महात्मा शेख़सादी/३ देश-भ्रमण

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महात्मा शेख़सादी  (1917) 
द्वारा प्रेमचंद
[ १४ ]

तीसरा अध्याय

देश-भ्रमण

मुसलमान यात्रियों में [१]*इब्नबतूता सब से श्रेष्ट समझा जाता है। सादी के विषय में विद्वानों ने स्थिर किया है कि उसकी यात्रायें 'बतूता' से कुछही कम थीं। उस समय के सभ्य संसार में ऐसा कोई स्थान न था जहाँ सादी ने पदार्पण न किया हो। वह सदैव पैदल सफ़र किया करते थे। इससे विदित हो सक्ता है कि उनका स्वास्थ्य कैसा अच्छा रहा होगा। साथही वह कितने परिश्रमी थे। साधारण वस्त्रों के अतिरिक्त वह अपने साथ कोई सामान न रखते थे। हाँ, रक्षा के लिए एक कुल्हाड़ी लेलिया करते थे। आज कल के यात्रियों की भाँति पाकेट में नोट बुक दाबकर गाइड (पथदर्शक) के साथ प्रसिद्ध स्थानों का देखना और घर पहुंचकर अपनी यात्रा का वृत्तान्त छपवाकर अपनी विद्वत्ता दर्शाना सादी का उद्देश्य न था। वह जहाँ जाते थे महीनों रहते थे। जन[ १५ ]समुदाय के रीतिरिवाज रहनसहन और आचारव्यवहार को देखते थे। विद्वानोंका सत्संग करते थे और जो विचित्र बात देखते थे उन्हें अपने स्मरण-कोष में संग्रह करते जाते थे। उनकी गुलिस्ताँ और बोस्ताँ दोनों ही पुस्तकें इन्हीं अनुभवों के फल हैं। लेकिन उन्होंने विचित्र जीव-जन्तुओं, या प्रकृतिक दृष्यों, अथवा अद्भुत वस्त्राभूषणों के गपोड़ों से अपनी किताब नहीं भरीं। उनकी दृष्टि सदैव ऐसी बातों पर रहा करती थी कि जिनसे कोई सदाचार-सम्बन्धी परिणाम हो सक्ता हो, जिनसे मनोवेग और वृत्तियों का ज्ञान हो, जिनसे मनुष्य की सज्जनता या दुर्जनता प्रकट हो। सदाचरण, पारस्परिक व्यवहार, और नीतिपालन, उनके उपदेशों के विषय थे। वह ऐसी ही घटनाओं पर विचार करते थे जिनसे इस उच्च उद्देश की पूर्ति हो। यह आवश्यक नहीं था कि घटनायें अद्भुत ही हों। नहीं, वह साधारण बातों से भी ऐसे सिद्धान्त निकाल लेते थे जो साधारण बुद्धि की पहुंच से बाहर होते थे। निम्नलिखित दो चार उदाहरणों से उनकी यह सूक्ष्‌मदर्शिता स्पष्ट हो जायगी।

(१) मुझे 'केश' नामी द्वीप में एक सौदागर से मिलने का संयोग हुआ। उसके पास सामान से लदे हुये १५० ऊंट, और ४० ख़िदमतगार थे। उसने मुझे अपना अतिथि बनाया। सारी रात अपनी राम-कहानी सुनाता रहा कि मेरा इतना माल तुर्किस्तान में पड़ा है, [ १६ ]इतना हिन्दुस्तान में, इतनी भूमि अमुक स्थान पर है, इतने मकान अमुक स्थान पर, कभी कहता मुझे मिश्र जाने का शौक़ है लेकिन वहां की जलवायु हानिकारक है। जनाब शेख़ साहेब, मेरा विचार एक और यात्रा करने का है, अगर वह पूरी हो जाय तो फिर एकान्तवास करने लगूं। मैंने पूछा कि वह कौनसी यात्रा है? तो आप बोले कि पारस का गन्धक चीन देश में लेजाना चाहता हूं, क्योंकि सुना है कि वहां इसके अच्छे दाम खड़े होते हैं, और चीन के प्याले रूम लेजाना चाहता हूं। वहां से रूम का '[२]*देबा' लेकर हिन्दुस्तान में, और हिन्दुस्तान की फौलाद 'हलब' में और हलब का आईना 'यमन' में, और यमन की चादरें लेकर पारस लौट जाऊंगा। फिर चुपके से एक दूकान कर लूंगा और सफ़र छोड़ दूंगा आगे ईश्वर मालिक है। उसकी यह तृष्णा देख कर मैं उकता गया और बोला:—

"आपने सुना होगा कि 'ग़ोर' का एक बहुत बड़ा सौदागर जब घोड़े से गिर कर मरने लगा तो उसने एक ठंडी सांस लेकर कहा कि तृष्णावान् मनुष्य की इन दो आंखों को या तो सन्तोष भर सक्ता है या क़ब्र की मिट्टी।" [ १७ ]

