से उल्लेखनीय यह है कि यद्यपि कवि ने राधारानी के वर्णन में रीतिकालीन तामझाम और उपकरण ग्रहण किये हैं फिर भी उसका एकमात्र लक्ष्य और उद्देश्य राधा की स्तुति ही रहा है। एक उदाहरण प्रस्तुत है :––

राधा महारानी मनि मन्दिर विराजमान,
मुकुर मयंक से जहाँ जड़ावकारी में।
बावले बनाव के बिछौने बिछे बेसुमार,
बोजुरी बिरी बनाय देत बलिहारी में।
ग्वाल कवि सुमन सुगन्धित केसर ले ले,
सची सुकुमार सो सुंघाये शोम भारी में।
दारा देवतान को दिमाकदार दिस दिस,
द्वार-द्वार दौरि फिरे खिदमतदारी में।

५. कृष्णाष्टक : यह रचना भी काव्य की अष्टक परम्परा में श्री कृष्ण को लक्ष्य करके रची गयी है। इसके रचना काल का भी कोई आधारभूत प्रमाण प्राप्त नहीं होता है। किन्तु बजभाषा काव्य के प्रसिद्ध विद्वान् प्रभुदयाल मित्तल का मत है कि ग्वाल ने इसकी रचना टोंक के नवाब के लिए की थी। किन्तु टोंक दरबार में भी इसका कोई आलेख-प्रमाण उपलब्ध नहीं होता है और न ही कोई अन्तक्ष्यि इस बात को प्रमाणित करने के लिए ही प्राप्त होता है। अतएव यह निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता कि इसकी रचना कब और किसके लिए की गयी होगी।" इसमें आठ कवित्त हैं जिनका अन्तिम चरण सर्वत्र एक जैसा है :––

"चार सर वाले से कारिंदे हैं जिसी के वही
 बंदे पे मेहरबान नजर बुलन्द है।"

अनुमान है कि ग्वालजी ने यह रचना समस्यापूर्ति के रूप में को होगी। उस समय राजदरबारों में आशुकवियों द्वारा समस्या पूर्ति की प्रथा भी प्रचलित थी। इसमें उर्दू, फारसी मिश्रित खड़ी बोली को ब्रजभाषा के परम्परागत छन्द कवित्त में ढालने का सफल और स्तुत्य प्रयास कवि ने किया है। खड़ी बोली के प्रयोग तथा विकास की दृष्टि से इस रचना का एक विशेष महत्व स्वीकार किया जा सकता है। ६. रामाष्टक : हमारा अनुमान है कि भक्ति की लोक सामान्य धारणा के कारण 'कृष्णाष्टक' के साथ ही साथ कवि ने 'रामाष्टक' की भी रचना की होगी। इसमें भगवान राम की स्तुति की गयी है। अपने आपको पापी मानते हुए अन्य भक्त कवियों के समान ही ग्वाल भी प्रभु राम को उसी प्रकार की चुनौती देते हुए दिखाई पड़ते हैं––

गीधे गीधै तारिकें सुतारिकै उतारिकै जू;
पारिके हिये में निज बात जटि जायगी।
तारिके अवधि करी अवधि सुतारिबे की,
विपति विदारिवे की फांस कटि जायगी।
ग्वाल कवि सहज न तारिबो हमारो गिनो,
कठिन परेमी पाप पांति पढ़ि जायगी।
यातें जो न तारिहों तिहारी सौंह रघुनाथ,
अधम उघारिबे की साख घटि जायगी।

भक्ति की अनन्यता और तल्लीनता इसमें दिखाई पड़ती है। भाषा भी मंजुल, मनोहर और भाववाही है। इसके रचनाकाल का उल्लेख प्राप्त नहीं होता है। किन्तु इसका एक कवित्त 'रसरंग' में कवि ने उद्धृत किया है। 'रसरंग' का रचनाकाल १९०४ वि॰ है। अतएव कहा जा सकता है कि इसकी रचना इससे पूर्व हुई होगी।"

