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भारतेंदु-नाटकावली/भूमिका/१०–नीलदेवी

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भारतेंदु-नाटकावली
भारतेन्दु हरिश्चंद्र, संपादक ब्रजरत्नदास
१०––नीलदेवी

इलाहाबाद: रामनारायणलाल पब्लिशर एंड बुकसेलर, पृष्ठ ११० से – ११५ तक

 

१०---नीलदेवी

नीलदेवी एक ऐतिहासिक नाटक है, जो सं० १९३८ में लिखा गया है पर इसकी ऐतिहासिकता के विषय में निश्चित रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता। कहा जाता है कि भारतेन्दु जी ने जिस अंग्रेजी काव्य की कुछ पंक्तियाँ आरंभ में उद्धृत की हैं उसी के कथानक के आधार पर इस नाटक का निर्माण किया है। पर ये पंक्तियाँ किस काव्य की हैं इसका भी उल्लेख नहीं हुआ है इसलिए उस काव्य को देखकर भी इसके आधार का पता नहीं लगाया जा सका। इन पंक्तियों से केवल इतना पता लगता है कि शरीफ को मारकर सूर्यदेव की रानी उसका सिर काट कर लाती है और पति के शव के पैरो के पास उसे फेंककर सती होने की तैयारी करती है। नाटक का कथानक संक्षेप में यही है कि अब्दुल् शरीफ सूर पंजाब-नरेश सूर्यदेव पर चढ़ाई करता है, सम्मुख युद्ध में परास्त होने पर धोखे से रात्रि में धावा कर उसे कैद कर लेता है। उसके पुत्र आदि सम्मुख युद्ध की राय देते हैं पर रानी नीलदेवी ने यह राय नहीं स्वीकार की और स्वयं गायिका का रूप धारण कर शरीफ के दरबार में गई और वहाँ उसको मारकर पति का शव ले आई और सती हो गई। शरीफ की सेना भाग गई। तात्पर्य यह कि वह अँग्रेजी काव्य अवश्य ही इस रूपक का एक आधार रहा है, पर पूरे काव्य के पता लगने पर तुलनात्मक दृष्टि से दोनों पर विचार किया जासकेगा।

आरम्भ में दुर्गा सप्तशती के कुछ श्लोक उद्धृत कर उस देवी का आह्वान सा किया गया है, जिन्होंने दिखला दिया था कि शक्ति अपनी शक्ति नहीं भूली है और उसने प्रचंड वीरो को भी ललकार कर मारा है। इसके अनंतर मातृ-भगिनी-सखी-तुल्या आर्य ललनाओं को संबोधन कर नाटककार उनसे बहुत कुछ कहता है। संबोधन के शब्दो ही में कवि के हृदय के कितने भाव टपक रहे हैं। बड़े दिनों में यूरोपियन महिलाओं को पुरुषों के साथ स्वच्छंदता से घूमते फिरते देखकर कवि-हृदय में स्वदेश की स्त्रियो के प्रति सहानुभूति उत्पन्न होती है कि उनकी कैसी हीन अवस्था है। यह बात आज से साठ वर्ष पहिले की है, जब लड़कों को भी स्कूलों में भेजना उन्हें ईसाई बनाना समझा जाता था। स्कूल का इस कुल कर कहा जाता था कि ये लड़के इस कुल जाकर इस कुल के न रहेंगे। उस समय लड़कियों को शिक्षा देने का विचार भी जल्दी नहीं उठता था। ऐसे समय इन शिक्षा से हीन, बाल-वृद्ध-विवाह आदि कुप्रथाओं से ग्रस्त भारतीय स्त्रियों के प्रति प्रत्येक देश-प्रेमी की दृष्टि समवेदना से बरबस आकृष्ट हो जाती थी। 'जिस भॉति अँग्रेजी स्त्रियाँ सावधान होती हैं, लिखी पढ़ी होती हैं, घर का काम काज सँभालती हैं, अपने संतानगण को शिक्षा देती हैं, अपना स्वत्व पहचानती हैं, अपनी जाति और अपने देश की संपत्ति विपत्ति को समझती हैं, उसमें सहायता देती हैं और इतने समुन्नत मनुष्य-जीवन को व्यर्थ गृहदास्य और कलह ही में नहीं खोतीं, उसी भाँति हमारी गृह-देवता भी वर्तमान हीनावस्था को उल्लंघन करके कुछ उन्नति प्राप्त करें, यही लालसा है। इस उन्नतिपथ का अवरोधक हम लोगो की वर्तमान कुल परंपरा-मात्र है और कुछ

