भारत के प्राचीन राजवंश/२. हैहय-वंश

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[ ७८ ]२ हैहयवंश।

हैहयवंशी, जिनका दूसरा नाम कलचुरी मिलता है, चन्द्रवंशी क्षत्रिय उनके लेखों और ताजपत्रों में, उनकी उत्पत्ति इस प्रकार लिखी है'मगवान विष्णु नाभिकमलसे ब्रह्मा पैदा हुआ । उससे अरिं, और भानके मेनसे 'चन्द उत्पन्न हुआ । चन्द्रके पुन पुपने सूर्यको पुनी बला) से विवाह किया, जिससे पुरूरवाने जन्म लिया । पुरूरवाके शिमें १०० से अधिक अश्वमेध यज्ञ करनेवाला, भरत हुआ, जिसका शिज कार्तवीर्य, माहिष्मती नगरी ( नर्मदा तटपर) का राजा था। पह, अपने समयमें सबसे प्रतापी राजा हुआ । इसी कार्तवीर्यसे सहय लिचुरी) वंश चलो। _ पिछले समयमें, हेहयोका राज्य, प्वेदी देश, गुजरातके कुछ माग और दक्षिण मी रहा था। कलचुरी राजा कर्णदेवने, चन्देल राजा कीर्तिवमा जेजाती (युदेलखण्ड) का राज्य और उसका प्रतिद्ध कलिंजरका किला छीन लिया था तबसे इनका सिताच 'कलिजराधिपति'हुआ । इनका दुसरा खिताब निकलिंगाधिपति' भी मिलता है । जनरल कनिंगहामका अनुमान है कि पनक या अमरावती, अन्ध या वरशोर और कलिम या राजमहेन्द्री, ये तीनों राज्य मिले निकलिम कहाता था। उन्होंने यह भी लिखा है कि विलिंग, सिलंगानाका पर्याय शब्द है। यपि हेहयाँका राज्य, पहुत प्राचीन समय से चला आता मा; परन्त अन उसका पूरा पूरा पता नहीं लगता । उन्होंने अपने नाममा स्वतन्त्र TOEp Ind, Var,II, P. (EARRIA [ ७९ ]________________

मारतके प्राचीन राजवंश रावत् चलाया था, जो कैचरी संवत्झे नाम से प्रसिद्ध य । परन्तु उसके पलानेवालें राग मामा, कुछ पता नहीं गया । उक्त संतु बि० ॥ ३०६ आश्विन शुक्ल १ से प्रारम्भ हुआ और १५ वीं शताब्दी अन्त तक यह चलता रहा । इल्युरियोंके सिवाय, गुजरात ( लाट ) है। चोदुम्य, गुर्जर, सैन्ट्रक और कूटक यं राजाओंके ताम्रपत्र में भी यह सम्बत् लिबा मिठता है। । हैहयका शृलाबन्द्ध इतिहास वि० सं० १३० ३ असपासचे पिता है, और इसके पूर्वका असंभवशात् कहीं कहीं निकल जाता है । ॐ है--वि० सं० ५५० के निकट दक्षिण ( गट ) में चक्पनि अपना राज्य स्थापन किया था, इसके लिये येवूरके लेखेमें लिखी हैं कि, मुक्याने नल, मार्य, कम्त्र, राष्ट्रकूट और कलयुरियासे राज्म छना था । अहिलेके लेखमें चौंक्य राजा मंगल ( श० स० ५१३-५३२=विः कः ६४८-६६६) ॐ वृत्तान्त लिया है कि उसने अपनतलवार वलसे युद्धम क.चुरियोंकी भी छीन ली । यद्यपि इस छपमें कलचुरि निका नाम नहीं है, पान्तु महाके स्तम्भ पर लै बरका नाम बुद्ध और नरके ताब उसके पिता का नाम शकगण लिखी है। सखेड़ा ( गुजरात ) ॐ शासनपर्नमें नो, पल्लपति ( भङ) निरहुड्के रौनापति शालिका दिया हुअा है, शङ्करमणके पिता का नाम कृष्णराज मिर्ज़ा है । बुद्धराज और शगया के राजा थे, इन्की राजधानी जबलपुरकी तेवर (त्रिपु), और गुजरातका पूर्वी हि मी इनके हैं। अधीन था । अतएत्र सबैङ्का ताम्रपत्रका शहाण, वैदीका ज्ञा शङ्का ही या। । (1) lol, Ant VoI, VIII, 1, () EP, lud VI, P 204. ( ) Lid Aot vol XIXP 16(x) Ind Ant vol VII, P 161 १५) Er Ind Pt. T F . [ ८० ]________________

हैहयदेश। चालुक्य विनयादित्यने दूसरे ई राजवंशियोंके साथ साथ हैयकों भी अपने अधीन किंया था । और चौलुक्य विक्रमादित्यने ( वि० सं० ५६५३ ० ७९०) हैंयशी इञिाकी दो वाहनोंसे विवाह किया भा, जिनमें बडीका नगि लोकमहादेध और टीका त्रैलोक्य महादेवी था जिससे कीर्तिवम १ दूसरे ) ने जन्म लिया । उपर्युक्त प्रमास सिद्ध होता हैं ।६ वि० सं० ५५० से ७९० के यीच, या ज्य, चौंक्य राज्य उत्तर में, अर्थात् चेदी और गुजरात ( झट} में था; परन्तु, उस समयका शृखलाबई इतिहास नहीं मिलता। केवल तीन नाम कृप्याराज, शङ्करगी और बुद्धराज मिलते हैं, जिनमें से अधिम राना, चौक्ष मगठीशका समकालीन था । इस लिये उसका वि० सं० ६४८ से ६६६ के बीच विमान होना स्थिर होता है । यद्यपि हैहयोंढे राज्यका वि० सं० ५५० के पूर्व का छ पता नहीं चदन्ता, परन्तु, ३०६ में उनका युवतन्न शम्बत् पाया | सिद्ध करता है कि, उस समय उनका राज्य अवश्य विशेष उन्नति | पर था। १-कोकल्लदेव । | इयों के जॉर्म कोकवदंबसे बंशावली मिलती है । बनारसके दोनपमें उसको स्रवेशा, धर्मामी, परोपकारी, दान, योगाभ्यास, तथा भोग, बल्लभराज, चिनकूट मा श्रीहर्ष और शङ्करगण निर्भय करनेवाला लिसा है। और चिल्हारीके शिलालेखमें लिखा है कि, उसने सारी को जीत, दो कीर्तिस्तम्भ खड़े किये थे-दक्षिणमें कुणाराज और उत्तरमें मौजदेव । इस डेससे प्रतीत होना है कि उपरोक्त दोनों राजा, कोकलदेव समकान ये, जिनकी, शायद उसने La Ant vol yi P 12 (?) Et, Iud i TI, T. (1) Er Ind rol ] 1.905 ( 2 ) ET Ld To Z P 320. [ ८१ ]________________

मरतकें प्राचीन राजवंश सहायता की हो । इन दोनोंसे मश, कन्नौजका भाव १ तीसरा ) होना चाहिये, जिसके समयके लेख वि० सं० ११९, ९२२, १३३, और १ हर्ष ) सं० २७६= वि० सं० ९३९) के मिल चुके हैं । वल्लमराज, दक्षिणके राष्ट्रकुट ( राठौड ) गुजा कृष्णराज ( दूसरे ) का उपनाम था । बिहाके लेखमें, कोकच्चदेवके समय दणि प्याराना होना साफ साफ लिखा है, इसलिये इमरज, यह भाम राठोड कृष्णराज दूसरेके वास्ते होना चाहिये जिसके समके लेल श० हैं ० १८९७ १ वि० स० १३३ }, २५ ( वि० १५७), २४ (विं० १५६) और ८३३( चि ९६८) के मिले हैं। राठोडे।के लेसोंसे पाया जश्ता है कि, इसका विवाह, चेदीके जि। कोकड़की पुत्रींसे हुगा था, जो सकुक्ककी छोबहिन थीं। चिड, जोजाहुति ( बुन्देलखण्ड़ ) में प्रसिद्ध स्पान है, इसलिये श्रीहर्ष, महोवाका चन्देल राजा, हर्ष होना चाहिये जिसके पौत्र धगदेव समयके, वि० सं० १९११ और १०५५६ लेस मिले हैं। शङ्करगण कहाँको राजा था, इसका कुछ पता नहीं गलत । कोहके एक उनका नाम इरिगा था, परन्तु उसका संबध इस थानपर ठीक नहीं 'प्रतीत होता । । उपर्युक्त प्रमाणके आधार पर कछवा राज्यरामप वि.सं. १३० से ९६० के बीच अनुमान किया जा सकता है। इसके १८ पुन ३, जिनमेसे बड़ा ( मुग्धतुग ) त्रिपुरा राना भी, और दूसरों को अग अग महल (जार) निले' । फोकसकी स्वीका नाम नरदेवी या, जो चन्देलवश धी । इसे धन ( मुग्यहैं ) का जन्म । नट्टादेयी, अन्दै हुर्षी मदिंन या बेटी हो, तो आर्य नहीं । | कोई पीछे उरका पुन मुग्धतुंग उसका उराधिकारी दुगा । { {१} EP Iad Fol J, ", ५५ । ३॥ [ ८२ ]________________