७. गंगास्तुति : यह भी भक्तिकाव्य है और इसमें गंगा की स्तुति की गयी है। गंगा के माहात्म्य का वर्णन करना ही कवि का उद्देश्य रहा है। सम्भव है ग्वाल ने पनाकर की गंगा लहरी से प्रेरणा लेकर इसकी रचना की हो। एक उदाहरण प्रस्तुत है :––

आई कढ़ि गंगे तू पहार बिंद मंदिर ते,
याही ते गुविंद गात स्याम हर औरे हैं।
फेर घसि निकस परी है तू कमंडल तें,
याही ते विरंचि परे पीरे चहुँ कोरे हैं।
ग्वाल कवि कह तेरे विरही विरंग ऐसे,
गिरही तिहारे तें बखाने रिस जोरे हैं।
स्याम रंग अंगन तो चाहिये तमोगुनी को,
पारी सीस ईस यातें अंग अंग गोरे हैं।

इसका एक छन्द रसिकानन्द में २११३३ और एक छन्द 'रसरंग' में ८७० प्राप्त होता है। अतएव यही कहा जा सकता है कि सं॰ १८७९ वि॰ से १९०४ वि॰ के मध्य इसकी रचना हुई होगी।

८. वशमहाविद्यान की स्तुति : संस्कृत साहित्य में देवी-देवताओं को लेकर स्तोत्र काव्य लिखने की परम्परा रही है। इसी परम्परा को लेकर ब्रजभाषा में लिखी गयी यह रचना प्रतीत होती है। इसमें महाकाली, तारा, विद्याषोडशी, भुवनेश्वरी, भैरवी, छिन्नमस्ता धूमावती, बगुलामुखी, मातंगी, कमला की वन्दना में कवित्त लिखे गये हैं। रचनातिथि के सम्बन्ध में कोई ठोस प्रमाण उपलब्ध नहीं होता है किन्तु भाषाशैली के आधार पर यह कवि के प्रौढकाल को रचना ज्ञात होती है। ताराजी की वन्दना इस प्रकार की गयी है :––

दशन दुभुज अघकर्त्री अर्घ खड्ग खुल्यो,
वाम अघ कर में कपाल है विराजमान।
ऊर्ध्वकर नीलकंज चारोकर अरुनाई,
नील धन दुति देह दन्त खर्व कुन्द जान।
ग्वाल कवि जिह्वा दीह तीन द्रग शशिभाल,
बद्धित सुकेश शशि पांचन सों शोभवान।
बहुमुख सर्प सेत शीश पें सो छत्र रहे,
द्वितीया श्री ताराजी को ऐसे करो नित ध्यान।

९. ज्वालाष्टक : ज्वालादेवी की वन्दना में यह अष्टक काव्य लिखा गया है। इसका रचनाकाल भी प्रामाणिक रूप से उपलब्ध नहीं होता है। किन्तु रसिकानन्द, गुरुपचासा और कवि-हृदय विनोद में भी इसके छन्द प्राप्त होते हैं। अतः ऐसा प्रतीत होता है कि इसके छन्द सं॰ १८७९ वि॰ और १९१ वि॰ के मध्य कभी लिखे गये होंगे। प्रस्तुत कवित्त में ज्वाला देवी के स्वरूप का कषि ने बड़ा ही सुन्दर चित्रण किया है––

एरी मात ज्वाला जोति जाला की कहो में कहा,
कौतुक विशाला गति अद्भुत तेरी है।
मानतें पाशाम तेसु चक्रहू ते पुष्ट झार,
दुष्टन के दल में दबरि होत बेरी है।
ग्वाल कवि दासन को शीतल सदाई ऐसी,
जैसी है सु तैसी सो को क्यों मति मेरी है।
चंदन सी चंद्रमासी चंद्रिका ते चौगुनी सी,
जरूसी हिमंत सी हिमालय सी हेरी है।

१०–११. प्रथम तथा द्वितीय गणेशाष्टक : ये भी भक्ति की रचनाएं हैं। दोनों की ही रचनातिथि का कोई प्रामाणिक आधार प्राप्त नहीं होता है। दोनों अष्टकों में गणेशजी की पारम्परिक रूप से ही वन्दना की गयी है। प्रथम गणेशाष्टक के आठों कवित्तों में निम्न पंक्ति सर्वत्र प्रयुक्त हुई है––

