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भारतेंदु-नाटकावली/भूमिका/१२–सतीप्रताप

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भारतेंदु-नाटकावली
भारतेन्दु हरिश्चंद्र, संपादक ब्रजरत्नदास
१२––सतीप्रताप

इलाहाबाद: रामनारायणलाल पब्लिशर एंड बुकसेलर, पृष्ठ ११९ से – १२२ तक

 

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१२-सतीप्रताप

यह एक गीति-रूपक है, जिसे भारतेन्दु जो ने सं०.१९४१ के लगभग लिखना आरम्भ किया था। इसके प्रथम कुछ दृश्य नवोदिता हरिश्चन्द्र-चन्द्रिका सन् १८८४ ई० के अंकों में प्रकाशित हुए थे परन्तु भारतेन्दु जी के अस्त हो जाने से यह पूरा न हो सका । बा० राधा कृष्णदास ने अंतिम तीन दृश्य लिखकर इसे पूरा किया था। इसमें उस सती सावित्री के उपाख्यान को नाटक रूप दिया गया है जिसका प्रतिवर्ष ज्येष्ठ महीने की अमावास्या को स्त्रियाँ उत्सव मनाती हैं । लाला श्रीनिवासदास तप्ता- संवरण नाटक इसी पातिव्रत्य-महात्म्य घर लिख चुके थे और वह हरिश्चन्द्र मैगजीन में प्रकाशित भी हो चुका था परन्तु कहा जाता है कि भारतेन्दु जी को यह पसंद नहीं आया अतः उन्होंने इस गीति रूपक को लिखा था।

प्रथम दृश्य मंगल पाठ मात्र है, जिसमें हिमालय की तराई में तीन अप्सराएँ गाती हुई दिखलाई गई हैं। तीन गान हैं, प्रथम दो में पातिव्रत्य का गुण-गायन है और तीसरे में प्रकृति का वर्णन है । दूसरा दृश्य सत्यवान के तपोवन का है। दूर से गान सुनकर युवक तपस्वी के हृदय पर उसका कुछ असर होता है पर वह शीघ्र ही दूसरी चिंता में पड़ जाता है । गाते हुए सावित्री सखियों के साथ आती है, धन, ऋतु तथा आश्रम की बात हो रही है कि वह सत्यवान को देखती है। उधर सत्यवान भी सावित्री को देखता है और दोनों में आकर्षण उत्पन्न हो जाता है। सखी द्वारा वे एक दूसरे का परिचय पाते हैं और वह दृश्य समाप्त होता है।

तीसरा दृश्य वैतालिकों के गाने से आरंभ होता है । चार कवित्तों में एक महाकवि देव का है और तीन भारतेंदुजी के हैं। दो में प्रेमयोगिनी पर वसंत का सुंदर रूपक बांधा गया है और तीसरे में वियोगिनी को योगिनी से बढ़कर सिद्ध किया गया है। 'ध्यान करती हुई सावित्री आँखें खोलती है और अपने विचार स्पष्ट रूप में प्रकट करती है। उसके एक एक शब्द में एक उच्च आदर्श की पत्नी का चित्रण किया गया है। पातिव्रत्य की निर्मल उपदेश धारा प्रवाहित को गई है। सखियाँ आती हैं और उसको सत्यवान के प्रेम के विरुद्ध समझाते हुए उसे इस मनोर्थ से निवृत्त करना चाहती हैं पर इस पर उसे क्रोध आ जाता है और आवेश में कहती है "निवृत्त करोगी? धर्म पथ से? सत्य प्रेम से? और इसी शरीर में? "कैसे शब्द चुनकर रखे गए हैं कि हृदय पर चोट पर चोट देते है और उपदेशक को एक दम निरुत्तर कर देते हैं। चौथे दृश्य में सत्यवान के पिता, माता तथा ऋषि गण दिखलाई पड़ते हैं। नम्रता, दान, औदार्य के विषय में बातचीत होती है और सावित्री-सत्यवान का विवाह निश्चित होता है। भारतेन्दु जी ने यहीं तक लिखा था। इसके अनंतर पाँचवे दृश्य में धन देवी तथा वन देवता आते हैं और सावित्री-सत्यवान के निवास से धन को शोभा-वृद्धि की सूचना देते हैं। छठे दृश्य में सावित्री तथा सत्यवान का प्रेमालाप होता है, सत्यवान लकड़ी लेने जाता है और उसके अनंतर अशकुन होने से सावित्री घबड़ा कर खोजने जाती है। सातवे दृश्य में मूर्च्छित सत्यवान को पाकर सावित्री उसका उपचार करती है, यमदूत पाते हैं पर पातिव्रत्य के तेज से डर कर चले जाते हैं और तब धर्मराज स्वयं पाते हैं। सावित्री धर्मराज से कई वर माँगती है, जिसे देने के अनंतर उन्हें वाध्य हो सत्यवान को जीवित छोड़ना पड़ता है और यह रूपक यहीं समाप्त होता है। इस रूपक में सावित्री तथा सत्यवान का अच्छा चरित्र चित्रण हुआ है। यह उपाख्यान साधारण प्रेम-वासना पूर्ण नहीं है पर उस अलौकिक प्रेम से भरा हुआ है जो सदा अमर रहेगा। वास्तव में पुरुष की शक्ति ही कितनी है, जो शक्तिरूपिणी सती के सम्मुख आँख उठा सके। आँखे तो आप ही उसके चरण की ओर वंदना के लिए झुक जायँगी। इस रूपक में बहुत से अनूठे पद सतीत्व-माहात्म्य पर दिए गए हैं, जिनकी विवेचना के लिए स्थानाभाव है।