हैयचंश। | २-मुग्धतुंग । बिल्हारीके लेख में लिखा है कि, कोकङ्घके पीछे उसका पुत्र मुग्घतुग और उसके बाद उसका पुत्र केयूरवर्ष राज्य पर बैठा, जिसका दूसरा नाम गुवन थी । परन्तु बनारसके दानपसे पाया जाता है कि फोद्धदेवका चराधिकारी उसका पुन प्रसिद्ध धवल हुए, जिसके बालहG और युवराज नामक दो पुत्र हुए; जो इसके बाव क्रमशः गद्दी पर बैठे ।। | इन दोन लेखोंसें पाया जाता है कि प्रसिदभवल, मुग्घर्तुगको उपनाम था। | पूर्वोक्त बिल्हारीकै लेखमें लिखा है कि मुग्धगने पूवार्थ समुद्रतटके देश विनय किये, और कौसल राजासे पाली छीन लियो । इस फसलका आभप्राय, दक्षिण कसलसे होना चाहिये । और पाली, या तो किसी देशविमगम अथवा दिनका नाम हो, जो पाली बज कहलाना था, और बहुधा राजाओंके साथ रहता था । : प्राचीन लेसमें पाया जाता है । , इसका उत्तराधिकारी इसफा पुर बालहप हुआ । ३-४ाहर्प ।। यदि इसका नाम बिहारी लेखमें नहीं दिया है। परन्तु बनारसके नामपनसे इसका राज्मपर बेठमा पिष्ट प्रतीत होता है । चाम | उन्नराधिकारी उसका छोटा भाई युवरागत हुआ ।। ४-केयूरवर्प। युवराजदेव ।। इसको दूसरा नाम युवराजदैव पा । बिहटाके लेपमें, इसका गौड़, (१) Fip Ind vol 1, 2, 257 (३) Ep Ind vol Ir, 307, (३) E; Ind vs 1. F 25 [ ८३ ]________________

भारतकै मात्रीन राजवंश फर्णाट, लाट, फार्मर र लिंगकी स्त्रियांचे विलास करनेवाला, तया” बने देश विनय करनेवाला, लिखा है । परन्तु विजित देश या राजा का नाम नहीं डिपा है । अतएव इसकी विजयवार्ताक्षर पूरा पचान नहीं हो सकंचा। केयूरवर्य र चन्देलराजा यशोवर्मा, समकान थे । खजुराहो के लेखसे पाया जाता है कि, यशोपर्माने असंख्य सैनाबाले देके राजाको युद्ध परास्त किया था। अतएव केयुरयर्षका यशोदम से हारना संभव है। | इसकी रानीका नाम नहला या । उसने चिल्हारी नहलेवर नामक विका मंदिर बनवाया, और घटपाटक, पोप( बिहारीमै ४ मछ) नागवल, खेलपाट (सैलवार, विहारीसे ६ मील) वौद्दा, कज्जाहालें और गानुपाड़ी गाँव के ऊर्पण क्ष्येि । तया पधनावि प्राध्य और दशि शिंप्स, ईववि नामक तपस्व निपानिय र दिपटक, दो गाँव दिने । यह शैवमतका सानु चा; शायद इसको नौलेयरकी मठाधिपते किया हो । योहला चौलुक्य अवर्नतश्नईः पुत्री, सपन्बी पोनी और सिंहकी परपोती थी । इसकी पुत्री कंडक देवीका विवाह दुझिग राष्ट्रकूट (पटो) राजा अमोघवर्षे तीसरे (वहिंग ) चे हुआ या, जिसने . वि० सं० १९६ र ५९ के बीच कुछ समय से राज्य किया था। और जिससे दामका जन्म हुमा । केपूरर्पके नौहट्टाको लक्ष्मण मामक पुत्र हुआ, जो सफा नराधिकारी मा ।।। ५-लक्ष्म ण । इसने बिनाप मड़ पर दयविको जर नोयरकै मई पर इसके दिव्य अपराशर को निपतु किपा । इन साकी शिष्यपरंपरा वि [ ८४ ]________________

यचेश। के लेसमें इस तरह दी है-इममुह यममें, रुद्रशभु नामक तपरती रहता था। उसका शिष्य मत्तमयुनाय, अञ्चन्ती राजाके नगर में जा रहा । उसके पीछे क्रमश: धर्मशशु, सदाशिव मामय, यूशिव, हृदयशिव और अघोरशिव हुए। | पहारीकै छेसमें लिखा है कि, वह अपनी और अपने सार्मतोकी सेना सहित, पश्चिमी विजयधीनामें, शत्रुको जीतता हुआ समुद्र तट पर पहुँची । वहाँ पर उसने समुद्रमें स्नान सुवर्णकै कमलों सोश्वर ( मनाय सौराष्ट्र दक्षिणी समुद्र तटपर) का पूजन किया, और कोलके राजाको जीत, ओड़के राजा से ही हुई, नत सुय की बनी कालिय (नाम) की मुति, हाथी, घोडे, अच् पोशाक, माला गार चन्दन आदि सगेवर { सोमनाथ ) के अर्पण थे । | इसकी रानी का नाम राहा था। तया इसकी पुनीं मेंथा देवीका विवाह, दक्षिणके चालुक्य ( पाश्चम ) राजा विक्मादित्य चोथैसे हु था, निराके पुन तेलपने, राठोड राजा अक्कल ( क दुसरे ) से राज्य छन, वि स ६ १०३० से १८५४ तक राज्य किया था, और मालवीके राजा मज ( चापानराज़ ) ( भनके पिता सिके बड़े | माई ) ने मारा था। इमाने बिल्ड्रामें मसागर नाक चा - तालाब बनवाया। सच भी वहाँकै एक सहरको लोग रोजा लक्ष्मणके महुल बताते हैं । इमके दो पुत्र शकरगण और युवराजदेव हुए, जो कमरा गईं। पर है। | ६-कगण ।। यह अपने पिता लक्ष्मणका ज्वा पुत्र और उत्तराधिकारी था । इसका ऐतिहासिक वृत्तान्त अग तक नहीं मिली । इसके छे इसका छोटा भाई सबरजिवेब ( दूसरा ) गद्दी पर बड़ा । ()) Ep Ind Vol. 1 1 29773) Ep Tad, Vol II-60 | (१)] A B F०] 1 1 115 ४३ [ ८५ ]________________

