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भारतेंदु-नाटकावली/२–सत्य हरिश्चंद्र

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भारतेंदु-नाटकावली
भारतेन्दु हरिश्चंद्र, संपादक ब्रजरत्नदास
२––सत्यहरिश्चंद्र

इलाहाबाद: रामनारायणलाल पब्लिशर एंड बुकसेलर, पृष्ठ १४८ से – १५५ तक

 
सत्यहरिश्चंद्र
 






नाटक







संवत् १९३१

उपक्रम

मेरे मित्र बाबू बालेश्वरप्रसाद बी० ए० ने मुझसे कहा कि आप कोई ऐसा नाटक भी लिखे जो लड़कों के पढने-पढ़ाने के योग्य हों, क्योकि शृङ्गाररस के आपने जो नाटक लिखे हैं वे बड़े लोगों के पढ़ने के हैं, लड़को को उनसे कोई लाभ नहीं। उन्हीं के इच्छानुसार मैंने यह सत्यहरिश्चंद्र नामक रूपक लिखा है। इसमें सूर्यकुल-संभूत राजा हरिश्चंद्र की कथा है। राजा हरिश्चंद्र सूर्यवंश का अठ्ठाइसवााँ राजा रामचंद्रर से ३५ पीढ़ी पहले त्रिशंकु का पुत्र था। इसने शौभपुर नामक एक नगर बसाया था और बड़ा ही दानी था। इसकी कथा शास्त्रों में बहुत प्रसिद्ध है और संस्कृत में राजा महिपालदेव के समय में आर्य क्षेमीश्वर कवि ने चंडकौशिक नामक नाटक इन्हीं हरिश्चंद्र के चरित्र में बनाया है। अनुमान होता है कि इस नाटक को बने चार सौ बरस से ऊपर हुए क्योकि विश्ववनाथ कविराज ने अपने साहित्य-ग्रंथ में इसका नाम लिखा है। कौशिक विश्वामित्र का नाम है। हरिश्चंद्र और विश्वामित्र दोनों शब्द व्याकरण की रीति से स्वयंसिद्ध हैं। विश्वामित्र कान्यकुब्ज का क्षत्रिय राजा था। यह एक बेर संयोग से वशिष्ठ के आश्रम में गया और जब वशिष्ठ ने सैन-समेत उसकी जाफत अपनी शबला नाम की कामधेनु गऊ के प्रताप से बड़े धूमधाम से की तो विश्वामित्र ने वह कामधेनु लेनी चाही। जब हजारों हाथी, घोड़े और ऊँट के बदले भी वशिष्ठ ने गऊ न दी तो विश्वामित्र ने गऊ छीन लेनी चाही। वशिष्ठ की आज्ञा से कामधेनु ने विश्वामित्र की सब सेना का नाश कर दिया और विश्वामित्र के सौ पुत्र भी वशिष्ठ ने शाप से जला दिए। विश्वामित्र इस पराजय से उदास होकर तप करने लगे और महादेवजी से वरदान में सब अस्त्र पाकर फिर वशिष्ठ से लड़ने आए। वशिष्ठ ने मंत्र के बल से एक ऐसा ब्रह्मदंड खड़ा कर दिया कि विश्वामित्र के सब अस्त्र निष्फफल हुए। हारकर विश्वामित्र ने सोचा कि अब तप करके ब्राह्ममण होना चाहिए और तप करके अंत में ब्राह्मण और ब्रह्मर्षि हो गए। यह वाल्मीकीय रामायण के बालकांड*[] के ५२ से ६० सर्ग तक सविस्तर वर्णित है।

