सामग्री पर जाएँ

भारतेंदु-नाटकावली/भूमिका/४–धनंजय-विजय

विकिस्रोत से
भारतेंदु-नाटकावली
भारतेन्दु हरिश्चंद्र, संपादक ब्रजरत्नदास
४––धनंजय-विजय

इलाहाबाद: रामनारायणलाल पब्लिशर एंड बुकसेलर, पृष्ठ ४४ से – ४५ तक

 

४---धनंजय-विजय

मूल नाटक संस्कृत में है और इसके रचेता कांचन पंडित थे। इनके पिता का नाम नारायण था, जो शास्त्रार्थ में प्रसिद्ध थे। यह एक विद्वान-कुल में उत्पन्न हुए थे और स्वयं कई शास्त्रों में पारंगत थे। इसके सिवा नाटककार के विषय में और कुछ भी ज्ञात नहीं है। इसका समय भी संदिग्ध है। भारतेन्दु जी ने इस व्यायोग के सं० १५३७ वि० की एक हस्तलिखित प्रति का उल्लेख किया है, जिससे इनके समय को अंतिम सीमा अवश्य निश्चित हो जाती है।

भारतेन्दु जी के हिन्दी अनुवाद के पहिले इस व्यायोग का एक अनुवाद काश्मीर-नरेश महाराज रणवीरसिंह की प्राज्ञा से पं० छन्नूलाल द्वारा किया जा चुका था। यह अनुवाद सं० १९३२ में लीथे में प्रकाशित हुआ, जिसमें मूल, पद्यानुवाद तथा शेखर कृत वार्तिक सभी सम्मिलित हैं और इसके प्रति पृष्ठ में लीथो में एक साधारण चित्र भी दिया हुआ है। इसकी भाषा अत्यंत भ्रष्ट तथा पद्य शिथिल है। स्यात् अनुवाद के कारण हुई मूल की इस दुर्दशा को देखकर ही भारतेन्दु जी ने इसका दूसरा अनुवाद तैयार किया होगा, जो पहिले पहल हरिश्चन्द्र मैगजीन में सन् १८७३ ई० में प्रकाशित हुआ।

इस व्यायोग की कथा महाभारत के विराट पर्व से ली हुई है। बारह वर्ष वनवास करने के अनंतर पांडव गण द्रौपदी सहित अज्ञातवास करने के लिए मत्स्य-राज विराट के राज्य में जाकर सभी उसकी सेवा में गुप्त रूप से रहने लगे। द्रौपदी की अप्रतिष्ठा करने के कारण भीम द्वारा कीचक के मारे जाने पर त्रिगर्तराज सुशर्मा ने मत्स्य राज्य पर एक ओर से आक्रमण किया और जब राजा विराट ससैन्य उधर उससे युद्ध करने चले गए तब कौरवगण दूसरी ओर से आक्रमण कर राजा विराट की साठ सहस्र गाएँ लेकर चल दिए। राजनगरी में केवल उत्तर कुमार था। अंत में अर्जुन उसे सारथी बनाकर स्वयं युद्ध में कौरवों को परास्त कर गोधन छुड़ा लाए। इसके अनंतर राजा विराट ने पांडवों का बहुत सम्मान किया और उत्तरा का अभिमन्यु से विवाह-संबंध स्थिर हुआ। यह सब कथा महाभारत में बहत्तर अध्यायो में वर्णित है। इस नाटक में केवल अर्जुन का कौरवो का परास्त कर गायो को छुड़ा लाना तथा फल स्वरूप उत्तरा-अभिमन्यु का विवाह स्थिर होना दिखलाया गया है।

व्यायोग में 'युद्ध का निदर्शन स्त्री-पात्र-रहित और एक ही दिन की कथा का होता है। नायक कोई अवतार या वीर होना चाहिए।' धनंजय-विजय स्त्री पात्र-रहित है, इसमें केवल युद्ध ही का निदर्शन है और एक ही दिन की कथा है। इसमें प्रसिद्ध वीर अर्जुन नायक है और आरंभ में युद्ध को प्रस्थान करने पर उसने कौरवो के बड़े महारथियों का परिचय उत्तर कुमार को स्वयं दिया। इसके अनंतर युद्ध प्रारम्भ होने पर उसका विवरण इन्द्र, विद्याधर तथा प्रतिहारी के कथोपकथन में बतलाया गया है। अंत में विजयी होकर अर्जुन राजा विराट से मिलते हैं। इस नाटक में पद्यभाग गद्य से अधिक है और अनुवाद भी बहुत अच्छा हुआ है।