मारत प्राचीन राजधश ७ युवराजदेव ( दूसरा)। येऊ ( जबलपुरके निकट ) मैं मिले हुए हैंउने तिी है केि इसने अन्य राजाओंङ्गो जीत, उनसे छीनी हुई रुम समिधर ( सोमनाय} के अर्पण का वी था। इयपुर ( नालियर राज्यम) के क्षेत्रमें लिखा है कि, परमार पना यापासैरान (मुज़ ) ने, युबराजको जीत, उसके सेम्पतिको मारा, और त्रिपुरी पर अपनी तलवार गई । इससे प्रतीत होती है कि, बापतिंरान ( मुन्न }३ युवरानदंबसें त्रिपुरा अन ली हो, अपवा उसे कुर झिया हो । परन्तु यह तो निश्चित है कि बिंदु पर बहुत समय पी सेक कलचुरियाका राज्य रहा या । इस लिये, ३ वह नगरी यारों हायमें गई गी, तो झांधिक समय तक उनके पास न रहने पाई होगी। वाक्पतिराज ( मुन) के लेख वि स १०३१ और १०३६ के मिले हैं, और वि. स. १०५१ र १०५४ के चीच किस वर्ष इसका मारा जाना निश्चित है, इस छिये उपर्युक्त पटना वि० १०५४ के पूर्व हुई हो । ८-कोमल १ दूसरा }! | यह युवराजदेव ( दुखरा ) को पुत्र और उदाधिकारी या । इसका विशेष कुछ मी गृत्तान्त नहीं मिला है। इसका पुन नागेयदेव घडा प्रतापी हुमा ।। १-गांगेय दृश् । | यह कोक्काल ( दूसरे ) का पुत्र और उत्तराधिकारी या 1 इसके (1) Ind Ant Val XYILD 910 ) Ep Tad Vol I, 235 ) भन्न [ ८६ ]________________

हैहय-चैन । सोने चौथीं और ताँबेके सिंॐ मिलते हैं, निनकी एक तरफ़, बेठा हुई चतुर्भुनी मी मूर्ति बना है और दूसरी तरफ, 'श्रीमागेयदेवः' लिखा है। इस राजा पीछे, कन्नौजकै राठौड़ने, मचाई चैदेने, शहउद्दीनगोराने और कुमारपाल अजयदेब आदि जाने जो सिके अलाए, वे बहुधा इस शैलीके हैं। गागेयाने विमादित्य नाम धारण किया था ) कलचरियोकै लेखों में इसकी वीरताकी जो, बहुत कुछ प्रशंसा की है वह, हमारे व्याल में यथार्थ ही होगी, क्यमहोवासे मिले हुए, चंदेके देसमें इसको, समस्त जगतका जीतनेवाला लिया है, ता उसी लेमें चंदेल राजा विजयपालकी, गायदेवका गर्व मिटानेपा लिंखा है। इससे प्रकट होता है कि विजयपाल और गागेपदेयके वीच युद्ध हुआ था । इराने प्रयाग, प्रसिद्ध यटके नीचे, रहना पसन्द किया था, वहीं पर इसका देहान्त हुआ। एक सौ रानियों इसके पीछे सजी हुई। अवेरूनी, ई. सु. १०३० (वि० सं० १९८७) में गमको, हाल ( चैदी ) का राजा सिरार है । उसके समर्थका एक लेख कुलदुरी सं०७८६ (वि० सं० १०९४) को मिला है। और उसके पुत्र कवका एक तपन छलेची सं० ७९३ ( वि० सं० १ ०९९) का मिला है, जिसमें लिखा है कि कर्णदेवने, बेशी ( देनगया } नदीमें स्नान कुर, फाल्गुनकृष्ण ३ के दिन अपने पिता श्रीमद्गगेयदेवळे बदसश्राद्धपः, पण्डित विश्वरूपी सुप्त व दियः । अतएव गायब देहान्त दि० सं० १०९४ र १०९९ के बीच किस पर्प फागुनकम्य ६झा होना चाहिये और १०९९ फाल्गुनकुष्य ३ ३ दिन, उस देहान्त हुए, कम से कम एक वर्ष हो चुका था। (१) p Ind Fol I " 5 ( ३) Ep Ind vol 1 [ ८७ ]________________

मारतके प्राचीन राजवंश शायद गेयदेदके समय होयका राज्य, अधिक बढ़ गया है, और प्रयाग मी उनके राज्यमें आगया है । प्रभन्धचितामणिमें गायदेवके पुत्र कर्ण काशीका राजा लिया है। १६-कर्णदेव ।। यह म[गेयदेवका उत्तराधिकारी हुआ । वीर होने के कारण इसने अनेक लड़ाइयाँ सडाँ। इसने अपने सम पर कर्णावती नगरी बसर । जनरल कनिङ्गहमके मतानुसार इस नगरी मनाथशेप मध्यप्रदेशा कातलाईके पास है। काशका कमेरु नामक मन्दिर भी इसन बनवाया था । भेडाघाटके लेख बारहवें श्लोमें उसकी वीरताको इस प्रकार वर्णन है.--- पाण्यदहमताम्मच मुरलस्तत्यानगर्ने ग्रह, { } इ सतिन्दराजगाम घ' बघ्नः परिई सद् ! कर खदासपनर हूण | प्रप नही, पमित्राननि शौर्सयमभर निघ्यपूर्वप्रभे ॥ अर्थात् र्णदेवके प्रताप और विक्रम सामने पाण्ड्य देके राजाने उता छोड़ दी, मुरलीन गर्न ई दिया, कुइँने स छाछ प्रह ६, बड़े और कलिङ्ग देशबाटे कप गये, कारवालें पिके तोते की तर चुपचाप बैठ रहे और हूने हर्ष मनाना शह दिया। विक दंपर्ने तिचा है कि, चॉइ, फुग, ण, गड, गुर्जर, अर करके राना उसी सेवामें रहा करते थे । () Ep Yad Ya II, II, ( 3 ) Real TKI (1) Kal गम् । (५) FRead इण : पे ।(५) fnt, Aut, Pl, viri, 21i. १६ [ ८८ ]________________

यद्यपि हिंसित इन अतिशयोकेमू अघश्य हे; तथापि यह तो निविद् ही है कि कर्ण बड़ा वीर था और उसने अनेक युद्ध में विजय प्राप्त थी श्री ।। | प्रबन्धचिन्ममि सदा वृत्तान्तु इस तरह लिखा है:| शुभ लग्नमें ल देशके शार्की दुमत नाम्प मनसे फर्णका जन्म हुआ । वह बढ़ा वीर और नीतिनिपुण था । १३६ राजा उसी | सेवामें रहते थे। तथा विद्यापति आई महावयासे उसर्फ सभा विभूfपित था । एक दिन दुत बार उसने जसे कहलाया--"अप नगरीमें १८१४ महल पके बनवाये हुए हैं, तथा इतने ही आपके fiत प्रचन्ध अछि ६ । और इतने में आपके खिताब भी । इलिये या । अदमें, शाखामें, अया दानमें, आप मुझको जीत कर एक सौ चित्र चिंताब धारा काजेये, नहीं तो उपको जीतकर मैं १३७ राजाओंको मालिक होऊँ ।” बलवान् फाशिराज का यह सन्देश सुन, भीनका मुसा मान हो गया । अन्तमें भेजके बहुत कहने सुनने से न के नीच यह बात ठहरी है, दोनों राजा अपने धरमें एक ही समयमें एक ही सुरके महल बनवाना प्रारम्भ करे । तथा जिसका महल पहले बन जाय वह दूसरे पर चिंकार कर ले। कने वाराणसी ( बनारसका ) में पर भेजने उर्जनमें महङ बनवाना प्रारम्भ किया । कृर्णका महल पहले तैयार हु । परन्तु भोजने पहले की हुई प्रतिज्ञा भंग कर दी । इसपर अपने सामन्तों सात करों में भोजपर चढ़ाई की । तथा भोजका आधा राज्य देने की शर्त पर गुजरतके राजाको भी साथ कर लिया। उन दोनों ने मिल कर मालवेंकी राजधानको घेर दियो । उ अबसर पर वर भोगका देहान्त हो गया। यह सच १ ते ६ फनि कि तौढ़ कर जका सारा दिनाना रूट लिया । यह वैस्य भीमने अपने संधविंयहिक मंत्री (3linister of gace nnd sre ) डारको 9 [ ८९ ]________________

