भारतेंदु-नाटकावली/५–मुद्राराक्षस/नांदी-पाठ
महाकवि विशाखदत्त का बनाया
मुद्राराक्षस
स्थान---रंगभूमि
रंगशाला में नांदी-मंगलपाठ
भरित नेह नव नीर नित, बरसत सुरस अथोर।
जयति अपूरब घन कोऊ, लखि नाचत मन मोर॥
'कौन है सीस पैं' 'चंद्रकला' 'कहा याको है नाम यही त्रिपुरारी'।
'हाँ यही नाम है, भूल गईं किमि जानत हू तुम प्रान-पियारी'॥
'नारिहि पूछत चंद्रहिं नाहि, 'कहै बिजया जदि चंद्र लबारी'।
यो गिरिजै छलि गंग छिपावत ईस हरौ सब पीर तुम्हारी॥
पाद-प्रहार सों जाइ पताल न भूमि सबै तनु-बोझ के मारे।
हाथ नचाइबे सों नभ मैं इत के उत टूटि परै नहिं तारे॥
देखन सो जरि जाहिं न लोक न खोलत नैन कृपा उर धारे।
यो थल के बिनु,कष्ट सो नाचत शर्व हरौ दुख सर्व तुम्हारे॥*
- संस्कृत का मंगलाचरण---
धन्या केय स्थिता ते शिरसि शशिकला, किन्नु नामैतदस्या
नामैवास्यास्तदेतत्; परिचितमपि ते विस्मृत कस्य हेतो।
नारी पृच्छामि नेन्दु; कथयतु विजया न प्रमाणं यदीन्दु-
र्देव्या निनोतुमिच्छोरिति सुरसरित शाठ्यमव्याद्विभोर्वः॥१॥
नांदी-पाठ के अनंतर*
सूत्रधार---बस! बहुत मत बढ़ाओ, सुनो, आज मुझे सभासदो की आज्ञा है कि सामंत वटेश्वरदत्त के पौत्र और महाराज पृथु के पुत्र विशाखदत्त कवि का बनाया मुद्राराक्षस नाटक खेलो। सच है , जो सभा काव्य के गुण
और भी
पादस्याविर्भवन्तीमवनतिमवनेरक्षतः स्वैरपातै
सकोचेनैव दोष्णां मुहुरभिनयता सर्वलोकातिगानाम्।
दृष्टि लक्ष्येषु नेग्रिज्वलनकणमुचं बघ्नतो दाहभीते
रित्याधारानुरोधात् त्रिपुरविजयिनः पातु वो दुःखनृत्तम्॥२॥
अर्थ
'यह आपके सिर पर कौन बड़भागिनी है?' 'शशिकला' है। क्या इसका यही नाम है?' 'हाँ, यही तो, तुम तो जानती हो फिर क्यों भूल गई?' 'अजी हम स्त्री को पूछती हैं, चद्रमा को नहीं पूछती', 'अच्छा चंद्र की बात का विस्वास न हो तो अपनी सखी विजया से पूछ लो।' योंही बात बनाकर गंगाजी को छिपाकर देवी पार्वती को ठगने की इच्छा करने वाले महादेवजी का छल तुम लोगों की रक्षा करै।
दूसरा
पृथ्वी झुकने के डर से इच्छानुसार पैर का बोझ नहीं दे सकते, ऊपर के लोकों के इधर-उधर हो जाने के भय से हाथ भी यथेच्छ नहीं फेक सकते, और उसके अग्निकण से जल जायँगे इसी ध्यान से किसी की ओर भर दृष्टि देख भी नहीं सकते, इससे आधार के संकोच से महादेवजी का कष्ट से नृत्य करना तुम्हारी रक्षा करै।
