भारतेंदु-नाटकावली/९–सतीप्रताप (छठा दृश्य)

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भारतेंदु-नाटकावली  (1935) 
द्वारा भारतेन्दु हरिश्चंद्र

[ ६९३ ]

छठा दृश्य

(मालती कुंज में शिला पर सावित्री और सत्यवान बैठे हैं)


सावित्री--तुम मेरे बहुत जतन के प्यारे।
तुव दरसन-लालसा पियारे कह कह कठिन नेम नहिं धारे॥
तुमहि प्रानधन जीवनसर्वस तुमही मम नैनन के तारे।
अब तौ नेकहुँ नाहिं टरौं पिय दुष्ट काल हू जो पै टारे।


सत्यवान--(मुखचुंबन करके) "तुव मुख चंद चकोर ये नैना।
पलक न लगत पलहु बिनु देखे भूलि जात गति पलहु लगै ना॥
अरबरात मिलिबे को निसिदिन मिलेइ रहत मनु कबहुँ मिलैना।
'भगवत रसिक'रसिक की बातें रसिक बिना कोउ समुझि सकै ना॥"


दोनों--"प्रीति की रीति ही अति न्यारी।
लोक बेद सब सों कछु उलटी केवल प्रेमिन प्यारी॥
को जानै समझे को याको बिरली समझनहारी।
'हरीचन्द' अनुभव ही लहिए जामैं गिरवरधारी॥"


सत्यवान--प्यारी ! जब से तुम यहाँ पधारी तब से इस बन की शोभा ही दूसरी हो गई। आहा ! वह सुंदर राज्य प्रासाद और वे सब सुख के सामान जैसे सुखद थे उन से कहीं बढ़कर यह बन तुम्हारे कारण सुखप्रद है।


सावित्री--नाथ ! यह सब केवल तुम्हारा ही प्रभाव है। भला [ ६९४ ] मेरे भाग्य कहाँ जो मैं इस शरीर से तुम्हारी सेवा कर सकूँ पर न जाने किस देवता की कृपा से आज मैं तुम्हारे चरणों की दासी हुई, जिसके लिये लोग जनम जनम पच मरते हैं पर नहीं पाते। (आँखों में आँसू भर आते हैं)


सत्यवान--(गाढ़ आलिंगन करके) मेरी प्राण ! धन्य हमारे भाग्य जो तुम सी नारी हमने पाई। हमारे ऐसा बड़-भागी कोई स्वर्ग में भी न होगा। आहा !

हम सम जग मैं नहिं कोउ आन।

जा घर तुम सी नारि बिराजत ताके कौन समान॥
रूपरासि गुनरासि छबीली प्रेममयी मम जीवन-प्रान।

सकल संपदा बारूँ तुम पर प्यारी चतुर सुजान॥


सावित्री--प्राणनाथ ! क्यों मुझे लजाते हौ? मैं कदापि तुम्हारे योग्य नहीं। न जाने मेरे कौन से पुरबले पुन्य उदय हुए जो आपकी श्री चरणसेवा मेरे बाँट पड़ी। प्राणवल्लभ ! आपके गुणों का अनुभव जो मेरे चित्त को है उसे क्या यह बिचारी चमड़े की जीभ कभी भी जान सकती है ?


(प्रेमाश्रु आँखो में भर आते हैं)


सत्यवान--चलो रहने दो शिष्टाचार की बातें बहुत हो चुकीं। (ऊपर देख कर) ओहो! हम लोगों की बातों में इतना दिन चढ़ आया, पिता के अग्निहोत्र का समय हो गया [ ६९५ ]अभी लकड़ी चुन कर ले जाना है। प्यारी! तुम यहीं ठहरो मैं अभी काष्ट लेकर आता हूँ।

सावित्री---नहीं प्राणनाथ! तुम्हें जाने देने को जी नहीं चाहता। आज न जाने क्यों जी उदास हो रहा है, न जाने कैसा कैसा जी कर रहा है, आप मत जाइए।

सत्यवान---स्त्रियों का स्वभाव अत्यंत कोमल और प्रेममय होता है, इसी से तुम्हारा जी ऐसा हो रहा है और कुछ बात नहीं है। अब हम जाते हैं।

सावित्री---( दहिनी आँख का फड़कना दिखाकर ) नहीं नहीं आप मत जाइये, देखिये मेरी दहिनी आँख भी फड़कती है, आज न जाने क्या होनहार है। मैं आप को न जाने दूँगी।

सत्यवान---यह स्त्रियों के स्वाभाविक दुर्बलता का कारण है और कुछ भी नहीं है। होता वही है जो उसकी इच्छा होती है। अब तुम अाग्रह मत करो, हमें जाने दो, देर हो रही है, पिता दिक़ हो रहे होंगे। ( जाता है और सावित्री बेर बेर मना करती है और व्याकुलता नाट्य करती है )।

सावित्री---( अत्यंत उदास होकर ) आज जी ऐसा क्यों हो रहा है? अाज ऐसा जान पड़ता है कि कोई भारी अनर्थ होगा। (चौंक कर ) हैं! क्या आज ही वह भयानक दिन है जो मुनि ने बतलाया था? हाय? मैंने बुरा किया जा [ ६९६ ]प्राणनाथ को अकेले जाने दिया। हाय! अब क्या करूँ? कहां जाऊँ? क्या मुझे निगोड़ी को मौत नहीं है? प्राणनाथ! तुम कहाँ गए? एक बात हमारी सुनते जाओ। ( कुछ ठहर कर ) जान पड़ता है दूर निकल गई तो चलूँ मैं ही खोज कर मिलूँ। मैंने बुरा किया जो आज उन्हें अकेले जाने दिया। ( अत्यंत व्याकुलता के साथ जाती है )।

( नेपथ्य में गान )

हाय सुख देख नहिं नेक।।
यहां कठोर विधाता कीनो सुखभंजन की टेक॥
द्वै दिन हू सुख हो नहिं बीतत भोगत जन के चैन।
दुख सागर बोरत अचानचक नेकहु दया करै न॥
जग के झूठे सुख सम्पत्ति में धोखे हु भूलहु नाहिं।
अरे बावरे बेग धाई गहु चरन-तरोवर छाहिं॥

( पटाक्षेप )