भारतके प्राचीन रावश झज्ञा दी कि, या तो भीमका जाधा राज्य या दो सिर ३ ।। यह सुन कर दुइपरके समय डामर बत्तीस पैदल सिंगायों सहित कर्णक ममें पहुँचा और सोते हुए उसझे घेर लिया । तर ने एक तरफ हुवर्णमापका, नीलकण्ठ, चिन्तामणि, गणपति आदि देवता और दूसरी तरफ भोज राज्यको सुर्मा समुन्द्ध रख दी । फिर हागरसे कह * इमेसें चाहे जॉनसा एक मार्ग ले लो। यह सुन सोलह पर हाई भीमकी आज्ञासे मरने देवमूर्तिदाछा भाग के जिथः । । प्रदत्त वृत्तान्त भजपर का हमला करना, उस समय जंजर मोरकी मृत्युका होमा, तथा उसने राजधानीका कर्णद्वारा छुट्टा जान प्रकट होता हैं। | नागपुरते निकै हुए परमार राना इमई लैश भी उपरोक्त वातर्फ सत्यती मालूम होता है। उसमें हिंसा है कि मोनके मरने पर उनके राज्य पर विपत्ति छा गई थी 1 उस विपत्तिको मोजके सूटम्वी उदया दिव्यने दूर किया, तया कृणवानों से मिलें हुए राजा कर्णसे अपना अन्य पृने छीना । । उदयपुर ( ग्वारियर ) के उससे मी यही बात मकट होती है । हेमचन्द्र ने अपने बनाए साथ्य काव्य १ व समं लिखा है कि -* संधके राजाको त कुरके भने दिन कप्त पर पढ़ाई की । प्रथम भाभदैयनै अपने दादर नामक दूरी की ग़भामं भैज्ञा । इराने वहाँ पहुँच करके कई बीरताकी प्रशंसा की । और निवेदन किया कि गन्ना म यह जानना चाहता है के आर हमारे TH या शY यह सुन कर्णने उच्चर छिया-त्पुम्पाकी मैत्री हो त्रामाविक केतः ही है। इसपर भी भमके य आने वात सुनकर (!)Er Ind tol II, P, 185 () EP Icd vol I, P, 215 ३८ [ ९० ]________________

इय-यं । मै यहुत ही प्रसन्न हुआ । सुन मेरी तरफ ये हाथी, घोड़े और मोगका सुच-मण्डफिया के ज्ञाझर भीम भेट झरना साथ ही यह भी कहना कि वे मुझे अपना मित्र समझें।" परन्तु ऐमयन्द्रका लिसा उपर्युक्त वृत्तान्त सत्य मालूम नहीं होता। पर्पोकिं चैदिपरक भीमकी चंद्राईके सिवाय इा नहीं है। और प्रपन्धचिन्तामणिझी पूर्वक कृथा पफ जाहिर होता और कहीं भी जिफर है कि, जिस समय कृपने माल पर चढ़ाई की इरा उमय भीम हायतार्य युलाया था । और वहों पर हिस्सा करते समय उन दोनों यच झगडा पैदा हुआ था, परन्तु सुवर्णमण्डपका और गणपात आदि देवमूर्तियां देकर कर्णने चुलह कर डी । इसके सिवाय हेमचन्द्रने जो कुछ भी ममकी चेपिरक चदाईका तर्णन क्रिया है वह कृल्पिते ही हैं। हेमचन्द्रने गुजरातके सोलं राजाओं का महत्त्व प्रकट करनेको ऐसी ऐसी अनेक कृयाएँ लि दी हैं, जिनका अन्य प्रमाण कल्पित होना सिद्ध हो चुका है। फश्मिीरकै बिल्हण कविने अपने रचे विक्रमादेवचरित कायमै शाहलके राजा कर्णका करिके राना डिये फलिप होना रिग है। | प्रबोधचन्द्रोदय नाटकों पाया जाता है कि, चेदिके राजा झर्णन, झलिक्षरके राजा कीर्तिवर्माका राज्य न लिया था। परन्तु कीर्तिवमके | सिमेनपान गाने के अन्यको परास्त कर पीछे से कुढिंझरका सजा बना दिया। विरहणविके लेसे पाया जाता है कि पशि चालुक्य राजा सोनेश्वर ५थमने कर्णको हराया। डास्थित प्रमाणोंसे कर्णना अनेक पड़ोसी राजापर विजय प्राप्त करना सिद्ध होता है। उसकी रानी देवी पनातिकी थी। उससे यश कर्णदेनका जन्म हुआ। (१) विक्रमांकरित, स्वर्ग 1८, १३ । १६ [ ९१ ]________________

भारतके प्राचीन राजवंश | चेदि संवत् ७९३ ( वि० सं० १०९९ ) का एक दानपने फर्णका मिळा है ! और चे० सं० ८७४ १ वि० सं० १११९) का उसके पुत्र यशःकर्णदेयकें ।। इन दोनई बीच ७० वर्षको अन्तर होनेसे संम्भर है कि कर्णने बहुत समयलक राज्य किया होगा । उसके मरने के बाद उसके राज्यों झगड़ा पैदा हुआ । उस समय कन्नौज पर चन्द्रदेवने अधिकार कर लिंया। तसे प्रतिदिन राठौड, कलचुरियाका राज्य दबाने लगे। चन्द्रदेव वि. सं. ११५४ में विद्यमान या । अतःकर्ण का देहान्त उक्त सबके पर्व हुआ होगा। ११-यशःकर्णदेव । एसकें तान्नपत्र लिखा है कि, गोदावरी नईके समीप उसने अन्धदेशकै राजाको हराया 1 तथा बहुत से बाभूषण भीमेश्वर महादेवके अर्पण किये । इस नामके महादेवको मन्दिर गोदावरी निलेके दाम स्थानमें है। भेडापाट लेंसमें पशःकर्णका चम्पारण्पको नए करना ज़सा हैं । शायद इस घटनासे और पुत्र गोदावरी परके युद्ध एक हीतात्पर्प । | वि० सं० ११६१ के परमार राजा लश्मयने त्रिपुरी पर चढ़ाई ऊरके उसके नष्ट कर दिए । यद्यपि इस लेपमें मिपुरीके राजा का नाम नहीं दिया है; तथापि वह चड़ाई यशःपदबके ही समय हुई हो तो गाव नहीं, पौकि विध सं० ११५४ के पूर्व ही कर्णदेयका देहान्त हो चुका या और यशःफर्गदेव वि० हैं ० १ १०९, * पीड़े मक विद्यमान था। (१) Ep Ind. vol 11, 205. १) Ep Ind vol , 5. (3jED. Ind. Tol, it, f, ६. (४] Ep frid. Tul, 1.1, 11, (५) Er. Ind. pl. II. 116d, • ५८ [ ९२ ]________________

देहय-चश ! यश.के समय चैवियफ कुछ हिस्सा कन्नोजकै होहोंने दया ‘लिया था। वि० सं० ११७७ के राठोई गैबिन्द्रचन्द्र के दामपत्र लेरा हैं कि यक्षःकर्णने ज य इद्रीशबको दिया था यह व उसमें विन्दचन्दकी अनुमतिले एक पुरुषको दे दिया। चे० सं० ८७g ( वि० सं० ११७९) का एक ताम्रपत्र यशकदेयका मिला है। उसका उत्तराधिकारी उसका पुन मपकर्णधेघ हुआ । | १२पकर्णदेव ।। यह अपने पिताके पीछे गद्दे पर बैंठी । इसका विवाह मेघाहके मुहल राजी विजयसिक फुन्या आव्हसे हुआ था। यह विजयसिंह बारासंहका पुत्र और हंसपालका पौन था । आ धी माताका नाम यस्मादेषी था । यह मालवैके परमार राज उगादित्यकी पुत्र था । आहादेवाचे दो पुत्र हुए-नरसिदैव और उदयासहदेव । ये दोनों अपने पिता गयकदेबके पीछे क्रमशः गद्दी पर बैठे। | चै० हैं ० १०७ ( वि० सं० १२१२) में मरसिंहदेवके राज्य समय उसकी माता आम्हप्पदैवाने एक शिवमन्दिर बनवाया । इसमें गि, मठ और व्याख्यानशा भी थे। वह मान्दर उसने सावंशॐ ॐ सतु सदशिवको ३ विया । तथा उसके निर्वयार्थं दो गांव भी दिये। ३० ० ९.०२ ( वि० सं० १२०८ } का एक शिलाले गयकदेमका त्रिपुरीसे मिला है । मह त्रिपुरी या तेवर, जबलपुरसे ९ हल मअम है। उसके उर्वरापिकारी नरसिंहका अपम ॐख ३० सं० १०६ ( वि० ({}3 B, A, B प्रA 31. P 24, 6, 4, 6, i 19. Ind, pl. IT P 3, (३) Eg• Il, 41.P H == १४ } ind Ant Yel; *YTIT P, 18y । र , [ ९३ ]________________

