भारतेंदु-नाटकावली/६–भारत दुर्दशा (चौथा अंक)
चौथा अंक
(कमरा अँगरेजी सजा हुआ, मेज, कुरसी लगी हुई। कुरसी पर भारत दुर्दैव बैठा है)
(रोग का प्रवेश)
रोग--(गाता हुआ) जगत सब मानत मेरी आन।
मेरी ही टट्टी रचि खेलत नित सिकार भगवान॥
मृत्यु कलंक मिटावत मैं ही मो सम और न आन।
परम पिता हमहीं वैद्यन के अत्तारन के प्रान॥
मेरा प्रभाव जगत विदित है। कुपथ्य का मित्र और पथ्य का शत्रु मैं ही हूँ। त्रैलोक्य में ऐसा कौन है जिस पर मेरा प्रभुत्व नहीं। नजर, श्राप, भूत, प्रेत, टोना, टनमन, देवी-देवता सब मेरे ही नामांतर हैं। मेरी ही बदौलत ओझा, दरसनिए, सयाने, पंडित, सिद्ध लोगों को ठगते हैं। (आतंक से) भला मेरे प्रबल प्रताप को ऐसा कौन है जो निवारण करे। हह ! चुंगी की कमेटी सफाई करके मेरा निवारण करना चाहती है, यह नहीं जानती कि जितनी सड़क चौड़ी होगी उतने ही हम भी "जस जस सुरसा बदन बढ़ावा, तासु दुगुन कपि रूप दिखावा"। (भारतदुर्दैव को देख कर) महाराज!
क्या आज्ञा है?
भारतदु०--आज्ञा क्या है, भारत को चारों ओर से घेर लो।
रोग--महाराज! भारत तो अब मेरे प्रवेश-मात्र से मर जायगा। घेरने का कौन काम है? धन्वंतरि और काशिराज दिवोदास का अब समय नहीं है और न सुश्रुत-वाग्भट्ट-चरक ही हैं। बैदगी अब केवल जीविका के हेतु बची है। काल के बल से औषधो के गुणों और लोगों के प्रकृति में भी भेद पड़ गया। बस अब हमें कौन जीतेगा और फिर हम ऐसी सेना भेजेगे जिनका भारतवासियों ने कभी नाम तो सुना ही न होगा; तब भला वे उसका प्रतिकार क्या करेंगे! हम भेजेंगे विस्फोटक, हैजा, डेंगू, अपाप्लेक्सी। भला इनको हिंदू लोग क्या रोकेंगे? ये किधर से चढ़ाई करते हैं और कैसे लड़ते हैं जानेंगे तो हई नहीं, फिर छुट्टी हुई। वरंच महाराज, इन्हीं से मारे जायँगे और इन्हीं को देवता
करके पूजेंगे, यहाँ तक कि मेरे शत्रु डाक्टर और विद्वान इसी विस्फोटक के नाश का उपाय टीका लगाना इत्यादि कहेंगे तो भी ये सब उसको शीतला के डर से न मानेंगे और उपाय आछत अपने हाथ अपने प्यारे बच्चों की जान लेंगे।
भारतदु०--तो अच्छा तुम जाओ। महर्घ और टिकस भी यहाँ
आते होगे सो उनको साथ लिए जायो। अतिवृष्टि, अना
वृष्टि की सेना भी वहाँ जा चुकी है। अनैक्य और अंधकार की सहायता से तुम्हे कोई भी रोक न सकेगा। यह लो पान का बीड़ा लो। (बीड़ा देता है)
(रोग बीड़ा लेकर प्रणाम करके जाता है)
भारतदु०-बस, अब कुछ चिंता नहीं, चारों ओर से तो मेरी सेना ने उसको घेर लिया, अब कहाँ बच सकता है।
(आलस्य का*[१] प्रवेश)
आलस्य--हहा ! एक पोस्ती ने कहा, पोस्ती ने पी पोस्त नौ दिन चले अढ़ाई कोस। दूसरे ने जवाब दिया, अबे वह पोस्ती न होगा डाक का हरकारा होगा। पोस्ती ने जब पोस्त पी तो या कूँड़ी के उस पार या इस पार ठीक है। एक बारी में हमारे दो चेले लेटे थे और उसी राह से एक सवार जाता था। पहिले ने पुकारा “भाई सवार सवार, यह पक्का आम टपक कर मेरी छाती पर पड़ा है, जरा मेरे मुँह में तो डाल।" सवार ने कहा "अजी तुम बड़े आलसी हो। तुम्हारी छाती पर आम पड़ा है सिर्फ हाथ से उठा कर मुँह में डालने में यह आलस है !" दूसरा बोला "ठीक है साहब, यह बड़ा ही आलसी है। रात भर कुत्ता मेरा मुँह चाटा किया और यह पास ही
पड़ा था पर इसने न हॉका।" सच है किस जिंदगी