- नाटकों में पहले मगलाचरण करके तब खेल आरंभ करते हैं। और दोष को सब भॉति समझती है, उसके सामने खेलने में मेरा भी चित्त संतुष्ट होता है।
पाछे खेत में, मूरखहू के धान।
सघन होन मैं धान के, चहिय न गुनी किसान॥
तो अब मैं घर से सुघर घरनी को बुलाकर कुछ गाने-बजाने का ढंग जमाऊँ। ( घूमकर ) यही मेरा घर है, चलूँ। ( आगे बढ़कर ) अहा! आज तो मेरे घर में कोई उत्सव जान पड़ता है, क्योकि घरवाले सब अपने-अपने काम में चूर हो रहे है।
पीसत कोऊ सुगंध कोऊ जल भरि कै लावत।
कोऊ बैठि कै रंग रंग की माल बनावत॥
कहुँ तिय-गन हुंकार सहित अति स्रवन सोहावत।
होत मुशल को शब्द सुखद जिय को सुनि भावत॥
जो हो घर से स्त्री को बुलाकर पूछ लेता हूँ ( नेपथ्य की ओर )
री गुनवारी सब उपाय की जाननवारी।
घर की राखनवारी सब कुछ साघनवारी॥
इस मगलाचरण को नाटकशास्त्र में नांदी कहते हैं। किसी का मत है कि नांदी पहले ब्राह्मण पढ़ता है, कोई कहता है सूत्रधार ही और किसी का मत है कि परदे के भीतर से नांदी पढ़ी या गाई जाय।
मो गृह नीति सरूप काज सब करन सँवारी।
बेगि आउ रीनटी बिलंब न करु सुनि प्यारी॥
( नटी आती है )
नटी---आर्यपुत्र*! मैं आई, अनुग्रहपूर्वक कुछ आज्ञा दीजिए।
सूत्र०---प्यारी, आज्ञा पीछे दी जायगी, पहिले यह बता कि आज ब्राह्मणों का न्यौता करके तुमने इस कुटुंब के लोगों पर क्यो अनुग्रह किया है? या आप ही से आज अतिथि लोगों ने कृपा किया है कि ऐसे धूम से रसोई चढ़ रही है?
नटी---आर्य! मैंने ब्राह्मणों को न्यौता दिया है।
सूत्र०---क्यों? किस निमित्त से?
नटी---चंद्रग्रहण लगने वाला है।
सूत्र०---कौन कहता है?
नटी---नगर के लोगो के मुँह सुना है।
सूत्र०---प्यारी! मैंने ज्योतिःशास्त्र के चौंसठो अंगो में बड़ा परिश्रम किया है। जो हो, रसोई तो होने दो पर आज तो गहन है यह तो किसी ने तुझे धोखा ही दिया है क्योंकि---
चंद्र बिंब पूर न भए क्रूर केतु हठ दाप॥
संस्कृत मुहाविरे में पति को स्त्रियाँ आर्यपुत्र कहकर पुकारती हैं।
होरा मुहूर्त जातक ताजक रमल इत्यादि।
अर्थात् ग्रहण का योग तो कदापि नहीं है। खैर रसोई हो।
केतु अर्थात् राक्षस मंत्री। राक्षस मंत्री ब्राह्मण था और केवल नाम उसका राक्षस था किंतु गुण उसमें देवताओं के थे।
इस श्लोक का यथार्थ तात्पर्य्य जानने को काशी संस्कृत विद्यालय बल सों करिहै ग्रास कह---
( नेपथ्य में )
हैं! मेरे जीते चंद्र को कौन बल से ग्रस सकता है?