"रीझैं बार-बार बार लावे नहिं एको बार,
ऐसो को उदार जग महिमा अपार हैं।"

द्वितीय गणेशाष्टक के आठों छन्दों की अन्तिम पंक्ति इस प्रकार है––

"सुजस सुवासन के दायक हुलासन के,
नाम के प्रकाशन गनेश महाराज है।"

ऐसा प्रतीत होता है कि ग्वाल ने कवि जीवन के प्रारम्भ में विघ्न विनाशक देवता गणेशणी की वन्दना में ये कवित्त लिखे होंगे। भाषा की दृष्टि से भी ये उनके प्रारम्भिक काल की रचनाएँ ही ज्ञात होती हैं।

१२. शिवादि देवतान की स्तुति––इसमें शिवजी, हनुमान, भैरों, सूर्य, त्रिवेणी, स्वामी कातिकेय, ब्रह्मा, इन्द्र, काली, मनसा, भवानी, नैनादेवी आदि अनेक देवी-देवताओं की स्तुति की गयी है। साथ ही मधुपुरी, वृन्दावन, काशी, त्रिवेणी आदि के माहात्म्य का भी वर्णन किया गया है। त्रिवेणी का वर्णन कवि ने इस प्रकार किया है––

दारिद दरैनी सुभ संपति भरैनी भूर,
पूरन सरेनी जसभक्ति रंग रैनी है।
चैनी जमराज की अचैनी जी जरैनी जोर,
बोर देनी कागद गुपित्र के गरैनी है।
ग्वाल कवि न्हैयत तरैनी वितरैनी तेंज,
मुक्ति परसैनी तिहुंपुर दरसैनी है।
पापन कों तापन कों छेनी अति पैनी ऐनी,
सुरगन सैनी सुख दैनी ये त्रिवेणी है।

१३. षट्ऋतु तथा अन्योक्ति वर्णन––ग्रन्थ में रचना तिथि का कोई उल्लेख प्राप्त नहीं होता है किन्तु षट्ऋतु वर्णन के अनेक छन्द रसिकानन्द (१८७९ वि॰) रसरंग, (१९०४ वि॰), साहित्यानन्द (१९०५ वि॰) तथा बलवीर विनोद (१९०२ वि॰) में उपलब्ध होते हैं। अतएव समष्ट है कि सं॰ १८७१ वि॰ से १९०५ वि॰ के मध्य फुटकर रूप से षट्ऋतु के छन्द लिखे गये होंगे किन्तु भक्तभावन में ये अविकल रूप से संगृहीत किये गये हैं।" इसमें षट्ऋतुओं का बड़ा ही वैविध्यपूर्ण और सुन्दर चित्रण किया गया है। यहाँ एक उदाहरण प्रस्तुत है जिसमें ग्वाल ने बसंत की बहार का अत्यन्त मनोहारी चित्र अंकित किया है––

सरसों के खेत की बिछायत बसंत बनी,
तामें खड़ी चाँदनी बसंती रतिकन्त की।
सोने के पलंग पर बसन बसंती वेस;
सोनजुही माले हाले हिय हुलसंत की।
ग्वाल कवि प्यारो पुखराजन को प्यालो पूरि,
प्यावत प्रिया को करे बात बिलसंत की।
राग में बसंत बाग बाग में बसंत फूल्यो,
लाग में बसंत क्या बहार है बसंत की।

ग्रन्थ के अन्त में लगभग चौबीस छन्दों में तोता, गुलाब, मालती, कदम्ब, बागवान, भौरा, हाथी, उलूक, कौआ, हंस, कमल आदि पर अन्योक्तियाँ प्रस्तुत की गयी हैं। अधिकतर वर्णन उद्दीपन रूप में ही किया गया। किन्तु कहीं-कहीं स्वतन्त्र रूप से भी प्रकृति का चित्रण सुन्दर बन पड़ा है।