भारतकै प्राचीन रवा स० १२११) का मिला है । अत यदुवा देहान्त वि० सद १२०० और १२१' के चार जना होगा । १३-नरसिंहदेव । चे० स० १,०३ (वि० सं० १२०८) के पूर्व ही यह अपने पिता युवज घनाया गया था। पुथ्वीरशिवमयं महाकाव्यमें सा है कि प्रधान द्वारा गइपर लिए जाने के पूर्व अजमेरके चोहान राजा पृथ्वीरगञ्जका पिता मोमे था विदेशमें रहता या । सोमेश्वरको उसके नाना जयसिंह ( गुजरात निद्राज जयसिंह ) ने शिक्षा दी थी । इह एक बार चाँईयन निधानी निपुरी गया, जहाँपर इसका विवाह वहाँके राजा फन्पा फर• देवीकै साथ हुआ । उसमें सोमेश्वरके दो पुत्र उत्पन्न हुए। पृथ्वीराज और हरिराज । 'अयपि उक्त महाकाव्य चैदिके राजाका नाम नहीं है, तभप सोमेश्वरके राज्याभिषेक स० १२२६ ओर देहान्त स० १२३६ को बैंकर अनुमान होता है कि शायद पूर्वोक कर्पूरी नरसिंहब पुत्री होगी 1 जनश्न ति ऐ भनिद्धि है कि, दिके आँवर वा अनङ्गःमाझी पत्नी सोमेश्वरका विवाह हुगा था । इसी कन्या पास मुथ्वीराज जन्म हुआ । तथा वह अपने नानाके यहाँ दिल्ली गई गया । परन्तु यह कथा राईथा निर्मुल हैं । क्या दिल्लीका राज्य हो सोमेश्वरसे भी पूर्व अजमेर के अधीन हो चुका था। तब एक सामन्त* याँ राजा गोद माना सुम्मद नहीं हो सकृता । | ग्वालियर संग राको वीरगॐ दरवारमें जयग्रन्दरि नामक छवि रता माराने ० स० १५०० के करीब हम्मीर में फिल्म बनाया। इस कापमं भी पृथराजके दिल्ली गोद जानेका कोई उल्लेख नहीं है । अनुमान होता है कि शायद पृथ्वीराजशोके रचयिताने इस कृया कल्पना कर ली होगी। (३) Ep Ind vat11, 1' In [ ९४ ]________________

हैहय-अंश । । नरसिंहूदेवके समयके तीन शिलालेख मिले हैं। उनमें से प्रथम दो, ३० से ० ९९७' और ९०५' (विसं० १२१२ र १२१५) ६ हैं। | तथा तीसरा वि० सं० १२१६ झा ।। १४-जयसिंहदेव ।। यह अपने बड़े भाई नरसिंहदेवका उत्तराधिकारी हुआ; उसकी रानीका नाम गोसलादेवी था । उससे विजयसिंहदेवका जन्म हुआ । जयसिंह देवकै समयके तन लेख मिले हैं । पहला चैम् सं० १२६ ( वि० सं० १२३२ ) और दूसरों ने सं० ९२८ ( वि० सं० १२३४ ) हैं । तया तीस संवत् नहीं है। १५-विजयसिंहदेव ! यह परेका पुग्न था, तथउसके fळे गद्दी पर बैठा । उसका एफ तायमन चे० सं० १३३ (वि० ० १२३७) झा मिला है। इससे वि० सं० १२३४ और वि० सं० १२३ के बीच विनसिके राज्याभिषेकका होना सिद्ध होता है। उसके समयका दूसरा नामपन्न वि० सं० १३५३ का है ।। १६-अजयसिंहदेव ।। यह विजयव का पुत्र था। विजयसिदैव समयके चै० सं० १३२ (वि० सं० १२३७) के क्षेमें इसक्का नाम मिला है। इस राजा६ बस इस वंशका कुछ भी छाछ नहीं मिलता। | वै* करदीके राजा के चार वर्षय मिले हैं। उनके संवसादि इस प्रकार है-- (१) Ep. lnd. Fat II. 1. 10. (२) taa. Ant, val. xv, P, 1.३) led, Ash, pl Til, I. 214,(४) Ind. Ant, Pal. T, P. 6, ५ } Ip. Ind, Vol, E, P.]E१३) Ind, Aut, Fu, II, P, १६.१७), 13, A, E. V . 11, I', 181, (८) Ina, . .XY, F, , [ ९५ ]________________

भारतके प्राचीन राजवंश पहला चै० स० ९५६ का पूर्वोक्त जयहिजेयके सामन्त महाराणा कीर्तिवर्मा , दूसरा वि० ० १२५३ दिनम (सिंह) देवळे सुमन्त महाराणर्क रालराणवम्बका, हीररी वि० स० १२५७ का चैलोम्पधर्मदेबके सामन्त महाराणक कुमारपालदेवकों और घोपा ० १० १९९८ का नेपयर्मदेयके मन्त्र महाराजक हरिराजयको। ऊपर उल्लिग्नित तापनि अपसिंहदेव विशय (सिंह) देव ! म्यवर्मदेव इन तीना स्त्रितरत्र इस प्रकार लिखा है- "

  • परमभरिक महाराजाधिराज परमेश्वर परममावर माम३३ पादानुष्यात परमभद्दारक महाराजाधिराज परीवार निकलिङ्गाधिपति निजनमाताश्वपत गजपतिं नरपति राजेनयाधिपति ।”

ऊपर वण ये हुए तीन रानामैसे नपसिंहदेव और (जय(सिंह } ३ को जनरल फानइएम था डाक्टर हार्ने, फलयशकै मानते हैं, और तीसरे राना लोक्यवर्मइँयका चदेठ होनी अनुमान करते हैं, परन्तु उसके नामके साथ जो खिताब झिसे गए हैं, में इन्वेलोंके नहीं, किंतु इयॉही हैं । अत जब तक उनका चन्देल ना दुसरे प्रमाणसे हिट्स न हो तब तक उक्त युरोपियन विहानकी चात पर विश्वास करना उचित नहीं हैं। | वि० स० १२५३ तर्क विजयासहदेब विद्यमान या । सम्भवत इसके बाद भी वह जीवित रा हो । उसके पीछे उसके पुत्र अजयसिंह तो लावद्ध इतिहास मिलता आता है । पर उसके दो वः सः १२९८ में लोक्यपर्म राजा हो। उसी समयके आसपास के बघेलनं विपरीके के रज्यिको नष्ट कर दिया। इन एपबशयोंकी मुद्रामें चतुर्मुग लक्ष्मीको मूर्ति मित्त है, ञिसमें दोनों तरफ हाथ होते हैं। ये पगा और चे। इनके में बेक्का निशान बनाया जाता था। (1) Ind HD, Val XVII P 331 () Ind Ant Vol XYIP 395. ५४ [ ९६ ]________________

डाहरूके हैहयों ( कलचुरियों ) का वैशावृक्ष । कृष्णराज शङ्करंगण बुज १ कोंकल्लेदेव ( यम) , !! ! ! ! ! ! ! ! ! ३ मुग्घनुङ्ग ३ मालह, ४ फैयूरवर्षे ( सुघराजव प्रथम ) ५ लक्ष्मणराज ६ शङ्करमण ७ गुवराजदेय ( द्वितीय ) ८ गोक्षदेव ( द्वितीय ) ९ गायन ३० सं 19८९ ( वि० सं० १०९४) १० कर्पपदे से सं० ७९३१ वि० सं० १०९९) ११ यशःकडेव ३० सं० ८७४ ( वि० सं० ११५७९) १३ गयकर्णदेव चै० सं० १०२ १ वि० सं० १२०८) १३ नरदेवचे० से ० १४ जयसिंहदेव चे० सं० १२६, ९२८१ वि० ८,०७, २०५(दि । सं० १२३२, १९३४ सं०१२१२,१३१५ १५ विजयसिंहदेय चे ६०९३२(वि० सं० हुया वि० सं० १२१६ ! १२३७ सुपर वि० ० १ २३ १६ अजयदेव देव ० १२९६ - - -- - । । [ ९७ ]________________