के वास्ते तकलीफ उठाना, मजे में हालमस्त पड़े रहना।
सुख केवल हम में हैं "आलसी पड़े कुएँ में वहीं चैन है।"
(गाता है)
(ग़ज़ल)
मर जाना पै उठके कहीं जाना नहीं अच्छा॥
बिस्तर प मिस्ले लोथ पड़े रहना हमेशा।
बंदर की तरह धूम मचाना नहीं अच्छा॥
"रहने दो जमीं पर मुझे आराम यहीं है।"
छेड़ो न नक्शेपा हैं मिटाना नहीं अच्छा॥
उठ करके घर से कौन चले यार के घर तक।
"मौत अच्छी है पर दिल का लगाना नहीं अच्छा॥"
धोती भी पहिने जब कि कोई गैर पिन्हा दे।
उमरा को हाथ-पैर चलाना नहीं अच्छा॥
सिर भारी चीज है इसे तकलीफ हो तो हो।
पर जीभ बिचारी को सताना नहीं अच्छा॥
फाको से मरिए पर न कोई काम कीजिए।
दुनिया नहीं अच्छी है जमाना नहीं अच्छा॥
सिजदे से गर बिहिश्त मिले दूर कीजिए।
मिल जाय हिंद खाक में हम काहिलों को क्या।
ऐ मीरे-फर्श रंज उठाना नहीं अच्छा॥
और क्या। काजीजी दुबले क्यों, कहैं शहर के अंदेशे से। अरे 'कोउ नृप होउ हमें का हानी, चेरि छाँड़ि नहिं होउब रानी।' आनंद से जन्म बिताना। 'अजगर करै न चाकरी, पंछी करै न काम। दास मलूका कह गए, सब के दाता राम॥' "जो पढ़तव्यं सो मरतव्यं, जो न पढ़तव्यं से भी मरतव्यं, तब फिर दंतकटाकट किं कर्तव्यं?" भई जात में ब्राह्मण, धर्म में बैरागी, रोजगार में सूद और दिल्लगी में गप सब से अच्छी। घर बैठे जन्म बिताना, न कहीं जाना और न कहीं आना। बस खाना, हगना, मूतना, सोना, बात बनाना, तान मारना और मस्त रहना। अमीर के सर पर और क्या सुरखाब का पर होता है, जो कोई काम न करे वही अमीर। 'तवंगरी बदिलस्त न बमाल।' दोई तो मस्त हैं या मालमस्त या हालमस्त। (भारतदुर्दैव को देखकर उसके पास जाकर प्रणाम करके) महाराज ! मैं सुख से सोया था कि आपकी आज्ञा पहुँची, ज्यों-त्यों कर यहाँ हाजिर हुआ। अब हुक्म?
भारतदु०--तुम्हारे और साथी सब हिंदुस्तान की ओर भेजे गए हैं, तुम भी वहीं जाओ और अपनी जोगनिद्रा से सब को अपने वश में करो।
आलस्य--बहुत अच्छा। (आप ही आप) आह रे बप्पा ! अब हिंदुस्तान में जाना पड़ा। तब चलो धीरे-धीरे चलें। हुक्म न मानेंगे तो लोग कहेंगे "सरबस खाइ भोग करि नाना, समरभूमि भा दुरलभ प्राना।" अरे करने को दैव आप ही करेगा, हमारा कौन काम है, पर चलें।
(यही सब बुड़बुडाता हुआ जाता है)
(मदिरा*[२]आती है)
मदिरा--भगवान् सोम की मैं कन्या हूँ। प्रथम वेदों ने मधु नाम से मुझे आदर दिया। फिर देवताओं की प्रिया होने से मैं सुरा कहलाई और मेरे प्रचार के हेतु श्रौत्रामणि यज्ञ की सृष्टि हुई। स्मृति और पुराणो में भी प्रवृत्ति मेरी नित्य कही गई। तंत्र तो केवल मेरे ही हेतु बने। संसार में चार मत बहुत प्रबल हैं, हिंदू, बौद्ध, मुसलमान और क्रिस्तान। इन चारों में मेरी चार पवित्र प्रतिमूर्ति विराजमान हैं। सोमपान, बीराचमन, शराबुन्तहूरा और बापटैज़िंग वाइन। भला कोई कहे तो इनको अशुद्ध? या जो पशु हैं उन्होंने अशुद्ध कहा ही तो क्या हमारे चाहने वालों के आगे वे लोग बहुत होंगे तो फी सैकड़े दस होगे, जगत् में तो हम व्याप्त है। हमारे चेले लोग सदा यही कहा करते हैं। और फिर सरकार के राज्य के तो हम एकमात्र भूषण हैं।
दूध सुरा दधिहू सुरा, सुरा अन्न धन धाम।
वेद सुरा ईश्वर सुरा, सुरा स्वर्ग को नाम॥
जाति सुरा विद्या सुरा, बिनु मद रहै न कोय।