१४. प्रस्तावक नीति कवित––ये छन्द भी समय-समय पर लिखे गये प्रतीत होते है। इसलिए इनकी कोई निश्चित रचना तिथि का उल्लेख प्राप्त नहीं होता है। संभव है कि प्रथम बार ही स्वयं ग्वाल द्वारा 'भक्तभावन' में इनका संग्रह किया गया हो। अतएव इनका रचनाकल भी सं॰ १९१९ वि॰ के पूर्व मानना ही उपयुक्त होगा। इनमें नीतिकथन है। ऐसा अनुमान होता है कि ग्वालजी ने परम्परानुसार जीवन तथा समाज के खट्टे-मीठे कड़, अनुभवों को काव्यभाषा में लिपिबद्ध कर दिया है। इसमें मानवता, मित्रता, शत्रुता, प्रेम निर्वाह, कविकर्म, दुर्जन-सज्जन, मूर्ख, दरिद्रता , पण्डित, लम्पट, व्यभिचारी आदि पर कवित्त प्रस्तुत किये गये हैं। उदाहरण स्वरूप मूर्ख पर लिखा गया कवित्त देखिए :––

बैठने की उठबे की बोलिबे की चलिबे की,
जानत न एको चाल आइ जग ढांचे में।
देखत में मानुष की आकृति दिखाई परे,
पर नर पशु औ परन्द है न जाँचे में।
ग्वाल कवि जानि के विरंचि तुच्छ जंतुन को,
डार और ठौर लखि ख्याल ही के खाँचे में।
कूकरतें सूकरतें गर्दभ ते उलूकतें,
काढ़ि काढ़ि जीव डारे मानुष के सांचे में।

१५. दृशातक––यह काव्य की शतक परम्परा में लिखी गई रचना है। इसमें नेत्रों को आलम्बन बनाकर सुन्दर काव्यात्मक उक्तियां प्रस्तुत की गयी हैं। प्रारम्भ के दो दोहों में मंगलाचरण है। तीसरे दोहे में ग्रन्थ रचना का उल्लेख इस प्रकार किया गया है––

संवत निषि शशि निधि शशी, फागुन पख उजियार।
द्वितीया रवि आरम्भ किया, द्रगसत सुख को सार।

अतएव स्पष्ट है कि सं॰ १९१९ वि॰ में इसकी रचना हुई है। रचना के प्रारम्भ में मंगलाचरण के बाद कविविषे तथा ग्रन्थ का परिचय दिया गया है। तत्पश्चात् शतक परम्परा में कवि ने आंख पर सौ दोहे प्रस्तुत किये हैं जिनमें कवि के काव्यकोशल के दर्शन होते हैं। एक उदाहरण प्रस्तुत है––

प्यारी तो तन ताल में फूले दृग अरविन्द,
चितवनि रस मकरन्द हित, मो मन भयो मलिन्द।

राधिका के तन रूपी सरोवर में दृगरूपी कमल खिले हुए हैं जिसके चितवन रूपी मकरन्द रस का पान करने के लिए मन रूपी भौंरा मुग्ध हो गया है। अर्थात् सांगरूपक के द्वारा कवि ने नेत्रों के आकर्षण का वर्णन किया है। विशेष रूप से उल्लेखनीय यह है कि ग्वाल के समकालीन लगभग सभी कवियों में मुक्तक रूप से नेत्रों पर अनेक छन्द लिखे हैं। किन्तु अपने युग में नेत्रों पर शतक लिखने वाले संभवतः वे अकेले ही कवि हैं।

१६. भक्ति और शान्त रस के फपित––इसके तीन छन्द रसिकानन्द में तथा तेरह छन्द रसरंग में संगृहीत हैं। इससे ऐसा प्रतीत होता है कि इन छन्दों की रचना सं॰ १८७९ वि॰ के पूर्व हुई होगी।" कि शीर्षक से ज्ञात होता है कि ये भक्ति और शान्तरस को लेकर लिखे गये कवित्त हैं। अन्त में एक कवित्त दीवाली का देकर समापन का दोहा दिया हुआ है। कवित्त इस प्रकार है :––