भारतके प्राचीन राजवंश वक्षिण कादशलके हैहय । पहले, छग के अचान्तमें ले गया है कि, कोंक १८ पुत्र थे । वनमंसे रामसे बड़ा पुत्र मुग्पतु अपने पिता कोवद्वदेवी उत्तराधिकारी हुआ और दूसरे पुत्र अलग अलग जागीरे मिलीं । उनसे एक दशन कलिहाजने दक्षिण काशज्ञ ( महोछ ) में अपना राज्य स्थापन किया । कालिंङ्गराज के यशज स्वतन्त्र राजा हुए । १–ळेङ्गराज | अह फोकलुजेवफा वनि था । रत्नपुरके एक लैखसे ज्ञात होता है। कि, इक्षिण-कोशल पर अधिकार करके तुम्माण नगरी बसने अपनी । राजधानी पनाया ।( दूसरे से स्वसे इलाकेका नाम भी नुम्माया होना पाया जाता है। इसके पुनका नाम कमलराज था । ३-कमलराज । यह एलिजका पुन और उत्तराधिकारी या । ३-रत्नराज ( रनचेच प्रथम )। यह हमलरमका पुन थी और उसके पीछे गद्दी पर बैठा । तुम्मणिर्ने इसने रत्नेशको मदिर बनवाया था, तथा अपने मामसे ररनपुर नामको नम्र भी बसाया था, वहीं ररनपुर कुछ समय बाद इसके दशकी राजधानी बना । रत्नजका विवाह कोमोमपहल राजा बजूककी पुनी नौनासे हुआ था । इस नोनद्वारे वादेन ( प्रवीश ) नै जन्म ग्रहण किया। ४-नृथ्वीदेव ( प्रथम )। थाई रत्नराजका पुत्र र बत्तराधिकारी था। इसने रत्नपुरमें एक तालाब और तुम्माणमें पृथ्वीश्वरेको मान्दर बनवाया था । पृथ्वीदेबने [ ९८ ]________________

हैहय-वंश । अनेक यश किये । इसकी रानी का नाम राना था; जिससे जानदेय नामका मुन हुआ । ५–जाजदेव ( प्रथम )। यह पृथ्वीच का पुत्र था, तो उसके पीछे इसका उत्तराधिकारी हुआ ! इसने अनेक राजाको अपने अधीन क्रिया 1 चेके जाने नैनी झी, कान्यकुब्ज ( फौज) और जैजाकमुक्ति ( महोबा ) के राशा इसकी वीरयाको देख करके स्वयं हैं। इसके मित्र बन गए । इसने सभेञ्चरफी जीता । अधिभिडी, वैरागर, जिका, भागा, तलहारी, दण्डकपुर, नंदावल्ली और कुक्कुटके मडाक्लक राजा इसकी विराज्ञ देते में 1 इसने अपने नाम जाजपुर नगरे यसाया। उसी नगरमें मद, बाम और जलाशयसहित एक शिवमन्दिर बनवा कर दो गाँव उस मन्दिरकै अर्पण किये । इराके मुरुका नाम छवि था, जो विडनाग आदि काचा सिद्धान्तवा ज्ञाता था । जानके सादिमझा माम विग्रहराज था । इस जाके समय शायद चैदीका राजा यशःण, कोजका राठोई गॉपिन्द्रचन्द्र और महोगेका राजा चंदेल नाम होगा। रत्नपुरके हैहपर्यंशी राजाओंमें जाल्लदेव बड़ा प्रताप हुआ; आश्चर्य नहीं कि इस शापामें प्रथम इसने स्वतन्त्रता प्राप्त की । इसकी रानीका नाम मलदंपी' या । इस रागा तबके सिक्के मिले हैं। इनमें एक तरफ * गाजदेगः' लिखा है और दूसरी तरफ एनुमानकी मूचि घन है। चे० सं० ८६६ ( वि० सं० ११७१० सं० १११४ } का रनपुरमें एक लेवं जद्धदेवके समयका मिला है। इसके पुत्रका नाम रत्नदेय मा । (3) 1, ३१ 2. Ant Vol. 551, P 23 (३) EP. Tad, Fol ५७ [ ९९ ]________________

मारतर्फे प्राचीन राजवंश ६-रत्नदेव द्वितीय )। पए जानहुदैबका पुब था और उसके बाद राज्य पर बैठा। इसने कलिङ्देशकै राजा चड गङ्गको जीत । इस राजाके हौवे हि भिले हैं। उनकी एक तरफ ‘भीमद्रनदेवः' लिप्त है और दूसरी तरफ हनुमानी मूर्ति बनी है । परन्तु इस शाखामें रत्नदेव नामके दो राजा हुए हैं । इसलिए ये सिक्के रत्नदेव प्रयमके हैं या रत्नदेव द्वितीयके, यह निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता । इसके पुत्रका नाम पृथ्वीच या ।। ' 5-पृश्वदेव ( द्वितीय }। पह रत्नदेवका पुन और उत्तराधेियरी या । इसके सोने और य’ सिक्के मिले हैं। इन भिक्कों पर ए तरफ श्रीमत्पादेव' सुदा है और दूसरी तरफ हनुमानकी मूर्ति बनी है। यह मूर्चि दो प्रकारको पाई जाती है, किसी पर द्विमुन और किसी पर चतुर्गुन । | इस शास्त्राने तीन पृथ्वीदेव हुए हैं । इस सि किस वादे समयके है यह निश्चय नहीं हैं। सर्कता । पृथ्वीवके समयके दो शिलाडेंस मिले हैं। प्रथम चै सं० १९६१ वि० मुं० ११०=३० स० ११४५) झा और दूसरा चैः सं० ९१० (वि० सं० १२१६६० ० ११५९ } की है। उसके पुरका नाम जीनदेव था। ८-जानदेय ( हितथि )। यह अपने पिता पृथ्वीदेब बुसका उत्तराधिकारी हुआ । २० सं० ६१ वि० स० १२३४-३५ सय ११६५७ } का एक शिलालेख ज्ञान* स्वदेघा मिला है। इसके एनका नाम रनदेव झा । १रनवेव ( तृतीय )। यह जाजदेनका पुत्र था और उस फी गई पर पैदा । यह घे (१) Bp In Vol 1 P 40, (२) 0 A.. B , 17, 76nd.. * , ** [ १०० ]________________

हैहय घंश । | सं० ९३३ ( वि० सं० १२३८=६० सं० ११८१ ) में विद्यमान था । इसके पुत्रका नाम पृथ्वदेव था। १०-पृथ्वीदेव ( तृतीय )। यह अपने पिता रमदैया उत्तराधिकारी हु । पहू वि० सं० १२४७ | (६० १० ११९० } में विद्यमान थे । | पुदैव तीसरेके पीछे वि० सं० १२५७ में इन स्यवंशिया कुछ भी पता नहीं चलता है । दक्षिण कोशल्के हैहयोंका वंशवृक्ष । कोकञ्चदेव यंशमें१-कलिङ्गराज ३-कमलराज ३-रत्नरान ( रत्नदेव प्रथम } ४-पृथ्वीदेव ( प्रथम ) ५-जानवई ( प्रथम ) चे० सं० ८६६ ( वि० सं० ११०१ ) ६-रत्नदेव (द्वितीय) ७-पृथ्वीदेव(द्वितीय)चै० सं०८९६, ९१० (वि०सं० १२०२,१२१६). ८-जाजलदेव ( द्वितीय) चे से० ९१९ (वि० सं० १२२४) १-नदेव (तृतीय) चे ६० ९३३ (वि० सं० १२३८) | १०-वीदेव ( तृतीय ) वि० सं० १२५७ (१) 6. A. 2,You 72.43. (३) =p. ina. Fon. 1. 1, ५७. [ १०१ ]________________