सूत्र०----जेहि बुध रच्छत आप॥
के अध्यक्ष जगद्विख्यात पंडितवर बापूदेव शास्त्री को मैंने पत्र लिखा। क्योंकि टीकाकारों ने "चन्द्रमा पूर्ण होने पर" यही अर्थ किया है और इस अर्थ से मेरा जी नहीं भरा। कारण यह कि पूर्ण चन्द्र में तो ग्रहण लगता ही है, इसमें विशेष क्या हुआ? शास्त्रीजी ने जो उत्तर दिया है वह यहाँ प्रकाशित होता है।
श्रीयुत बाबू साहिब को बापूदेव का कोटिशः आशीर्वाद, आपने प्रश्न लिख भेजे उनका संक्षेप से उत्तर लिखता हूँ।
१ सूर्य के अस्त हो जाने पर जो रात्रि में अंधकार होता है यही पृथ्वी की छाया है और पृथ्वी गोलाकार है और सूर्य से छोटी है इसलिये उसकी छाया सूच्याकार शंकु के आकार की होती है और यह आकाश में चन्द्र के भ्रमणमार्ग को लाँघ के बहुत दूर तक सदा सूर्य से छ राशि के अंतर पर रहती है और पूर्णिमा के अंत में चन्द्रमा भी सूर्य से छ राशि के अंतर पर रहता है। इसलिए जिस पूर्णिमा में चन्द्रमा पृथ्वी की छाया में आ जाता है अर्थात् पृथ्वी की छाया चन्द्रमा के बिम्ब पर पड़ती है तभी वह चन्द्र का ग्रहण कहलाता है और छाया जो चन्द्रबिंब पर देख पड़ती है वही ग्रास कहलाता है। और राहु नामक एक दैत्य प्रसिद्ध है वह चन्द्रग्रहणकाल में पृथ्वी की छाया में प्रवेश करके चन्द्र की ओर प्रजा को पीड़ा करता है, इसी कारण से लोक में राहुकृत ग्रहण कहलाता है और उस काल में स्नान, दान, जप, होम इत्यादि करने से वह राहुकृत दूर होती है और बहुत पुण्य होता है।
२ पूर्णिमा में चन्द्रग्रहण होने का कारण ऊपर लिखा ही है और पूर्णिमा में चन्द्रबिंब भी संपूर्ण उज्ज्वल होता है तभी चन्द्रग्रहण होता है।
३ जब कि पूर्णिमा के दिन चन्द्रग्रहण होता है, इससे पूर्णिमा में चन्द्रमा का और बुध का योग कभी नहीं होता ( क्योंकि बुध सर्वदा सूर्य के पास रहता है और पूर्णिमा के दिन सूर्य चन्द्रमा से छ राशि के अंतर पर रहता है, इसलिये बुध भी उस दिन चन्द्र से दूर ही रहता है )। यों बुध के योग में चन्द्रग्रहण कभी नहीं हो सकता। इति शिवम् सवत् १९३७ ज्येष्ठ शुक्ल १५ मंगल दिने, मगलं मंगले भूयात्।
शास्त्रीजी से एक दिन मुझे इस विषय में फिर वार्ता हुई। शास्त्री जी को मैंने मुद्राराक्षस की पुस्तक भी दिखलाई। इस पर शास्त्रीजी ने कहा कि मुझको ऐसा मालूम होता है कि यदि उस दिन उपराग का संभव होगा तो सूर्यग्रहण का क्योंकि बुधयोग अमावस्या के पास होता भी है। पुराणों में स्पष्ट लिखा है कि राहु चन्द्रमा का ग्रास करता है और केतु सूर्य का, और इस श्लोक में केतु का नाम भी है। इससे भी संभव होता है कि सूर्य-उपराग रहा हो। तो चाणक्य का कहना भी ठीक हुआ कि केतु हठपूर्वक क्यों चन्द्र को ग्रसा चाहता है अर्थात् एक तो चन्द्रग्रहण का दिन नहीं, दूसरे केतु का चन्द्रमा ग्रास का विषय नहीं क्योंकि नंद-वीर्यजात होने से चन्द्रगुप्त राक्षस का वध्य नहीं है। इस अवस्था में 'चंद्रम् असंपूर्णमंडलं' चन्द्रमा का अधूरा मंडल यह अर्थ करना पड़ेगा। तंब छंद में 'चंद बिब पूरन भए' के स्थान पर 'बिना चन्द्र पूरन भए' पढ़ना चाहिए।