(२) कोई थका मांदा भूख का मारा बटोही एक धनवान आदमी के घर पर जा निकला। वहाँ उस समय आमोद-प्रमोद की बातें हो रही थीं। किन्तु उस बेचारे को उन में ज़रा भी मज़ा न आता था। अन्त में गृह के स्वामी ने कहा जनाब, कुछ श्राप भी कहिये। 'मुसाफ़िर ने जवाब दिया, मेरा भूख से बुरा हाल है।' खामी ने लौंडी से कहा, खाना ला। लौंडी ने दस्तरख़्वान बिछा कर खाना रक्खा। लेकिन अभी सब चीज़े तैयार न थीं। स्वामी ने कहा, कृपा कर ज़रा ठहर जाइये अभी कोफ़ता तैयार नहीं है। इसपर मुसाफिर ने यह शेर पढ़ा—

"कोफ़ता दर सफ़रये मागो मुबाश,
कोफ़ंता रा नान-तिही कोफ़तास्त।"

भावार्थ—मुझे [३]*कोफ़ता की ज़रूरत नहीं है। भूखे आदमी को ख़ाली रोटी ही कोफ़ता है।

(३) एक समय मैं मित्रों और बन्धुओं से उकता कर क़िलस्तीन के जंगल में रहने लगा। लेकिन एक दिन ईसाइयों ने मुझे क़ैद कर लिया। उस समय मुसलमानों और ईसाइयों में लड़ाई हो रही थी। मुझे भी खाई खोदने के काम पर लगा दिया। कुछ दिनों के पश्चात् वहां हलबदेश का एक धनाढ्य मनुष्य आया, [ १८ ]जो मुझे पहचानता था। उसे मुझ पर दया आई। वह १० [४]*दीनार देकर मुझे क़ैद से छुड़ा कर अपने, घर लेगया और कुछ दिनों के बाद अपनी लड़की से मेरा निकाह कर दिया। वह स्त्री दुष्टा थी। मेरा आदर-सत्कार तो क्या करती, एक दिन क्रुद्ध होकर बोली "क्यों साहेब, तुम वही हो ना जिसे मेरे पिता ने १० दीनार पर ख़रीदा था। मैं ने कहा, "जी हां, में वही लाभकारी वस्तु हूं जिसे आपके पिता ने १० दीनार पर ख़रीद कर आपके हाथ १०० दीनार पर बेच दिया।" यह यही मसल हुई कि एक धर्मात्मा पुरुष किसी बकरी को भेड़िये के पंजे से छुड़ा लाया। लेकिन रात को वही बकरी उसने ख़ुद वध करडाली।

(४) मुझे एक बार कई फ़क़ीर साथ सफ़र करते हुए मिले। मैं अकेला था। उनसे कहा कि मुझे भी साथ ले चलिये। उन्होंने स्वीकार न किया। मैंने कहा कि यह रुखाई साधुओं को शोभा नहीं देती। तब उन्होंने जवाब दिया, नाराज़ होने की बात नहीं, कुछ दिन हुये एक बटोही इसी तरह हमारे साथ हो लिया था। एक दिन एक किले के नीचे हम लोग ठहरे। उस मुसाफ़िर ने आधी रात को हमारा लोटा उठाया कि लघुशंका करने जाता हूं। लेकिन खुद ग़ायब हो गया। यहांतक भी कुशल थी। लेकिन उसने क़िले में [ १९ ]जाकर कुछ जवाहरात चुराये और ख़िसक गया। प्रातःकाल किले वालों ने हमको पकड़ा। बहुत खोज के पीछे जब उस दुष्ट का पता मिला तब जाकर हम लोग क़ैद से मुक्त हुए। इस लिए हम लोगों ने प्रण कर लिया है कि किसी अनजान आदमी को अपन साथ न लेंगे।

(५) दो खुरासानी फ़क़ीर साथ साथ सफ़र कर रहे थे। उन में एक तो बुड्ढा था जो दो दिन के बाद खाना खाता था। दूसरा जवान था जो दिन में तीन बार भोजन पर हाथ फेरता था। संयोग से दोनों किसी शहर में जासूसी के भ्रम में पकड़ गये। उन्हें एक कोठरी में बन्द करके दीवार चुनवा दी गई। दो सप्ताह के बाद मालूम हुआ कि दोनों निरपराध हैं। इस लिए बादशाह ने आज्ञा दी कि उन्हें छोड़ दिया जाय। जब कोठरी की दीवार तोड़ी गई तो देखा गया कि जवान तो मरा पड़ा है और बूढ़ा जीवित है। इस पर लोग बड़ा कौतुहल करने लगे। इतने में एक बुद्धिमान पुरुष उधर से आ निकला। उसने कहा यह तो कोई आश्चर्य का विषय नहीं, यदि इसके विपरीत हो तो आश्चर्य की बात थी।

(६) एक साल हाजियों के क़ाफ़िले में फूट पड़ गई। मैं भी साथ ही यात्रा कर रहा था। हमने खूब लड़ाइयां कीं। एक ऊंटवान ने हमारी यह दशा [ २० ]देख कर अपने साथी से कहा, खेद की बात है कि शतरंज के प्यादें तो जब मैदान पार कर लेते हैं तो वज़ीर बन जाते हैं, मगर हाजी प्यादे ज्यों ज्यों आगे बढ़ते हैं, पहले से भी ख़राब होते जाते हैं। इनसे कहो, तुम क्या हज करोगे जो यों एक दूसरे को काटे खाते हो। हाजी तो तुम्हारे ऊंट हैं जो कांटे खाते हैं और बोझ भी उठाते हैं।