जब हरिश्चंद्र के पिता त्रिशंकु ने इसी शरीर से स्वर्ग जाने के हेतु वशिष्ठजी से कहा तो उन्होंने उत्तर दिया कि वह अशक्य काम हमसे न होगा। तब त्रिशंकु वशिष्ठ के सौ पुत्रों के पास गया और जब उनसे भी कोरा जबाब पाया तब कहा कि तुम्हारे पिता और तुम लोगो ने हमारी इच्छा पूरी नहीं की और हमको कोरा जवाब दिया इससे अब हम दूसरा पुरोहित करते हैं। वशिष्ठ के पुत्रों ने इस बात से रुष्ट होकर त्रिशंकु
को शाप दिया कि तू चांडाल हो जा। बिचारा त्रिशंकु चांडाल बनकर विश्वामित्र के पास गया और दुखी होकर अपना सब हाल वर्णन किया। विश्वामित्र ने अपने पुराने बैर का बदला लेने का अच्छा अवसर सोचकर राजा से प्रतिज्ञा किया कि इसी देह से तुमको स्वर्ग भेजेंगे और सब मुनियों को बुलाकर यज्ञ करना चाहा। सब ऋषि तो आए, पर वशिष्ठ के सौ पुत्र नहीं आए और कहा कि जहाँ चांडाल यजमान और क्षत्रिय पुरोहित वहाँ कौन जाय। क्रोधी विश्वामित्र ने इस बात से रुष्ट होकर शाप से वशिष्ठ के उन सौ पुत्रो को भस्म कर दिया। यह देखकर और बिचारे ऋषि मारे डर के यज्ञ करने लगे। जब मंत्रो से बुलाने से देवता लोग यज्ञ-भाग लेने न आए तो विश्वामित्र ने क्रोध से श्रुवा उठाकर कहा कि त्रिशंकु ! यज्ञ से कुछ काम नहीं, तुम हमारे तपोबल से स्वर्ग जाओ। त्रिशंकु इतना कहते ही आकाश की ओर उड़ा। जब इंद्र ने देखा कि त्रिशंकु सशरीर स्वर्ग में आया चाहता है तो पुकारा कि अरे तू यहाँ आने के योग्य नहीं है, नीचे गिर। त्रिशंकु यह सुनते ही उलटा होकर नीचे गिरा और विश्वामित्र को त्राहि-त्राहि पुकारा। विश्वामित्र ने तप-बल से उसको वहाँ बीच ही में स्थिर रखा। कर्मनाशा नामक नदी त्रिशंकु के ही लार से बनी है। फिर देवताओ पर क्रोध करके विश्वामित्र ने सृष्टि ही दूसरी करनी चाही। दक्षिणध्रुव के समीप सप्तर्षि और नक्षत्र इन्होंने नए बनाए और बहुत से जीव-जंतु-फल-मूल बनाकर जब इंद्रादिक देवता भी दूसरे बनाने चाहे तब देवता लोग डरकर इनसे क्षमा माँगने गए। इन्होने अपनी बनाई सृष्टि स्थिर रखकर और दक्षिणाकाश में त्रिशंकु को ग्रह की भाँति प्रकाशमान स्थिर रख क्षमा किया। यह सब भी रामायण ही में है। फिर एक बेर पानी नहीं बरसा, इससे बड़ा काल पड़ा। विश्वामित्र एक चांडाल के घर भीख माँगने गए और जब कुत्ते का मांस पाया तो उसी से देवताओं को बलि दिया। देवता लोग इनके भय से काँप गए और इंद्र ने उस समय पानी बरसाया। यह प्रसंग महाभारत के शांतिपर्व के १४१ अध्याय में है। फिर हरिश्चंद्र की विपत्ति सुनकर क्रोध से वशिष्ठजी ने उनको शाप दिया कि तुम बकुला हो जाओ और विश्वामित्र ने यह सुनकर वशिष्ठ को शाप दिया कि तुम आड़ी*[] हो जाओ। पक्षी बनकर दोनों ने बड़ा घोर युद्ध किया, जिससे त्रैलोक्यय काँप गया। अंत में ब्रह्मा ने दोनों से मेल कराया। यह उपाख्यान मार्कंडेय पुराण के नवे अध्याय में है। इनकी उत्पत्ति यों है-भृगु ने जब अपने पुत्र च्यवन ऋषि को ब्याह किए देखा तो बड़े प्रसन्न हुए और बेटा-बहू देखने को उनके घर आए। उन दोनों ने पिता की पूजा की और हाथ जोड़कर सामने खड़े हो गए। भृगु ने बहू से कहा कि बेटी, वर माँग। सत्यवती ने यह वर माँगा कि मुझे तो वेदशास्त्र जाननेवाला और मेरी माता को युद्धविद्या-विशारद पुत्र हो। भृगु ने एवमस्तु कहकर ध्यान दे प्राणायाम किया और उनके श्वास से दो चरु उत्पन्न हुए। भृगु ने वह बहू को देकर कहा कि यह लाल चरु तो तुम्हारी माता प्रति ऋतु समय में अश्वत्थ का आलिंगन करके खाय और तुम यह सफेद चरु उसी भाँति उदुंबर का आलिंगन करके खाना। भृगु के वाक्यानुसार सत्यवती ने कन्नौज के राजा गाधि की स्त्री अपनी माता से सब कहा। उसकी माता ने यह समझकर कि ऋषि ने अपनी पतोहू को अच्छा बालक होने को चरु दिया होगा, जब ऋतु-काल आया तब लाल चरु तो कन्या को खिलाया और सफेद आप खाया। भगवान् भृगु ने तपोबल से जब यह बात जानी तो आकर बहू से कहा कि तुमने चरु को उलट-पुलट किया इससे तुम्हारा लड़का ब्राह्मण होकर भी क्षत्रियकर्मा होगा और तुम्हारा भाई क्षत्रिय होकर भी ब्राह्मण हो जायगा। सत्यवती ने जब ससुर से इस अपराध की क्षमा चाही तब उन्होंने कहा कि अच्छा तुम्हारे पुत्र के बदले पौत्र क्षत्रियकर्म्मा होगा। वही राजा गाधि को तो विश्वामित्र हुए और च्यवन को जमदग्नि और जमदग्नि को परशुराम हुए। यह उपाख्यान कालिका-पुराण के ८४ अध्याय में स्पष्ट है। इन उपाख्यानों के जानने से इस नाटक के पढ़नेवालो को बड़ी सहायता मिलेगी। इस भारतवर्ष में उत्पन्न और इन्हीं हम लोगो के पूर्व पुरुष महाराज हरिश्चंद्र भी थे। यह समझकर इस नाटक के पढ़नेवाले कुछ भी अपना चरित्र सुधारेंगे तो कवि का परिश्रम सुफल होगा।



समर्पण

नाथ!

यह एक नया कौतुक देखो। तुम्हारे सत्यपथ पर चलनेवाले कितना कष्ट उठाते हैं, यही इसमें दिखाया है। भला हम क्या कहें? जो हरिश्चंद्र ने किया वह तो अब कोई भी भारतवासी न करेगा, पर उस वंश ही के नाते इनको भी मानना। हमारी करतूत तो कुछ भी नहीं, पर तुम्हारी तो बहुत कुछ है। बस, इतना ही सही। लो सत्यहरिश्चंद्र तुम्हे समर्पित है, अंगीकार करो। छल मत समझना। सत्य का शब्द सार्थ है, कुछ पुस्तक के बहाने समर्पण नहीं है।

तुम्हारा

हरिश्चंद्र

  1. *अयोध्याकांड यहाँ भूल से छपा था।
  2. *किसी जाति का गिद्ध।