भारतेंदु-नाटकावली/८–अंधेर नगरी (पाँचवाँ अंक)

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भारतेंदु-नाटकावली  (1935) 
द्वारा भारतेन्दु हरिश्चंद्र
[ ६६० ]

पाँचवाँ अंक

स्थान––अरण्य

(गोबरधनदास गाते हुए पाते हैं)
(राग काफी)

अंधेर नगरी अनबूझ राजा। टका सेर भाजी टका सेर खाजा॥
नीच ऊँच सब एकहि ऐसे। जैसे भँडुए पंडित तैसे॥
कुल-मरजाद न मान बड़ाई। सबै एक से लोग-लुगाई॥
जात-पॉत पूछै नहिं कोई। हरि को भजै सो हरि का होई॥
बेश्या जोरू एक समाना। बकरी गऊ एक करि जाना॥
साँचे मारे मारे डोलैं। छली दुष्ट सिर चढ़ि चढ़ि बोले॥
प्रगट सभ्य अंतर छलधारी। साई राजसभा बल भारी॥
साँच कहैं ते पनही खावै। झूठे बहु बिधि पदवी पावैं॥
छलियन के एका के आगे। लाख कहै एकहु नहिं लागे॥
भीतर होइ मलिन की कारो। चहिए बाहर रँग चटकारो॥
धर्म अधर्म एक दरसाई। राजा करे सो न्याष सदाई॥
भीतर स्वाहा बाहर सादे। राज करहिं अमले अरु प्यादे॥
अंधाधुंध मच्यौ सब देसा। मानहुँ राजा रहत बिदेसा॥
गो द्विज श्रुति आदर नहिं होई। मानहुँ नृपति विधर्मी कोई॥
ऊँच नीच सब एकहि सारा। मानहुँ ब्रह्म-ज्ञान विस्तारा॥

[ ६६१ ]

अंधेर नगरी अनबूझ राजा। टका सेर भाजी टका सेर खाजा॥

(बैठकर मिठाई खाता है)

––गुरुजी ने हमको नाहक यहाँ रहने को मना किया था। माना कि देस बहुत बुरा है, पर अपना क्या? अपने किसी राजकाज में थोड़े हैं कि कुछ डर है, रोज मिठाई चाभना, मजे में आनंद से रामभजन करना।

(मिठाई खाता है चार प्यादे चार ओर से आकर उसको पकड लेते हैं)

प० प्या०––चल बे चल, बहुत मिठाई खाकर मुटाया है। आज पूरी हो गई।

दू० प्याo––बाबाजी चलिए, नमोनारायन कीजिए।

गोबरधन०––(घबड़ाकर) हैं! यह आफत कहाँ से आई! अरे भाई, मैने तुम्हारा क्या बिगाड़ा है जो मुझको, पकड़ते हो?

प० प्या०––आपने बिगाड़ा है या बनाया है इससे क्या मतलब, अब चलिए। फॉसी चढ़िए।

गोबरधन०––फॉसी! अरे बाप रे बाप फॉसी! मैंने किसकी जमा लूटी है कि मुझको फॉसी! मैंने किसके प्राण मारे कि मुझको फाँसी!

दू० या––आप बड़े मोटे हैं, इस वास्ते फॉसी होती है।

गोबरधन०––मोटे होने से फॉसी? यह कहाँ का न्याय है! अरे, हँसी फकीरों से नहीं करनी होती। [ ६६२ ]प० प्या०––जब सूली चढ लीजिएगा तब मालूम होगा कि हँसी है कि सच। सीधी राह से चलते है। कि घसीट कर ले चलें?

गोबरधन०––अरे बाबा, क्यो बेकसूर का प्राण मारते हो? भग वान के यहाँ क्या जवाब दोगे?

प० प्या०––भगवान को जवाब राजा देगा। हमको क्या मतलब। हम तो हुक्मी बंदे हैं।

गोबरधन०––तब भी बाबा बात क्या है कि हम फकीर आदमी को नाहक फॉसी देते हो?

प० प्याo-बात यह है कि कल कोतवाल को फॉसी का हुकुम हुआ था। जब फॉसी देने को उसको ले गए, तो फॉसी का फंदा बड़ा हुआ, क्योंकि कोतवाल साहब दुबले है। हम लोगो ने महाराज से अर्ज किया, इस पर हुक्म हुअा कि एक मोटा आदमी पकड़ कर फॉसी दे दो, क्योकि बकरी मारने के अपराध में किसी न किसी को सजा होनी जरूर है, नहीं तो न्याय न होगा। इसी वास्ते तुमको ले जाते हैं कि कोतवाल के बदले तुमको फॉसी दें।

गोषरधन०––तो क्या और कोई मोटा आदमी इस नगर भर में नहीं मिलता जो मुझ अनाथ फकीर को फाँसी देते हैं?

प० प्या०––इसमें दो बात है––एक तो नगर भर में राजा के [ ६६३ ]न्याव के डर से कोई मुटाता ही नहीं, दूसरे और किसी को पकड़ें तो वह न-जानें क्या बात बनावे कि हमीं लोगों के सिर कहीं न घहराय और फिर इस राज में साधू महात्मा इन्हीं लोगो की तो दुर्दशा है, इससे तुम्ही को फांसी देंगे।

गोबरधन०––दुहाई परमेश्वर की, अरे मैं नाहक मारा जाता हूँ! अरे यहाँ बड़ा ही अंधेर है, अरे गुरुजी महाराज का कहा मैंने न माना उसका फल मुझको भोगना पड़ा। गुरुजी कहाँ हो! आओ, मेरे प्राण बचाओ, अरे मैं बेअपराध मारा जाता हूँ। गुरुजी गुरुजी––

(गोबरधनदास चिल्लाता है, प्यादे उसको पकडकर ले जाते हैं)

(जवनिका गिरती हैं)