(७) रूम में मैं एक साधु महात्मा की प्रशंसा सुन कर उनसे मिलने गया। उन्होंने हमारा विशेष स्वागत किया। किन्तु खाना न ख़िलाया। रात को वह तो अपनी माला फेरते रहे और हमें भूख से नींद न आई। सुबह हुई तो उन्होंने फिर वही कल का सा आगत-स्वागत आरम्भ किया। इस पर हमारे एक मुंहफट मित्र ने कहा "महाशय अतिथि के लिए इस सत्कार से अधिक भोजन की ज़रूरत है। भला ऐसी उपासना से कब उपकार होसक्ता है जब कई आदमी भूख के मारे करवटें बदलते रहें।"

(८) एक बार मैंने एक मनुष्य को तेंदुए पर सवार देखा। भय से कांपने लगा। उसने यह देखकर हंसते हुए कहा, सादी, डरता क्यों है, यह कोई आश्चर्य की बात नहीं। यदि मनुष्य ईश्वर की आज्ञा से मुंह न मोड़े तो उसकी आज्ञा से भी कोई मुंह नहीं मोड़ सकता। [ २१ ]

(९) सादी ने भारत की यात्रा भी की थी। कुछ विद्वानों का अनुमान है कि वह चार बार हिन्दुस्तान आये, परन्तु इसका कोई प्रमाण नहीं। हां, उनका एक बेर यहां आना निर्भ्रान्त है। वह गुजरात तक आये और शायद वहीं से लौट गये। सोमनाथ के विषय में उन्होंने एक घटना लिखी है जो शायद सादी की यात्रावृत्तान्त में सब से अधिक कौतूहल-जनक है। वे लिखते हैं कि जब मैं सोमनाथ पहुंचा तो देखा कि सहस्रों स्त्री-पुरुष मन्दिर के द्वार पर खड़े हैं और उनमें कितने ही मुरादें मांगने के लिए दूर दूर से आये हैं। मुझे उनकी मूर्खता पर खेद हुआ। एक दिन मैंने कई आदमियों के सामने मूर्तिपूजा की निन्दा की। इस पर मन्दिर के बहुत से पुजारी जमा होगये, और मुझे घेर लिया। मैं डरा कि कहीं यह लोग मुझे पीटने न लगें। मैं बोला, कि मैंने कोई बात अश्रद्धा से नहीं कही। मैं तो खुद इस मूर्ति पर मोहित हूं लेकिन मैं अभी यहां के गुप्त-रहस्यों को नहीं जानता इसलिए चाहता हूं कि इस तत्व का पूर्ण-ज्ञान प्राप्त करके उपासक बनूँ। पुजारियों को मेरी यह बातें पसन्द आईं उन्होंने कहा आज रात को तू मन्दिर में रह। तेरे सब भ्रम मिट जायंगे। मैं रात भर वहां रहा। प्रातःकाल जब नगरवासी वहां एकत्रित हुए तो उस मूर्ति ने अपने हाथ उठाये जैसे कोई प्रार्थना कर रहा हो। यह देखते ही सब लोग जय जय पुकारने लगे। जब [ २२ ]लोग चले गये तो पुजारी ने हंस कर मुझसे कहा क्यों अब तो कोई शंका नहीं रही? मैं कृत्रिम-भाव बना कर रोने लगा और लज्जा प्रगट की। पुजारियों को मुझ पर विश्वास होगया। मैं कुछ दिनों के लिए उनमें मिल गया। जब मन्दिरवालों का मुझपर विश्वास जम गया तो एक रात को अवसर पाकर मैंने मन्दिर का द्वार बन्द कर दिया और मूर्ति के सिंहासन के निकट जाकर ध्यान से देखने लगा। वहां मुझे एक परदा दिखाई पड़ा जिसके पीछे एक पुजारी बैठा हुआ था। उसके हाथ में एक डोर थी। मुझे मालूम हो गया कि जब यह उस डोरे को खींचता है तो मूर्ति का हाथ उठ जाता है। इसी को लोग दैविक बात समझते हैं।

यद्यपि सादी मिथ्यावादी नहीं थे तथापि इस वृत्तान्त में कई बातें ऐसी हैं जो तर्क की कसौटी पर नहीं कसी जा सक्तीं। लेकिन इतना मानने में कोई आपत्ति न होनी चाहिये कि सादी गुजरात आये और सोमनाथ में ठहरे थे।

 

  1. *इब्नबतूता प्रख्यात यात्री था। उसका ग्रंथ सफ़रनामा महत्वका है।
  2. * एक प्रकार का बहुमूल्य कपड़ा।
  3. * एक प्रकार का व्यंजन।
  4. एक सोने का सिक्का जो लगभग २५) के घराबर होता है।