सुधरी आजादी सुरा, जगत सुरामय होय॥
ब्राह्मण क्षत्री वैश्य अरु, सैयद सैख पठान।
दै बताइ मोहि कौन जो, करत न मदिरा पान॥
पियत भट्ट के ठट्ट अरु, गुजरातिन के वृंद।
गौतम पियत अनंद सों, पियत अग्र के नंद॥
होटल में मदिरा पियें, चोट लगे नहिं लाज।
लोट लए ठाढ़े रहत, टोटल दैवे काज॥
कोउ कहत मद नहिं पियै, तो कछु लिख्यो न जाय।
कोउ कहत हम मद्यबल, करत वकीली आय॥
मद्यहि के परभाव सो, रचत अनेकन ग्रंथ।
मद्यहि के परकास सो, लखत धरम को पंथ॥
मद पी विधि जग को करत, पालत हरि करि पान।
मद्यहि पी कै नाश सब करत शंभु भगवान॥
विष्णु बारुणी, पोर्ट पुरुषोत्तम, मद्य मुरारि।
शांपिन शिव गौड़ी गिरिश, ब्रांडी ब्रह्म बिचारी॥
मेरी तो धन बुद्धि बल, कुल लज्जा पति गेह।
माय बाप सुत धर्म सब, मदिरा ही न सँदेह॥
सोक-हरन आनँद-करन, उमगावन सब गात।
सरकारहि मंजूर जो मेरो होत उपाय।
तो सब सो बढि मद्य पै देती कर बैठाया॥
हमहीं कों या राज की, परम निसानी जान।
कीर्ति-खंभ सी जग गड़ी, जब लौं थिर ससि भान॥
राजमहल के चिन्ह नहि, मिलिहै जग इत कोय।
तबहू बोतल टूक बहु, मिलिहैं कीरति होय॥
हमारी प्रवृत्ति के हेतु कुछ यत्न करने की आवश्यकता नहीं। मनु पुकारते है 'प्रवृत्तिरेषा भूतानां' और भागवत में कहा है 'लोके व्यवायामिषमद्यसेवा नित्यास्ति जंतोः।' उस पर भी वर्तमान समय की सभ्यता की तो मैं मुख्य मूलसूत्र हूँ। पंच विषयेद्रियों के सुखानुभव मेरे कारण द्विगुणित हो जाते हैं। संगीत-साहित्य की तो एकमात्र जननी हूँ। फिर ऐसा कौन है जो मुझसे विमुख हो?
(गाती है)
(राग काफी, धनाश्री का मेल, ताल धमार)
मदवा पीले पागल जोबन बीत्यौ जात।
बिनु मद जगत सार कछु नाहीं मान हमारी बात॥
पी प्याला छक छक आनँद से नितहि सॉझ औ प्रात।
झूमत चल डगमगी चाल से मारि लाज को लात॥
हाथी मच्छड़, सूरज जुगुनू जाके पिये लखात।
ऐसी सिद्धि छोड़ि मन मूरख काहे ठोकर खात॥
भारतदु०--हमने बहुत से अपने वीर हिंदुस्तान में भेजे हैं परंतु
मुझको तुमसे जितनी आशा है उतनी और किसी से
नहीं है। जरा तुम भी हिंदुस्तान की तरफ जाओ और
हिंदुओं से समझो तो।
मदिरा--हिंदुओ के तो मैं मुद्दत से मुँहलगी हूँ, अब आपकी आज्ञा से और भी अपना जाल फैलाऊँगी और छोटे-बड़े
सबके गले का हार बन जाऊँगी। [जाती है
(रंगशाला के दीपों में से अनेक बुझा दिए जायँगे)
(अंधकार का प्रवेश)
[आँधी आने की भाँति शब्द सुनाई पड़ता है]
अंधकार--(गाता हुआ स्खलित नृत्य करता है)
(राग काफी)
जै जै कलियुग राज की, जै महामोह महराज की।
अटल छत्र सिर फिरत थाप जग मानत जाके काज की॥
कलह अविद्या मोह मूढ़ता सबै नास के साज की॥
हमारा सृष्टि-संहार-कारक भगवान् तमोगुण जी से जन्म है। चोर, उलूक और लंपटों के हम एकमात्र जीवन है। पर्वतों की गुहा, शोकितों के नेत्र, मूर्खों के मस्तिष्क और खलों के चित्त में हमारा निवास है। हृदय के और प्रत्यक्ष, चारों नेत्र हमारे प्रताप से बेकाम हो जाते हैं। हमारे दो स्वरूप हैं, एक आध्यात्मिक और एक आधिभौतिक, जो लोक में अज्ञान और अँधेरे के नाम से प्रसिद्ध है। सुनते हैं कि भारतवर्ष में भेजने को मुझे मेरे परम पूज्य मित्र दुर्दैव महाराज ने आज बुलाया है। चलें देखें क्या कहते हैं। (आगे बढकर) महाराज की जय हो, कहिए, क्या अनुमति है?