छाई छवि छिति पे छहर छवि छैलन की,
छमके छपाकर छटा सी बाल त्यारी पे।
उन्नत अनार अलगारन अगारन पे,
आसमान तार उठे ऊपर अगारी पे।
ग्वाल कवि जाहर जवाहर जमत जोर,
जागत जुआरी जाम जाम जर जारी पे।
दीप दीप दीपन की दीपति दवारि बाई,
जंबू दीप दीपन में दिपति दीवारी पे।

जगदम्बा राधा की स्तुति करते हुए कवि ने ग्रन्थ को समाप्त किया है :––

श्री जगदम्बा राधिका त्रिभुवन पति की प्रान
तिनके पद में मन रहे श्रीसिव दीजै दान।
इति श्री ग्वाल कवि कृत भक्तभावन ग्रन्थ सम्पूर्णम्।

इनमें से कुछ ग्रन्थ स्वतन्त्र हैं और कुछ प्रथम बार 'भक्तभावन' में ही संगृहीत किये गये हैं। अतएव 'भक्तभावन' ग्वाल कवि के समस्त भक्ति सम्बन्धी फुटकर ग्रन्थों का एक संग्रह मात्र है।

समीक्षासार

उपर्युक्त सभी ग्रन्थों का सम्यक् अनुशीलन करने के बाद हम निम्नलिखित निष्कर्षों पर पहुँचते हैं :––

१. प्रायः सभी कृतियां राधाकृष्ण को ही आलम्बन बनाकर लिखी गयी है यद्यपि कही-कहीं कवि की भावात्मक विह्वलता भी दृष्टिगत होती है परन्तु मूलतः शृंगारी कषि होने के कारण ग्वाल के हृदय में भी अन्य रीतिकवियों की भांति भक्ति की कोई स्थायी पक्षति स्थापित नहीं हो सकी। वैसे ग्वाल निम्बार्क सम्प्रदाय में दीक्षित थे किन्तु अपनी समसामयिक परिस्थितियों से मजबूर होकर उन्हें राधाकृष्ण से माफी मांगनी पड़ी थी––

श्री राधा पद पदम को, प्रनमि प्रनमि कवि ग्वाल,
छमवत है अपराध को, कियो जु कथन रसाल।

२. इन भक्तिपरक रचनाओं का सृजन कवि ने प्रायः दो कारणों से किया होगा। पहला कारण तो यह है कि रीतिकाल के पूर्व भक्ति का जो स्फीत और अखण्ड प्रवाह दिखाई पड़ता है उसके सर्वथा प्रतिकूल जाने का साहस अन्य रीति-कवियों की भांति ग्वाल का भी न हुआ। दूसरा कारण यह है कि जीवन की अतिशय रसिकता और शृंगारिकता से ऊबकर मन की विश्रांति के लिए कवि ने भक्तिपरक रचनाएँ की जो मन के अवसाद से पूर्ण हैं तथा भक्ति के सहजोल्लास, गहन आत्मनिवेदन अथवा आत्मसमर्पण के भाव से प्रायः रहित है। ३. भगवान् के प्रति रागभावना से अनुप्राणित होने के कारण अपनी अभिव्यक्ति में कवि सच्चाई को लिये हुए है। किन्तु सच्चाई और अविचल निष्ठा पर्याय नहीं है। अतएव ईमानदारी के होते हुए भी ग्वाल को भक्तिभावना पूर्ववर्ती भक्त कवियों सी अविचल निष्ठा, गहनता और लोकव्यापी विस्तार को प्राप्त नहीं कर सकी।

४. रीतिकाव्य की अभिव्यंजना प्रणाली और प्रतीक योजनाओं को न्यूनाधिक अंश में ग्रहण करते हुए भी ग्वाल का दृष्टिकोण इन रचनाओं में इस प्रकार व्यक्त हुआ है कि उनके भक्त होने में किसी प्रकार का संदेह नहीं किया जा सकता। दार्शनिक शब्दावली में कहा जा सकता है कि इनका प्रेम चिन्मुख है तो रीतिकवियों का जड़ोन्मुख।