भारतकै प्राचीन रजर्वश कल्याणकै हैहयवंशी । दक्षिणके प्रतापी पश्चिमी चालुक्म राजा तैलप तीसरे राज्य छीन•कर कुछ समय तक च हॉपर कलचुरियोंने स्वतन्त्र राज्य किया । उस समर्म इन्होंने अपनी किताब 'कलिमपुरबराघइयर' रक्सा यो । इनके लेखनै प्रस्ट होता है कि ये हाल ( चेदी } से उधर गए थे । इस लिए में भी दक्षिण कोशलके कुछयुरियोंकी तरह चैदी के चुरिपकि ही बंशज होंगे। तैलपसे राज्य छीनने के बाद इन राजघान कल्याण नगरमें हुई । यह नगर निजामकै राज्यमें कल्याण नामसे प्रसिद्ध है । इनका झण्डा * सुवर्षावृषध्वज ' नामसे प्रत्तिद्ध था । | इनका ठीक ठीक वृत्तान्त जोमम नामके गानो मिलता है। इससे पूर्व वृत्ताम्समें बड़ी गड़बड़ है; क्योंकि हरिहर (माइसोर ) से मिले हुए विज्ञ समयके छेस्रो शत होता है कि, हाल फलचुरि राजा कृश वैशज्ञ कन्नम ( कृष्ण ) के दो पुत्र थे-विजल और सिंदाज। इनमें बड़ा पुत्र अपने पिताका उत्तराधिकारी हुआ । सिंदके चार पुत्र थे—मुगि, शंवर्मा, कन्नर और जोगम। इनसे मैं और जोगम क्रमशः राजा हुए । | जोगमका पुत्र मद्धे ( परमई } हुआ । इस पेमके पुअर नाम विमल यौ । मलके मेष्ठ पुन्नका नाम बदब ( फोमय } या । इसके श० एन० १०९५ ( वि० सं० १२३० }के लेखमें हिंसा है:| चन्द्रवंशी संतम ५ संतसम ) का पुत्र साररस हु । उसका पुत्र कम हुाा । कममकै, नाग और विजन दो पुत्र हुए । विन्नलका ••पुत्र कर्ण और जसा जगम हुआ। परन्तु सं १०९६ ( गते ) और ११०५ ( गत ) ( वि० सं० १२३१ र ११४० ) है तोमपत्र( १ ) मन्दसौर इन्स्यु रन्स पृ॰ ६। [ १०२ ]________________

वैदय-चंश । में जोगमको कृष्णका पुत्र लिखा है । तथा उसके पूर्वके नाम नहीं लिस् हैं। इसी तरह श० सं० ११०० १ वि० सं० १२३५) के तामपन | फन्नमसे बिजल और राजलका, तथा जलसे जगमका उत्पन्न होना | लिखा है। इस प्रकार करीब करीब ऐक ही समयके लेख और तालपत्राने दिये हुए जोगमके पूर्वजके नाम परस्पर नहीं मिलते हैं। १-जोगमे । | इसके पूर्ण नामोंमें गड़बड़ होनसे इसके पिताका फ्या नाम था यह ठीक ठीक नहीं कह सकते 1 वसके पुत्रका नाम पैभडि( परमदि) था। २ पैमोडे ( परमादि)।। | यह नगमका पुत्र और उत्तराधिका था । श० संवत १०५१ ( धर्तमान ) १ वि० सं० ११८५-३० सं० ११२८ ) में यह विद्यमान था। यह पाम सोलंकी राजा सोमेश्वर तीसरेका सामन्त था। तुईदाडी जिला ( बीजापुरके निकट ) उसके अधीन था । इसके पुत्रको नाम मिडदेव था । ३-विज्जलदेव । । | यह पूर्वक सोलंकी राजा सोमेश्वर तीसरेके उत्तराधिकारी जमदेकमल्ल परेका सामन्त था ! तथा जगदेकी मुझे वाम उसके। छोटे भाई और उत्तराधिकारी तैल १ तैलप ) तीसरेको सामन्त हुआ। तेल ( शैलप ) करने उसको अपना सेनापति बनाया । इससे विजलका अफर चहा माया 1 अन्समें उसने तैलपके दूसरे सामन्तको अपनी तरफ मिलाकर उसके कल्याण राज्य पर ही अधिकार कर लिया । ० सं० ११५९ (वि० सं० १२१४) के पहले टेसमें विज्ञको महामण्डलेश्वर लिया है। यद्यपि ० सं० १९४९ से उसने अपना राज्य-- | (1) spin. A, B, , Yal STI, F, 3gp, Ied. A. . ? T, [ १०३ ]________________

मारतके प्राचीन राजवंश वर्ष ( रान जलस ) लिना मारम्भ किया, और निमुनमल्ल, भुजबलचक्रवती और कलचुर्यपक्वता विरुद्ध ( सिंहाथ ) धारण किये, तथापि कुछ समयज्ञक महामहलेश्वर ही होती रही । किन्तु इ० स० १८८५ (वि०स० १२१९) के लैपर्ने उसके साय समस्त भुवनाश्य, महाराजाधिरान, परमेश्वर परममट्टार, आदि स्वतन्त्र रानाके निशान लगे हैं। इससे गनुमान होता है । वि० स० १११९ के करीव वह पूर्ण रूपसे स्वातन्त्र्यलाभ कर दुका था । विज्ञल द्वारा हराए जाने वाइ फल्या को छोडकर तेल अरोगिरि ( धारवाड जिले } में जा रहा । परन्तु वापर भी विज्जलने उसका पीछा किया, जिससे उसको यनवासी तरफ जाना पहा । विजलने कल्याण रामसिहासन पर अधिकार कर लियों, तथा पश्चिम चौलुक्य राज्यके सामन्तोंने म उसको अपना अधिपति मान लिया । विजलके राज्यों जैनधर्मका अधिः प्रचार था। इस मतको नष्ट कर इस स्थानमें मत चलाने की इच्छासे नसत्र नामी ब्राह्मणाने ' बरव'( लिंगायत ) नामक नया पय चलाया । इस मतङ्के अनुयायीं वीरशैव ( लिंगायत) और इसके उपदेशक जगम कहूढ़ाने लगे। इस मत प्रचारार्थ अनेक स्थानों में यसपने उपदेशक भेनें ।इससे उसका नाम ईन वेॉमें प्रारीद हो गया । इस मतके अनुयाथी एक दीकी डिबिया गर्ने लटकाए रहते हैं । इसमें शिवलिंग रहता है। किंगायतके 'बसवे-पुराण' और जैनके । विजठराप-चरित्र' माम मन्थों में अनेक करामातसूचक अन्य बातोंके साथ राय और विजदेवका वृत्तान्त लिया है। ये पुस्तके मर्म आमसे ली गई हैं। इसलिए इन दोनों पुस्तकका वृत्तान्त परस्पर नहीं मिलता। * वसूत्र पुरण' में लिखा है-* बिज्जलदेबके प्रधान बलदेवकी पुत्री गगादेष यसबका गया हुआ था । चलदेके देहान्तके बाद अब इसकी ६६ [ १०४ ]________________

होय-दंश। 'प्रसिद्धि और सद्गुणों के कारण किज्जलने अपना प्रधान, सेनापति और | केपाघ्यक्ष नियत किया, तथा अपनी पुत्री नीललोचनाका निबाह , उसके ‘साथ फेर दिया। उससमय अपने मतके प्रचारार्थ उपदेश के लिये चसक्ने झ्या हुतस्य द्रव्य खर्च करना मरम्भ किंग्र{ यह समद सत्र शत्रुके दूसरे प्रधानने विज्ञलको दी, जिससे बसवसे विंग्ज अपरान्न हो गया । • तथा इनके अपराका मनोमालिन्य प्रतिदिन बसा ही गया । यह . इफ नयत पदी कि एक दिन विज्जलदेवने, हल्लेज और मधुय्य नाम दो धर्मेने जगमों में निकलवा डाली । यह हाल देखें वसव कमाणसे भाग गया । परन्तु उसके भेजे हुए नगदेव नामक पुरुपर्ने, अपने दो मिञ सहित राजमान्दरमें घुसकर सभा के बीच में बैठे हुए दिगपा मार झाला । यह सयर सुनका नसव पडलसंगमेश्वर नाम स्थानमें गया। वहीं पर वह शिवमें य हो गया । वसवी अविधाहिती वहिन नामांत्रिकासे चन्नबसवैका जन्म हुआ । इसने लिंगायत मतर्क उन्नति की 1 ( लिंगायत लोग इसके। शिवका अवतार मानते है।) पसव के देहान्न घोड़ वह उत्तरी कनाडा देश इल्य स्थान में जा रहा ।" *दवस-पुराण' में लिखा है: “वर्तमान इक से ०७१७(वि० सं० ८४१ ) में वसव, शिय लय हो गया । ( पढ़ संतु सर्वथा कपोलकति है । इसके बाद उसके स्थान पर बिजलने चराको नियत किया। एक समय एन र म बेस्य नामक जामको रस्सरी ६घार विज्ञहने गृथ्वीपर घसीटवाए, जिससे उनके प्रण निकल गये । यह पर्छ चैत्र जाईच और चोमण मामके दो मालवियोंने राजाको मार डाली । उसमय इनपसर पर जितने ही संचार और द य इल्याचे भागकर उल्बी नमः स्थानमं ी आपा । विग्नल दामाइने उसका पीछा किया, परन्तु ए र भषा ! उस घाद् विग्गल पुग्ननै चट्टाई की। किंतु [ १०५ ]________________