भारतदु०--आओ मित्र ! तुम्हारे बिना तो सब सूना था। यद्यपि मैंने अपने बहुत से लोग भारतविजय को भेजे हैं पर तुम्हारे बिना सब निर्बल हैं। मुझको तुम्हारा बड़ा भरोसा है, अब तुमको भी वहाँ जाना होगा।
अंध०--आपके काम के वास्ते भारत क्या वस्तु है, कहिए मैं विलायत जाऊँ।
भारतदु०--नहीं, विलायत जाने का अभी समय नहीं, अभी वहाँ त्रेता, द्वापर है।
अंध--नहीं, मैंने एक बात कही। भला जब तक वहाँ दुष्टा विद्या का प्राबल्य है, मैं वहाँ जाही के क्या करूँगा ! गैस
और मैगनीशिया से मेरी प्रतिष्ठा भंग न हो जायगी।
भारतदु०--हाँ, तो तुम हिंदुस्तान में जाओ और जिसमें हमारा हित हो सो करो। बस "बहुत बुझाइ तुमहिं का कहऊँ, परम चतुर मैं जानत अहऊँ।"
अंध०--बहुत अच्छा, मैं चला। बस जाते ही देखिए क्या करता हूँ।
(नेपथ्य में बैतालिक गान और गीत की समाप्ति में क्रम से पूर्ण अंधकार और पटाक्षेप)
निहचै भारत को अब नास।
जब महराज विमुख उनसों तुम निज मति करी प्रकास॥
अब कहुँ सरन तिन्हैं नहिं मिलिहै ह्वै है सब बल चूर।
बुधि विद्या धन धान सबै अब तिनको मिलिहै धूर॥
अब नहिं राम धर्म अर्जुन नहिं शाक्यसिंह अरु ज्यास।
करिहै कौन पराक्रम इनमें को दैहै अब आस॥
सेवाजी रनजीतसिंह हू अब नहिं बाकी जौन।
करिहै कछू नाम भारत को अब तो सब नृप मौन॥
वही उदैपुर जैपुर रीवॉ पन्ना आदिक राज।
परबस भए न सोच सकहिं कछु करि निज बल बेकाज॥
अँगरेजहु को राज पाइकै रहे कूढ के कूढ।
स्वारथ-पर विभिन्न-मति-भूले हिंदू सब ह्वै मूढ़॥
जग के देस बढ़त बदि-बदि के सब बाजी जेहि काल।
ताहू समय रात इनको है ऐसे ये बेहाल॥
छोटे चित अति भीरु बुद्धि मन चंचल बिगत उछाह।
उदर-भरन-रत, ईस-बिमुख सब भए प्रजा नरनाह॥
इनसों कछू आस नहिं ये तो सब बिधि बुधि-बल-हीन।
बिना एकता-बुद्धि-कला के भए सबहि बिधि दीन॥
बोझ लादि कै पैर छानि के निज-सुख करहु प्रहार।
ये रासम से कछु नहिं कहिहैं मानहु छमा-अगार॥
"हित अनहित पशु पंछी जाना" पै ये जानहिं नाहिं।
भूले रहत आपुने रँग मैं फँसे मूढ़ता माहिं॥
जे न सुनहि हित, भलो करहिं नहि तिनसों आसा कौन।
डंका दै निज सैन साजि अब करहु उतै सब गौन॥
(जवनिका गिरती है)
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भा० ना०--३१