५. संस्कृत-साहित्य में देवी-देवताओं के स्तोत्र लिखने की परम्परा रही है। महाकवि ग्वाल पर भी इसका प्रभाव दिखाई पड़ता है। उन्होंने भी लगभग सभी लोकप्रचलित देवी-देवताओं को लेकर छंद लिखे हैं जिनमें उनकी स्तुति और वंदना की गयी है। इससे भी कवि की उदार भक्तिपूर्ण दृष्टि का ही परिचय प्राप्त होता है।

६. प्रायः सभी रीतिकालीन कवियों ने कवित्त-सर्वयों और दोहों में ही रचनाएँ प्रस्तुत की है। ग्वाल ने भी इन सभी कृतियों में इसी शैली को अपनाया है। ऐसा प्रतीतक्षेता है कि ग्वाल ने 'भक्तभावन' संग्रह भक्तों के लिए किया था। इसी कारण आचार्य होने के बावजूद इन कृतियों में पांडित्य-प्रदर्शन करना उनका लक्ष्य अथवा उद्देश्य नहीं है और न ही रीतिकालीन परम्पराओं का पूर्ण निर्वाह करने में ही कवि सजग दिखाई देता है।

७. इन सभी रचनाओं में संस्कृत, अरबी, फारसी, पंजाबी, खड़ी बोली आदि की शब्दावली का प्रयोग कवि ने निःसंकोच रूप से किया है। विशेष रूप से उल्लेखनीय यह है कि ब्रजभाषा के परम्परागत छन्दों-कवित्त-सर्वयों-को खड़ी बोली में ढालने का कवि ने स्तुत्य प्रयास किया है। उर्दू-फारसी मिश्रित खड़ी बोली का प्रारम्भिक स्वरूप कवि की 'कृष्णाष्टक' आदि कृतियों में प्राप्त होता है। ऐसी कृतियों का खड़ी बोली के विकास की दृष्टि से ऐतिहासिक महत्त्व स्वीकार किया जा सकता है।

८. कल्पना वैभव और चित्रयोजना का वैसा उत्कृष्ट रूप इनकी रचनाओं में उपलब्ध नहीं होता है जैसा कि देव, बिहारी, पनाकर आदि कवियों की कृतियों में मिलता है। किन्तु उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा, यमक, श्लेष आदि अलंकारों के प्रयोग भावाभिव्यक्ति में बड़े ही मनोश और मनोहारी ढंग से हुए हैं।

९. ग्रन्थों का संकलन स्वयं कवि ग्वाल द्वारा ही किया गया है। अतएव इसके पीछे ग्वाल का दृष्टिकोण संभवतः यही रहा होगा कि उनके आठ-आठ छन्दों (अष्टकों) वाले छोटे-छोटे ग्रन्थों का पृथक्-पृथक् अस्तित्व कालावधि में कहीं समाप्त न हो जाये। इसीलिए उन्होंने सबको एक साथ संगृहीत कर दिया है और भक्ति का स्वर प्रधान होने के कारण उसका नाम 'भक्तभावन' रख दिया।

१०. यद्यपि हिन्दी साहित्य-जगत् में ग्वाल की ख्याति एक सर्वांग निरूपक आचार्य के रूप में रही है किन्तु 'भक्तभावन' के सम्यक् अनुशीलन के बाद कवि रूप में भी ग्वाल का महत्त्व असंदिग्ध रूप से स्वीकार किया जा सकता है। दूसरी उल्लेखनीय बात यह है कि किसी भी अन्य रीतिकालीन आचार्य का भक्ति-सम्बन्धी इस प्रकार का विशाल एवं समृद्ध संग्रह उपलब्ध नहीं होता है। यद्यपि स्फुट रूप से तो सभी की एकाधिक रचनाएं प्राप्त होती है। अतएव इस दृष्टि से भी इसका महत्त्व निश्चय ही अप्रतिम एवं बेजोड़ है। वस्तुतः 'भक्त-भावन' भक्तिपरक मुक्तक ग्रन्थों की एक ऐसी अटूट एवं अविच्छिन्न माला है जिसमें भाव, कल्पना और अनुभूतियों के साथ कविकौशल के अनेक नवीन एवं मौलिक कुसुम अनुस्यूत तथा संग्रथित हैं।