भा० ना० भू०---८
नहीं है। आर्य जन मात्र को विश्वास है कि हमारे यहाँ सर्वदा

स्त्रीगण इसी अवस्था में थीं। इस विश्वास के भ्रम को दूर करने ही के हेतु यह ग्रंथ विरचित होकर आप लोगो के कोमल कर- कमलों में समर्पित होता है। निवेदन यही है कि आप लोग इन्हीं पुण्य रूप स्त्रियों के चरित्र को पढ़ें-सुनें और क्रम से यथा-शक्ति अपनी वृद्धि करें।'

उक्त उद्धरण से यह स्पष्ट है कि यह नाटक स्त्रियों को लक्ष्य कर लिखा गया है और इसमें दिखलाया गया है कि वीर क्षत्राणियाँ अवसर प्राने पर कैसा साहस कर सकती हैं। भारत की स्त्रियाँ सदा इस प्रकार गृह की चहार दीवारी में बंद रहती थीं, ऐसा भ्रम फैला हुआ था और है, उसी को दूर करने के लिए नीलदेवी का चरित्र इसमें वर्णित है। वह अपने पति तथा पुत्र को युद्धादि विषय में सम्मति देती थीं तथा अपने सैनिको को प्रोत्साहित करती थीं। समय आने पर उन्होंने अवसर बना कर पति को अधर्म से मारने वाले शत्रु को उसी के शस्त्र 'शठं प्रति शाठ्यं' की नीति से मार डालो। यही चरित्र इसमें चित्रित किया गया है। इसपर एक सज्जन लिखते है कि 'केवल प्रतिहिंसा के भाव को उत्तेजना मिलती है।' ठीक ही है, हिंसा-प्रतिहिंसा से दूर रहना ही हम भारतीयों की मूल प्रवृत्ति हो गई है। 'जान थोड़े ही भारी पड़ी है,' मारपीट को दूर से नमस्कार और अब तो वास्तव में हमें अपनी हॉड़ी पुरवे की ही रक्षा करना है, उसके लिए तलवार, कटार, बंदूक, तोप से हिंसा-प्रतिहिंसा करने की आवश्यकता ही क्या? छटांक भर को कड़ी काफी है, बजा लिया जायगा और उससे भी डर लगे तो घर के भीतर। इस नाटक में वीर रस प्रधान है पर करुण तथा हास्य का भी अच्छा पुट है। क्षत्रिय वीरो का धर्म-युद्ध के लिए तैयार रहना और अपने राजा के कैद हो जाने पर भी देश पर बलिदान होने के लिए तत्परता दिखलाने में उत्साह भरा हुआ है। प्रतिपक्षियों का भी येन केन प्रकारेण शत्रु को परास्त करने का उत्साह उन्हीं के योग्य है। देश की दुर्दशा के वर्णन तथा ईश्वर के आह्वान में कितनी करुणा भरी है यह उसे पढ़कर सहृदय ही बतला सकता है। चपरगट्टू तथा पीकदान अली की बाते और पागल के प्रलाप से हँसी आ ही जाती है। इस प्रकार देखा जाता है कि इन रसों का नाटक में अच्छा परिपाक हुआ है।

भारतेन्दु जी में देश-प्रेम पराकाष्ठा को पहुँच चुका था। वे रोते थे तो देश के लिए और हँसते थे तो देश के लिए। उनका नैराश्य भी देश की दुर्दशा और देश के सुपुत्रों की उत्साह-हीनता देखकर ही हुई थी और इसी से कह दिया कि---