भारतके प्राचीन राजवंश यह कैद कर लिया गया । तदनन्तर नागर्विकाकी सलाह से मरी हुई सेनाको अन्नरसव पीछे जीवित कर दिया, तया नये रजाको faजछी तरह जहमको न सताने और घर्गमार्ग पर चलनेका उपदेश' देकर कल्याणको मैन ईिया । । * विज्ञराय-यति में लिखा है

  • बसवही बन चट्टी ही झपयनी थी ।उसको विज्नड़ने अपनी परेपमान ( अत्रिंवार्हिता री ) बनाई । इसी कारण इसव विमलके राज्यमें इन पदको पहुंचा था । " असी पुस्तक में वय और गिलके देहान्तके विषयमें लिखा है कि “राजा बिज्जल शोर ववके बीच पन्नेि मुडकृनेके वाद, राजाने कोल्हापुर ( सिहारा ) के महामण्डलेश्वर पर चढ़ाई की । घाँसे लौटते समय मार्गमें एक दिन राजा अपने में बैठा था, इस समय एक जङ्गम जैन साधुझा वेष घोरणकर पांथन हुआ, एक फल उसने राजाको नगर किंया । उ घुसे वह फल लेकर राजाने हो, जिससे उस पर चिपका प्रमाव पई गया और उससे इसका देहात हो गया । परन्तु मरते समय राजाने अपने पुत्र इम्माधिन ( दूसरा ज्जिल ) से कह दिया कि, यह कार्य घसचा है, अतः तू ईराको मार डालना । इस पर इम्मडवचलने वसव पकडने जोर जङ्गमको मार हानेकी अशि दी । यह सदर पाने ही कुऍमें गिर कर बसउने मात्रइत्या कर ली, तथा उराकी छी नींझावाने विष औक्षण कर लिया । इस तरह नवीन राजा कौघ शान्त होने पर घन्नबसबने अपने मामा यसवका इप्य राजाके नजर कर दिया । इससे प्रसन्न होकर उसने चैनवसवको अपना प्रधान बना लिया । । । यद्यपि पूर्येक पुस्तके वृत्तान्तोंमें राज्यसत्यका निय काना कठिन है तयापि सम्माः धरान और विनोदचका द्वेष है। उन दोनों नाशा कारण हुआ हो । बिजलदेव पांच पुत्रं ये—मैर ( सोविय ),

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हैहयवंश। संकम, आवमल्ल, विंधण र वन्नदेव । इसके एक कन्या भी थी । का नाम सिरिया देव या । इसका विवाह सिंहवंशी महामण्डलेश्वर चावंड दुसरे के साथ हुआ था । वड़ येळवनं प्रदेशको स्वामी था । स्विरियादेवी और चनदैवफी मातफा नाम एचदेवी था। विजदेवके समयके कई लेख मिले हैं। उनमे अन्तिम व वर्तमान श० सं० १०९१ १ वि० सं० १२२५) अघाड़ बी अमावास्या ( दक्षिणी ) का है। उसका पुत्र सोमेश्वर उसी वर्षसे अपना राज्यवर्य ( सुन-जुलूस ) लिखता है । अतएव विजलदैवफा देहान्त र सोमेश्वरढ़ा राज्याभिषेक वि० सं० १५२५ में होना चाहिए । यह सोमेश्वर अपने पिताके समयमें ही युवराज़ हो चुका था । | ४-सोमेश्वर ( सोविदेध )। यह अपने पिताका उत्तराधिकारी हुआ । इसका दूसरा नाम सोयिदेव या । इसके सिताव, ये थे-भुजवलगड, रायमुरारी, समस्तभुवनाश्रय, पूष्यीयम, महाराजाधिराज परमेश्वर और फलनुर्य-चक्रवर्ती ।। | इसकी रानी सालदेव संगीताचामें वही निपुण थी । एक दिन उसने अनेक देशों प्रतिष्ठित पुष्पोंसे भरी हुई राजसभाको अपने उत्तम गानसे प्रसन्न फर दिया । इस पर प्रसन्न होकर सोमेश्वरने उसे भूमिदान करने। आशा दी। यह बात उसके ताम्रपत्रसे प्रकट होती है। इस देशमें मुसलमानोंका आधिपत्य होने बादसे ही घानी सियों में संगीतविशा देत होगई है । इतना ही नहीं, यह छीन और राज्य1वद्या अन उनके लिये भूपणके बदले दृश्ण समझी जाने लगी है। परन्तु प्राचीन समय में खियाको संगीत दिवा दी जाती थीं । तथा यह शिक्षा स्त्रियांके लिये भूपया भी समझी जाती थी । इसका प्रमाण रामायण, फाईवरी, माङयिकानमैप और महाभारत आदि संत साहित्यके गर्ने प्राचीन ग्रन्यो मिड़ता है। तः । कहीं प्राचीन शिडॉमें ५ [ १०७ ]मारतके प्राचीन राजधश- भी इसका उस पाया जाता है । जैसे-झोयशले ( यादव ) रामा बाल प्रपाकी तीन रानिमाँ गाने और नाचनेमें भी कुशल था । इनके नाम पदमलदेवी, मावालदेवी और घोप्पदेय थे। बहाल्का पुन विष्णुवर्धन और उसकी रानी शान्तदेवी, दौनों, गाने, खाने र नाचने में चट्टै निपुण में'। । सोमेश्वरके समयका सबसे पहला लेख (वर्तमान ) ० ० १०९६ (वि० सं० १२३३) का मिला है। यह लेप उसके राज्यके दसवें चर्प लिंफो गया था। इसी थर्पमें उसकी देहान्त होना सम्भव है। ५ संकम (निशंकमछ) यह सोमेश्वर डौटा माई यो, ती उसके पीछे उसको उत्तरा- चिफारी हुभा । इप्तको नशम् भी कहते थे । मनके नाम साथ भी में ही खिताब लिखें मिलते हैं, जो खिलाप्त होगेश्वरके नाम- के साथ हैं। ( वर्तमान) श० स० ११.०३ (वि० सं० १२३५७) के लैसमें कम- के अन्य पाँच वर्ष लिंग्सा हैं। ६-आझमछ। | यह समझा छोटा भाई था और उसके नव गद्दी पर बैठा । इसके नामके साथ मी ३ । पूर्वेक सोमेश्वरवाले जिताने लगे हैं r( वर्तमान ) झa स० ११८३ से ११०६ (दि० स० १२३७ से १२५०) तङ्के आवमल्लके सभयके केंस मिले हैं। ७-सिंघण ।। यह आवमल्लका छोटा भाई और उच्चराधेअरी था। श० स० ११५ ( वि० सं० १२४० ) का प्याक समयका एक ताम्रपत्र मिला है। (१) Ehthan Jalgols inacript as a ३६ [ १०८ ]ह्य-चंठा । उसमें इसके केवल महाराजाधिराज लिखा है। वि० सं० १२४० (१० स० ११८३) के आसपास सोलंकी जा तैल ( तेलुप ) तीसरे के पुत्र सोमेश्वरने अपने सैनपात बोम्म ( ब्रह्म ) की सहायता से कलचुरियॉसे। अपने पूर्वज का राज्य पछे छान लिया । फल्याण फिर सोया राज्य स्थापन हुआ । वहाँपरसे सिंचणके ठेके केसी कलचुरी गजाको लेस्व अब तक नहीं मिला है। कल्याणके हैहयोंका वंशवृक्ष । ३- जोगम महिपरमाई ) ३–वितळ ४-मैपर, ५-६, ६-सायम, ७-प्तिपण, ८ सय 1 -