बुध का बिंब प्राचीन भास्कराचार्य के मतानुसार छ कला पंद्रह विकला के लगभग है। परंतु नवीनों के मत से केवल दश विकला परम है। सूत्र०---प्यारी, मैंने भी नहीं लखा, देखो, अब फिर से वही पढता हूँ और अब जब वह फिर बोलैगा तो मैं उसकी बोली से पहिचान लूँगा कि कौन है।
परंतु इसमें कुछ सदेह नहीं कि यह ग्रह बहुत छोटा है क्योंकि प्राचीनों को इसका ज्ञान बहुत कठिनता से हुआ है, इसी लिये इसका नाम ही बुध, ज्ञ, इत्यादि हो गया। यह पृथ्वी से ६८९३७७ इतने योजन की दूरी पर मध्यम मान से रहता है और सदा सूर्य के अनुचर के समान सूर्य के पास ही रहता है, एक पाद अर्थात् तीन राशि भी सूर्य से आगे नहीं जाता। विल्सन ने केतु शब्द से मलयकेतु का ग्रहण किया है। इसमें भी एक प्रकार का अलकार अच्छा रहता है।
चमत्कृत-बुद्धिसंपन्न पंडित सुधाकरजी ने इस विषय में जो लिखा है वह विचित्र ही है। वह भी प्रकाश किया जाता है---
करत अधिक अँधियार वह, मिलि मिलि करि हरिचंद।
द्विजराजहु विकसित करता, धनि धनि यह हरिचंद॥
श्री बाबू साहब को हमारे अनेक आशीर्वाद,
महाशय!
चंद्रग्रहण का संभव भूछाया के कारण प्रति पूर्णिमा के अंत में
होता है और उस समय में केतु और सूर्य साथ रहते हैं। परंतु केतु और सूर्य का योग यदि नियत संख्या के अर्थात् पाँच राशि सोलह अंश से लेकर छ राशि चौदह अंश के वा ग्यारह राशि सोलह अंश से लेकर बारह राशि चौदह अंश के भीतर होता है तब ग्रहण होता है और यदि योग नियत संख्या के बाहर पड़ जाता है तब ग्रहण नहीं होता। इसलिये सूर्य केतु के योग ही के कारण से प्रत्येक पूर्णिमा में ग्रहण नहीं होता। तब ('अहो चंद्र पूर न भए' फिर से पढ़ता है )
( नेपथ्य में )
हैं! मेरे जीते चंद्र को कौन बल से ग्रस सकता है?
सूत्र०---( सुनकर ) जाना।
अरे अहै कौटिल्य
नटी---( डर नाट्य करती है )
सूत्र०---दुष्ट टेढ़ी मतिवारो।
नंदवंश जिन सहजहि निज क्रोधानल जारो॥
चंद्रग्रहण को नाम सुनत निज नृप को मानी।
इतही पावत चंद्रगुप्त पै कुछ भय जानी॥
तो अब चलो हम लोग चलैं।
( दोनों जाते हैं )
क्रूरग्रहः स केतुश्चन्द्रमसं पूर्णमण्डलमिदानीम्।
अभिभवितुमिच्छति बलाद्रक्षत्येनं तु बुधयोगः॥
इस श्लोक का यथार्थ अर्थ यह है कि क्रूरग्रह सूर्य केतु के साथ चन्द्रमा के पूर्ण मंडल को न्यून करने की इच्छा करता है परंतु हे बुध! योग जो है वही बल से उस चन्द्रमा की रक्षा करता है। यहाँ बुध शब्द पंडित के अर्थ में संबोधन है, ग्रहवाची कदापि नहीं है। बुध शब्द को ग्रहार्थ में ले जाने से जो-जो अर्थ होते हैं वे सब बनौआ है। इति
सं० १९३७ वैशाख शुक्ल ५
ऊँचे है गुरु बुध कबी मिलि लरि होत विरूप।
करत समागम सबहि सों यह द्विजराज अनूप॥
आपका
प० सुधाकर