सब भॉति दैव प्रतिकूल होइ एहि नासा।
दुख ही दुख करिहै चारहु ओर प्रकासा॥

और भी कहते है---

वीरता एकता ममता दूर सिधरिहै।
तजि उद्यम सब ही दास वृत्ति अनुसरिहै।
निज चाल छोड़ि गहिहै औरन की धाई।
रहे हमहुँ कबहुँ स्वाधीन आर्य बलधारी।
यह दै हैं जिय सो सब ही बात बिसारी॥

इनमें क्या एक भी बात असत्य है? वीरता, एकता, देश के प्रति ममता क्या हममें बढ़ती जा रही है? क्या दासवृत्ति छोड़कर औद्योगिक व्यापार की ओर लोग टूटे पड़ रहे हैं? क्या अपनी चाल छोड़कर विदेशी चाल ग्रहण करने में लोग कमी कर रहे हैं? किसी समय हम लोग भी स्वाधीन थे और भारतीय वीरों की हुँकार से दूर दूर देश के वीर भी एक बार थर्रा उठते थे, इसको क्या हम लोग एक दम भूल नहीं बैठे हैं? तब किस बात की आशा कवि दिलाता। वह अंत में अशरणशरण दयानिधि ईश्वर की शरण में जाता है, उपालभ देता है, अपनी दुर्दशा कहता है और सहायता की प्रार्थना करते हुए उसे पाने को आशा करता है---

कहाँ करुनानिधि केसव सोए!
जागत नेक न जदपि बहुत बिधि भारतवासी रोए॥
इक दिन वह हो जब तुम छिन नहिं भारत हित बिसराए।
इतके पशु गज को आरत लखि आतुर प्यादे धाए॥
इक इक दीन हीन नर के हित तुम दुख सुनि अकुलाई।
अपनी संपति जानि इनहि तुम रछ्यौ तुरतहि धाई॥
प्रलयकाल सम जौन सुदरसन असुर-प्रान-संहारी।
ताकी धार भई अब कुंठित हमरी बेर मुरारी॥
दुष्ट जवन बरबर तुव संतति घास साग सम काटे।
एक एक दिन सहस-सहस नर-सीस काटि भुव पाटै॥
है अनाथ भारत कुल-विधवा बिलपहिं दीन दुखारी।
बल करि दासी तिनहिं बनावहिं तुम नहिं लजत खरारी॥
कहाँ गए सब शास्त्र कही जिन भारी महिमा गाई।
भक्तबछल करुनानिधि तुम कहँ गाया बहुत बनाई॥

हाय सुनत नहिं निठुर भये क्यो परम दयाल कहाई।
सब विधि बूड़त लखि निज देसहि लेहु न अबहुँ बचाई।।


इसको पढ़कर किस सहृदय का हृदय न पसीज उठेगा। सुदर्शन चक्र की धार क्या अब हम लोगो के लिए कुंठित हो गई है जब इसी भारत के पशुओं की रक्षा करने में वह नहीं हुई थी। कैसी मर्म-भेदी चुनौती है पर दुर्भाग्य ! इस एक पद में ही भारत की सारी अंतर्व्यथा कह दी है और कितनी सुंदर व्यंजना के साथ । शास्त्रों द्वारा कथित ईश्वर की महिमा पर आक्षेप कर व्यथा की तीव्रता का कितना मार्मिक प्रदर्शन किया गया है।

इस नाटक के नायक सूर्यदेव, नायिका नीलदेवी तथा प्रतिनायक अब्दुश्शरीफ खॉ सूर है और तीनों के विषय में ऊपर लिखा जा चुका है। नाटककार ने इनके चरित्र-चित्रण में पूरी सफलता प्राप्त की है और जिस उद्देश से इसे लिखा है उसकी पूर्ति अच्छी तरह हो गई है।