११. अन्त में सम्पादन के सम्बन्ध में मैं यही कहना चाहूँगी कि प्राप्त हस्तलिखित प्रति को अविकल रूप में ही सम्पादित करने का हमारा प्रयास रहा है। प्रतिलिपिकार गोविन्द गिल्लाभाई ने गुजराती भाषा के प्रभाव के कारण मात्राओं में कहीं-कहीं ह्रस्व को दीर्घ और दीर्घ को ह्रस्व कर दिया है। अतएव ऐसे स्थलों पर हमने ब्रजभाषा को प्रकृति के अनुसार उनमें सुधार करने की छूट अवश्य ली है। एक ही प्रति के आधार पर सम्पादन होने के कारण पाठभेद या पाठसंशोधन का प्रश्न तो विशेष रूप से उपस्थित ही नहीं होता है। भविष्य में यदि हमें कभी अन्य प्रतियां उपलब्ध हो सकी तो पाठभेद तथा पाठसंशोधन की समस्या पर अवश्य ही विचार किया जा सकेगा। संप्रति तो हमारा उद्देश्य इन कृतियों के अनुशीलन के माध्यम से सांग निरूपक आचार्य ग्वाल के विशेष रूप से भक्त-कवि-स्वरूप को उद्घाटित करना ही रहा है। एवमस्तु।

सन्दर्भ

१. विशाल भारत–वर्ष २, अंक १, अप्रैल १९२९।
२. महाकवि ग्वाल–व्यक्तित्व एवं कृतित्व-डॉ॰ भगवानसहाय पचौरी, पृ॰ १५८ से उद्धृत।
३. हिन्दी साहित्य का इतिहास–आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, पृ॰ २९८।
४. महाकवि ग्वाल–व्यक्तित्व एवं कृतित्व–डॉ॰ भगवानसहाय पचौरी, पृ॰ १५९।
५. हिस्ट्री ऑफ द पंजाब–सैयद मुहम्मद लतीफ, पृ॰ ४५८।
६. पंजाब प्रान्तीय हिन्दी साहित्य का इतिहास–पं॰ चन्द्रकान्त बाली, पृ॰ १९९।
७. सिख इतिहास–डॉ॰ देशराज, पृ॰ ४०६-४०७।
८. ग्वाल कवि-प्रभुदयाल मित्तल, पृ॰ ८३।
९. वही, पृ॰ ५०।
१०. रीतिकवियों की मौलिक देन–डॉ. किशोरीलाल गुप्त, पृ॰ १५६।
११. महाकवि ग्वाल के ग्रन्थ–डॉ॰ भगवानसहाय पचौरी, ब्रजभारती, मथुरा।
१२. हिन्दी साहित्य का इतिहास–आ॰ रामचन्द्र शुक्ल, पृ॰ २७२।
१३. महाकवि ग्वाल–व्यक्तित्व एवं कृतित्व-डॉ॰ भगवानसहाय पचौरी, पृ॰ १९१।
१४. वही, पृ॰ २००।
१५. ग्वाल कवि–प्रभुदयाल मित्तल, पृ॰ ८३।
१६. महाकवि ग्वाल-व्यक्तित्व एवं कृतित्व–डॉ॰ भगवानसहाय पचौरी, पृ॰ २३६।
१७-१८. वही, पृ॰ २३७।
१९. वही, पृ॰ २०६।
२०. वही, पृ॰ २०७।
२१. वही, पृ॰ २४२।

  1. हिदी-सहित्य का इतिहास-आ॰ रामचन्द्र शुक्ल, पृ॰ २७२ ।
  2. महाकवि ग्वाल-व्यक्तित्व एवं कृतित्व-डॉ॰ भगवानसहाय पचौरी, पृ॰ १९१ ।